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वर्धमानचम्पू
रचनाकार
पं. मूलचन्द शास्त्री, न्यायतीर्थ
प्राणु जो विसं
प्रकाशक
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
राजस्थान
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प्रस्तावना
पं. मूलचन्द्र शास्त्री की प्रखर प्रतिभा उन्हें संस्कृत साहित्य में असाधारण स्थान पर प्रतिष्ठित करती है। वर्तमान युग में एक ओर जहां संस्कृत साहित्य के विकास की परम्परा अपर सो हो भी है, नहीं . मुलचन्द्र शास्त्री जैसे मनीषी संस्कृत साहित्य को अपनी अमर कृतियों के द्वारा नव-नवोन्मेष प्रदान करते हए दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी कृतियों में संस्कृत-काव्य-गली का रम्य रूप प्रस्फुटित हुआ है। उनकी कविता के जिन गुणों ने संस्कृत-जगत को मनोमुग्ध कर दिया है वह उनकी निरन्तर सारस्वत साधना है । अपने विषय को प्राचीन आख्यानों से ग्रहण कर वे उसे अपने सृष्टि-नैपुण्य से विलक्षण बना देते हैं। वे उसे अति रुचिकर और मनोमुग्धकारी स्वरूप प्रदान करने में अपूर्व दक्षता का परिचय देते हैं । मौलिकता, नई सृष्टि रचने में उतनी प्रशस्य नहीं होती, जितनी प्राचीन सृष्टि को नुतन चमत्कार प्रदान करने में होती है । उनकी लोकप्रियता का प्रधान कारण है उनकी प्रभावपूर्ण लालित्म-युक्त परिष्कृत गली।
साहित्य समाज का दर्पण होता है । साहित्य जिस प्रकार का होगा समाज उसमें उसी प्रकार का प्रतिबिम्बित होता रहेगा । समाज के रूपरंग, उत्थान-पतन, सम्पन्नता विपन्नता के निश्चित ज्ञान का साधन तत्कालीन साहित्य होता है। इसी प्रकार साहित्य संस्कृति का प्रमुख वाहन होता है । संस्कृति की प्रात्मा साहित्य के अन्तस्तल से अपनी मधुर झांकी प्रदर्शित करती रहती हैं। संस्कृति में जब प्राध्यात्मिकता की भव्य भावनाएं उच्छ्व सित होती हुई दृष्टिगत होती हैं ता उस देश अथवा जाति का साहित्य भी आध्यात्मिकता से अनुप्राणित हुए बिना नहीं रह सकता । साहित्य सामाजिक भावना तथा सामाजिक विचारों को विशुद्ध अभिव्यक्ति होने के फलस्वरूप यदि समाज का मुकूट है तो सांस्कृतिक प्राचार तथा विचार के विपुल प्रवाहक तथा प्रसारक होने के कारण संस्कृति के सन्देश को जनता के हृदय तक पहुंचाने का माध्यम होने से संस्कृति का वाहन होता है।
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भारतवर्ष में सांसारिक जीवन के उपकरणों के सुलभ होने के कारण भारतीय समाज जीवन संग्राम के निकट संघर्ष से अपने को पृथक् रखकर, श्रानन्द की अनुभूतिको यथार्थ की उन्धिको अपना लक्ष्य बनाता है। इसीलिए संस्कृत काव्य जीवन की विषम परि स्थितियों के अन्दर ग्रानन्द के अन्वेषण में सदा संलग्न रहा है | आनन्द सत् चित् प्रानन्द स्वरूप ईश्वरीय शक्ति का विशुद्ध पूर्ण रूप है प्रतएव संस्कृत काव्य की ग्रात्मा रस है । रस का उन्मीलन कर श्रोता तथा पाठक के हृदय में आनन्द का उन्मेष करना ही काव्य का तरम लक्ष्य है।
