Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सुधा टीका स्था०३उ०२ सू०३७ पुरुषप्रकारनिरूपणम् द्ध्या ३, 'जइत्ता'-इति जित्वा-युद्धे जयं प्राप्य ३, अजित्वा-जयमप्राप्य ३, पराजित्य-परपराजयं माप्य सुमना भवति, संभावितमहावित्तव्ययाद्यनर्थविनिमुक्तत्वात् ३। 'नो चेप' इति-अपराजित्य-पराभवमप्राप्य सुमना भवतीत्यादि अपराजित्य" इन पदों के साथ भी ऐसा ही सुमना और दुर्भना और मध्यस्थ होनेके विषय का कालत्रय को लेकर कथन करना चाहिये, इन शब्दों का अर्थ इस प्रकार से है। निषिद्य बैठ करके, अनिषद्य-नहीं बैठ करके, हत्या-मार करके, अहत्वा नहीं मार करके, छित्वा छेदन करके, अछित्वा नहीं छेदन करके, उक्त्वा पद वाक्यादि कह करके, अनुक्या नहीं करके, भाषित्वा-भाषण करनेयोग्य किसीके साथ भाषण करके, अभाषित्वा-नहीं भाषण करने योग्यके साथ नहीं भाषण करके, दत्त्वा दे करके, अदत्त्वा-नहीं दे करके, भुक्त्वाखाकरके, अभुक्त्वा नहीं खाकरके, लब्ध्वा-प्राप्तकरके, अलध्या नहीं प्राप्त करके, पीत्वो-पीकरके, अपीत्वो-नहीं पीकरके, सुप्त्वा
सो करके, असुप्त्वा-नहीं तो करके, युवा-युद्ध करके,अयुध्वा-युद्ध नहीं करके, जित्वा-जीतकरके, अजित्वा-नहीं जीत करके पराजित्यहार प्राप्त करके, अपराजित्य-पराजय प्राप्त नहीं करके कोई मनुष्य सुमना होता है, कोई दुर्भना होता है और कोई मध्यस्थ रहता है इस पराजित्य भने अपराजित्य ! पहनी साथे ५५ सुमना, ना भने મધ્યસ્થ હોવાનું કથન ત્રણે કાળને અનુલક્ષીને કરવું જોઈએ. હવે આ પદને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે
निषिद्य-मेसीन, अनिषिद्य-मे पिना, हत्वाने, अहत्त्वा-९या विना, छित्त्वा छेदीने, अछित्त्वा छेधा बिना, उक्त्वा-५६, पाठ्य साहि मोटीन, अनुककृत्त्वा-नही मोटीन, भाषित्वा भाष४२१॥ योग्य ना साथे भाषण
शन, अभाषित्वानडी लापय ४२१। योग्य मेवी व्यति साथै भाषण नही ४शन, दत्वासापान, अदत्वा=नी साधीन, भुक्त्वाने, अभुक्त्वानही माने, लब्ध्वा=IH शन, अलब्ध्वा=प्रा नही रीने, पीत्वाधान, अपीत्वा=पी विना, सुप्त्वा=सून, असुप्त्वा-शयन नही रीने, युद्ध्वा= युद्ध शन, अयुवा-युद्ध नही' शने, जित्वातीन, अजित्वानडीतान, पराजित्य-२ प्रात ४शने, अपराजित्य=५२१०८य प्रास नही , म मा કિયાએ કરીને કેઈ મનુષ્ય હર્ષિત થાય છે, કોઈ મનુષ્ય દુખિત થાય છે અને કોઈ મનુષ્ય મધ્યસ્થભાવમાં રહે છે, આ પ્રકારનું કથન ત્રણે કાળને
શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૨