भारतवर्ष धर्मप्राण देश है। भारतीय धर्म का थाधारपीठ है अनन्तवीर्यशाली परमात्मा की सत्ता में अटूट विश्वास । भक्त भगवान् के चरणारविन्द में स्वयं को समर्पित कर देने में ही जीवन की सार्थकता मानता है । संसार की क्लेश-भावना जीव को तभी तक कलुषित तथा सन्तप्त बनाती है, जब तक वह अपने आराध्य का भक्त नहीं बन जाता, तब तक रागादिक शत्रु के समान सन्तापकारक हैं, यह संसार कारागृह है, यह सांसारिक मोहबन्धन पाण के समान है । यही कारण है कि शास्त्रीजी, जिन्होंने प्रस्तुत काव्य की रचना की है, वह रचना उनकी आध्यात्मिक भावभूमि से उद्भूत होकर शाश्वत काव्य-सृष्टि की परम्परा में अनुपम मुक्तापटली के समान प्रतिष्ठित हुई है ।
संस्कृत साहित्य में पद्य एवं गद्य काव्यों के अतिरिक्त चम्पू नाम से अभिहित काव्य-परम्परा का विपुल साहित्य उपलब्ध है। यह साहित्य अपने अपरिमित साहित्यिक सौन्दर्य, मधुर - विन्यास एवं रस-पेशलता को दृष्टि से श्रद्वितीय है। चम्पू काव्य का सर्वप्रथम काव्य- लक्षण, " गद्यपद्यमयी रचना" कहकर, दण्डी ने अपने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ काव्यादर्श में किया है । गद्य काव्य गौरव तथा वर्णन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है तो प काव्य अपनी छन्दोबद्धता के कारण होनेवाली गेयता और लय-सम्पत्ति से समृद्ध माना जाता है। इन दोनों का मिश्रण वस्तुतः एक नूतन चमत्कार का अद्भुत कमनीयता का सर्जन करता है श्रतएव चम्पूकाव्य की रचना नेमण्डल को अनायास ही अपनी ओर प्राकृष्ट किया है । यह काव्य स्वसंवेद्य रस- पेशलता तथा वर्णनाजन्य माधुरी का उत्पादक होता है । जीवन्धर चम्पू के रचयिता हरिचन्द्र चम्पू को बाल्य और तारुण्य की सन्धि-स्थल में विद्यमान किशोरी कन्या के समान अधिक रसोत्पादक मानते हैं
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गद्यावली पधपरम्परा च प्रत्येकमप्यावहति प्रमादम् । हर्षप्रकर्ष तनुते मिलित्वा द्राक् बाल्यताहणवतोव कन्या ।
जीवन्धर चम्पू १.६ रामायण-चम्पू के प्रणेता भोजराज गद्य-समन्वित पध-सूक्ति को वाद्य से युक्त गायन के समान मानते हैं
गद्यानुबन्धरस मिश्रितपद्यसूक्ति
हूं या हि वाद्य-कल या कलितेब गोतिः । चम्पूरामायण, १.३ गद्य एवं पद्य के वर्णनीय विषयों का सामान्यत: विभाजन नही किया जा सकता परन्तु सूक्ष्मेक्षिका से दृष्टिपात करने पर अन्तर स्पष्ट हा जाता है। मानव-हृदय की रागात्मिका वृत्ति के प्रबाधक भाव छन्द के माध्यम से अत्यन्त सुचारुरूप से प्रकट किये जा सकते हैं तो बाह्य वस्तुओं के चित्र में बाद कामाय; अनः क्षिर माता प्रशित करता है । फलतः गद्य-पद्य के मिश्रित रूप का एकत्र बिन्यास अवश्य ही सचर एवं हृदयावर्जक रूप धारण कर लेता है। गद्य एवं पश्य के वण्य विषय पर कवियों का विशेष आग्रह नहीं रहा । उन्होंने अपनी इच्छानुसार जैसा चाहा वैसा वर्णन गद्य या पद्य किसी माध्यम से किया परन्तु इस मिश्रित शैली के नैसगिक चमत्कार की ओर उनका आकर्षण अवश्य रहा । चम्प के रचयिताओं की दृष्टि में चम्पू एक विलक्षण आनन्द का मुष्टि करता है, जो न मद्य काव्य के द्वारा जन्य है पीर न पद्य काव्य के द्वारा उद्भाव्य है।
पं. मूलचन्द्र शास्त्री की यह रचना चम्पू-काव्य के अन्तर्गत परिगणित होती है । गद्य-पद्य मिश्रित प्रकृत काव्य-रचना, कठार तक-कंग दार्शनिक सिद्धान्तों का साहित्यिका भाषा के माध्यम से अपनी उत्कृष्ट कमनीयता के साथ प्रस्तुत करती है, यह निर्विवाद सत्य है। काव्य की भाषा अत्यन्त प्रांजल एब शेला प्रौढ़ तथा आकषक है । वर्णन को प्रचरता में यह किसी अन्य काव्य से न्यून नहीं है। कत्रि के पाण्डित्य का पद-पद पर दर्शन होता है । उस युग की धामिक एवं दार्शनिक प्रवःतयों का उन्होंने बड़ा ही रोचक विवरण प्रस्तुत किया है तथा उनन द्वारा विहित समाज एवं संस्कृति का उज्ज्वल चित्रण रसिकजना की प्रशंसा का विषय है । वर्णन में कवि का नैपुण्य कथानक को चकार बनाने में सर्वश्रा सक्षम है ।
कविवर मुलचन्द्र शास्त्री का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ। उनकी जन्मभूमि मालीन नामक कस्वा है जो सागर जिले के अन्तर्गत
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एक सुरम्य स्थल है। परवार कुलोत्पन्न श्री सटोलेलाल इनके जनक एवं श्रीमती सल्लोदेवी इनकी माता थीं। प्रस्तुत काव्य के अन्त में उन्होंने स्वयं उद्धत किया है
सल्लो माता पिता मे श्री सटोलेलाल नामकः ।
जिनधर्मानुरागी स परवारकुलोद्भवः ।। वे अपने माता-पिता के एक मात्र पुत्र थे पर देव-दुबिपाक से अल्पपायु में ही उनके पिता दिवंगत हो गये । उस समय शास्त्रीजी की अवस्था केबल अढाई वर्ष की थी। वैधव्य के असीम कष्ट से दुःखी होते हुए भी माता ने लाड़-प्यार से उनका पालन पोषण किया । निर्धनता समस्त कष्टों की जननी होती है। अपनी विपन्नता की पीड़ा का उन्होंने सजीव चित्रण किया है । वे लिखते हैं कि उनका जीवन अभावमय रहा
मारे समाजन्मा हमारे चाथ बधितः ।
प्रभावे लब्धविद्योऽहं स्वकर्तव्ये रतोऽभवम् ।। शास्त्रीजी ने प्रभाय से सतत संघर्ष किया और अपने मार्ग की स्वयं प्रशस्त किया । उन्होंने अपनी व्यथा को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है
रष्टा मयानेकविधा धनाढ्याः, गणोऽपि तेषामधिकारिणाञ्च । परं न विद्वज्जनगण्य गुण्य, गुणानुरागी हृदयाऽत्र दृष्टः ।।
इसी तथ्य को साधारणीकृत करते हुए ऊपर से सहानुभूति प्रदशित करनेवाले किन्तु मन से कठोर धनिकों को बदरीफल के समान बताकर उन्होंने अपनी पीड़ा की पराकाष्ठा को मुखरित किया है -
येऽपि केऽपि मया इष्टा आठ्या बदरिकानिभाः ।
नारिकेससमानव सौभाग्यारक्वापि वीक्षिताः ।। परन्तु शास्त्रीजी की लगन और माता की ममतामयी प्ररणा ने उन्हें, समग्र झंझावतों को हटाकर, आगे बढ़ने को प्रेरित किया। माता के स्नेहिल उपकार को कविवर जिन शब्दों में व्यक्त करते हैं वह उनकी अनन्य श्रद्धा एवं भक्ति को अविकल रूप में प्रकट करता है । माता ने उनका जो उपकार किया है उसके अंश को भी वे चुका नहीं सकते । जीवन भर उस ऋण से मुक्त होना सर्वथा असम्भव है
मातस्त्वया मम कृतोऽस्ति महोपकारो, यावास्तवंशमपि पूरयितु न शक्तः ।
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एतन्नवीन कृति वृद्धियुतं विधाय,
प्रत्यर्पयामि महिते ! तदुरीकुरुष्व ।। "त्वदीयं वस्तु तुभ्यमेव समर्पये" के अनुसार इस कृति को कवि ने श्रद्धावनत होकर अपनी ममतामयी माता के चरणों में रख दिया है । इसके आगे भी कवि यह वामना करता है कि अग्रिम जन्म-जन्मान्तरों में भी तुम्ही मेरी माता हो श्रीर में हो तुम्हारा पुत्र होऊ। पुन की यह भावना अपनी माता के प्रति अपार श्रद्धा और अलौकिक प्रेम की परिचायिका है।
शास्त्रीजी अपनी पत्नी को प्रेरणाप्रदायिनी मानते हैं । वे कहते हैं कि साहित्य-सृष्टि की प्रक्रिया में पत्नी का योग एवं सहयोग नितान्त अपेक्षित है
साहित्यनिर्माण विधौ च पुसो योमेन पल्या भवितव्यमेव । विशोभते चन्द्रिकर्यच युक्तो विधो: प्रकाशोऽप्यनुभूत एपः ।।
ऐसी पत्नी भाग्य से ही प्राप्त होती है । उनके परिवार में चार पुत्रियों हैं जिनका उल्लेख उन्होंने अपनी इस कृति में किया है । अपना सहमिणी मनवादेवी का नामोल्लेख भी स्तबकों के अन्त में मनवावरेण शब्द में किया है। ___काव्य में कवि को अपने गुरु के प्रति अगाध भक्ति प्रकट होतो है । अपने गुरु श्री अम्बादास शास्त्रो के विषय में उनके उद्गार स्पृहणीय हैं । कवि कहता है कि गुरुवार को ज्ञानमयी महोदयवती एवं सद्भावा से आतप्रोत मूति को देखकर सरस्वती ने उन्हें अपना पुत्र माना और इसी कारण उनमे षड्दर्शनों का रहस्य एवं ज्ञान समाहित कर दिया
यस्य ज्ञानमयीं महादयमयीं षड्दर्शनोहाधिकाम्, सद्भावेः समलकृता सुत्रपथप्रस्थापिका निर्मलाम् । मूर्ति वीक्ष्य सरस्वतो भगवती यं दारकत्वेन वे, स्वीच भक्तात्स मेसमगुणो विद्यागुरुः श्रेयसे 1
ग्रन्थ के अन्त में भावविभोर होकर कवि अपने विद्यामुरु के चरणों में नत-मस्तक हो जाता है-- विद्यागुरो ते गुणराजिरम्यां कोर्तेः कथा वक्तुमशक्तचित्तः । सहस्रजिह्वोऽपि च मे कथा का, स्वल्पावबोधोऽस्म्यहमेजिह्वः ।।
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गुरु की महिमा का वर्णन सहस्रजिह्न भी नहीं कर सकता, फिर कवि का तो सामर्थ्य ही कितना ?
कविवरेण्य शास्त्रीजी ने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। चाँदह सर्पों में उपनिबद्ध "लोकाशाह" नामक संस्कृत महाकाव्य उनकी प्रथम रचना है । पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध रूप – दो भागों में विभक्त 'वचनदूतम्' नामक काव्य ध्यानमग्न नेमिनाथ के समीप उपस्थित हुई राजुल की मनोवेदना का सुरुचिपूर्ण अंकन है। उत्तरार्ध में राजकुल के हताश होकर गिरि से लौट आने का समाचार सुनकर उसके माता-पिता और सखियों के द्वारा प्रकट की गयी श्रन्तर्द्वन्द्र से श्रोतप्रोत उनकी मानसिक व्यथा का अनुपम चित्रण हुआ है । इस काव्य की एक विशिष्टता यह रही है कि पूर्वाधं में मेघदूत के प्रायः समस्त श्लोकों के अन्तिम पादों की एवं उत्तरार्ध में उत्तरमेघ में आये कतिपय श्लोकों के अन्त्य पादों की पूर्ति की गयी है ।
आपकी अन्य रचनाओं में प्राचार्य समन्तभद्र कृत प्राप्त-मीमांसा" नामक ग्रन्थ की विस्तृत टीका है, जो १०५ क्षुल्लक श्री शीतलसागरजी द्वारा सम्पादित होकर शान्तिवीर दिगम्बर जैन संस्थान, श्री महावीरजी द्वारा प्रकाशित है।
आपके द्वारा कतिपय अनूदित ग्रन्थों में “युक्त्यनुशासन" का हिन्दी अनुवाद भी है, जो दो भागों में प्रकाशित हो चुका है। दिगम्बर भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति द्वारा रचित "चतुर्विंशतिसन्धान काव्य" के तेरह अर्थों का अनुवाद भी आपने किया है। आपका एक अन्य ग्रन्थ "जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन" भी है। ये दोनों ही प्राप्य नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ "वर्धमान चम्पू ( सानुवाद ) " आपकी अन्तिम रचना है जिसका प्रणयन 78 वर्ष की आयु में सम्पन्न हुआ ।
वर्धमान चम्पू पाठ स्तबकों में विभक्त है जिसमें तीर्थंकर महावीर के जन्म से लेकर कैवल्य प्राप्ति तथा अन्तिम स्तबक में समवसरण का हृदयस्पर्शी चित्रण हुआ है ।
तीर्थंकर की जन्मभूमि का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि भरत क्षेत्र में भूमण्डल का अलंकारस्वरूप एक प्रार्थ खण्ड है जहाँ की भूमि समय-समय पर तीर्थंकरों के जन्म से पवित्र होती रही है
तत्रास्ति भूमण्डलमण्डनं वै, खण्डं तदार्याभिधमुत्तमाङ्गम् ।
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अंगेष्विवान न्दित सर्वलोक,
तीर्थकरोत्पत्तिपबित्रभूमिः ॥ १.३३ मुनिजनों के बिहार-स्थलों से परिपूत वैशाली नगरी में नागरिकों की सदाशयता, गुणग्राहिता एवं व्यवहार की मधुरता देखते ही बनती है
न तद्गृहं यत्र न सन्ति वृद्धाः, बद्धा न ते ये च न सन्त्युदाराः । उदारता सांपिं विशालताढ्या:, विशालता सापि दयानुबन्धा ।। १.३६
आगे कवि गृहस्थों को समृद्धता एवं सम्पन्नता, किलकारी भरते शिशुओं से भरे उत्सङ्गोंवाली रमणियों की भव्यता का रम्य चित्रण करता है । वे नेत्रों के लिए प्राकर्षक एवं आनन्ददायक हैं
गृहे गृहे तत्र बसन्त्युदाराः, दाराषच ते सन्तिं च दारकाकाः । ते दारकाश्चापि चं कण्ठहारा:,
हाराश्च ते सन्ति च नेत्रहाराः । १.३८ गर्भस्थित तीर्थकर महावीर के प्रभाव से माता त्रिशला के लावण्यमय रूप में जो पावनता थी, जो महनीयता थी- उसका कवि ने मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। पारदकालीन मेघ के समान उसकी प्रभापरिधि के प्रागे राजहंसी भी तिरस्कृत हो जाती है अपने राज-मन्दिर में वह पूर्ण चन्द्र-मण्डल-बाली पूर्णिमा के समान देदीप्यमान हो रही है--
सा शारदीयाम्ब रतुल्यकान्तिः, वपुः प्रभान्यक्कृत राजहंसी । चकास राकेव च पूर्ण चंद्रा,
स्वमन्दिरे लक्तकशोभिपादा ।। २.३३ तीर्थंकर महावीर के जन्म ग्रहण करने पर उनके जन्म के प्रताप से समस्तं जगत' मुख का अनुभव करने लगा। दिशाएँ व आकाश निर्मल थे । शीतल, मन्द एवं सुगन्धित वायु बह रही थी। वायु वेग से नृत्य करती हुई सो लताएं पूरप-वी कर ही श्रीं । संसार में जन-मानस से समस्त विरोध शान्त हो गया था।
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धेनुस्तनेभ्यः पयसां प्रवाहो, विनिर्गतस्तज्जनि हर्षभावात् । शशाम तस्मिन् समये विरोधो,
विरोधिनां गोप्तरि जायमाने ॥ ३.११ संसार की असारता एवं सम्बन्धों की नश्वरता का प्रतिपादन करते हए कविवर शास्त्रीजी ने तीर्थकर वर्धमान के मुख से समस्त सम्बन्धों की असारता का दिग्दर्शन कराया है। वे कहते हैं कि संसार में न कोई किसी की माता है और न कोई किसी का पिता । यथार्थ दृष्टि से विचार किया जाय तो यह आत्मा स्वयं अकेला है--
न कोऽपि कस्यास्ति सुतो न माता, भ्राता पिता मोहनृपस्य लीला । सम्बन्धबन्धा निखिला इमेऽत्र,
भूतार्थरष्ट्या स्वयमेक एव ।। ५.३३ सप्तम स्तवक में वर्धमान महावीर द्वारा कैबल्य प्राप्ति का सुन्दर वर्णन किया गया है । जैसे-जैसे तपस्या प्रकर्षवती होती है वैसे-वैसे संचित कम विक होते जाते हैं और कैनन की प्राप्ति हो जाती है
यथा समिमिन्धनं प्रदह्यतेऽग्निना स्वयम्, तथैव कर्म संचितं प्रदह्यते तपस्यया । मुमुक्षुभिः प्रकर्षतः शुभाशयेन सर्वदा,
यथा यथा प्रसेव्यते प्रदह्यतेजिता बिधिः ।। ७.१ जिस प्रकार मलविहीन पदार्थ में विशुद्धता अथबा निर्मलता आ जातो है उसी प्रकार कर्मविहीन आत्मा में भी विशुद्धता, निर्मलता एवं विशदता आ जाती है।
कैवल्य प्राप्ति के अनन्तर भगवान् वर्धमान महावीर के प्रभाव एवं प्रताप का चित्र प्रस्तुत करते हए कविवर शास्त्रीजी ने उनकी स्तुति करते हए अपनी भावांजलि को समर्पित किया है। कवि की यह मान्यता है कि भगवान महावीर के प्रभाव से अपने जन्मजात वर भाव का परित्याग कर एक ही प्रकोष्ठ में सिंह और गाय, बिल्लो और चूहा. कुत्ता और हरिण शान्तिपूर्वक बैठे हुए हैं, उनमें परस्पर अपरिमित प्रीति है
स्वामस्तेऽस्ति प्रबलमहिमा ह्यन्यथा सिगात्री, माजीराजू शुनकहरिणाबेक कोठ कथं वा ।
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सन्तिष्ठेते प्रकृतिजनितं वैरभावं विहाय,
प्रत्यासत्ति यदि न भवतस्तस्य तच्छक्तिहेतुः ।। ८.३६ यदि उनके मन का शाश्वतिक विरोध शान्त न हो गया होता और उनमें परस्पर प्रेमभाव जाग्रत न हो मया होता तो वे सब पापस में प्रोतिपूर्वक कसे बैठते ?
कवि ने भागे श्री महावीर के धर्मोपदेश, धर्मप्रचार एवं तज्जन्य जनमानस के मोहान्धकार के नाश का सुरुचिपूर्ण चित्रण किया है।
भारतीय धर्म में, विशेषतः जनधम में, अहिंसा पर विशेष बल दिया गया है ! कवि की मान्यता है
प्राणाः प्रियाः स्वस्य यथा भवन्ति, भवन्ति तेऽन्यस्य तथैव जन्तोः । इत्थं परिज्ञाय न हिसनीयाः,
प्राणाः परेषां हितकांक्षिणा ना ।। ८.४५ जैनधर्मावलम्बी संस्कृत कविजनों ने अपनी काव्य-रचना द्वारा संस्कृत साहित्य के बहुमुखी विकास में अपूर्व योगदान दिया है । वैसे तो जैन ग्रन्थों की भाषा प्राकृत है तथापि जैनधर्म को तर्क की ठोस भित्ति पर प्रतिष्ठित करने के लिए तथा अध्यात्म-वेत्ता मनीषियों के लिए भी ग्राह्य तथा स्पृहणीय बनाने के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग अनिवार्य माना गया। काव्य के माध्यम से हृदय को उल्लसिल करने की नथा तर्क के माध्यम से मस्तिष्क को परिपुष्ट बनाने की अावश्यकता का अनुभव कर जैन साहित्यकारों ने संस्कृत भाषा का आश्रय ग्रहण किया।
वर्धमानचम्पु प्रांजल एवं सुपरिष्कृत काभ्यशैली में विरचित वर्तमान युग का एक सुन्दर चम्पु-काव्य है । संस्कृत को मृत भाषा के नाम से बोधित करनेवाले विद्वन्मन्य व्यक्तियों के लिए यह एक चुनौती है। संस्कृत भाषा आज भी चिर-नूतन चिर-नवीन भाषा है, जिसमें अपूर्व काव्य-रचना, आज के युग में भी प्रभूत मात्रा में होती रही है। प्रस्तुत चम्पू-काव्य में महावीर स्वामी के जीवन-चरित के विकास की अपर्व छटा दृष्टिगोचर होती है । काव्य प्रसाद गुण से प्राकण्ठ पूरित है। अलंकारों का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है । मार्मिक स्थलों पर उपयुक्त रस को अभिव्यक्ति सहज रूप से प्रस्फुटित हुई है। वैशाली की समृद्धि का वर्णन करते हुए कवि ने वहाँ के राज-प्रासादों के बैभव, उनकी विशालता, वहां रहनेवाली नारियों के अनुपम अंग लावण्य-ग्रादि का मनोरम चित्रण किया है।
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भाषा प्रवाहमयी है । कबि का मुख्य लक्ष्य प्राचीन कथों को सरस, सहज एवं माहित्यिक भाषा में वर्णन करना है, जिसकी इस काव्य में पर्याप्त पुति हई है। लक-प्रबण एवं धर्म-ग्रन्थ होने पर भी प्रकृत काव्य में साहित्यिक सौन्दर्य श्री प्रचुरता है । कविवर वी प्रकृत रचना उनकी चरमावस्था की चरम परिणति है । समाज में यह धारणां दृढमूल होती है कि बाधक्य काल में कविगण मतिभ्रम से ग्रस्त हो जाते हैं किन्तु कवि की बुद्धि-विलक्षणता एवं विचक्षणती उसका सुखंद अपवाद है । इस सन्दर्भ में कविवर के विचार द्रष्टव्य हैं
मतिम्रमों जायत एवं पुंसां वार्धक्यकाले जनवाद एषः। मिथ्या यतोऽहं न तथा बभूव बभूव में प्रत्युत शेमुषोद्धा ।।
__ -परिशिष्ट १ कवि की शमुषी का तो परिवहणं ही हुअा और उन्होंने इस अमूल्य ग्रन्थ-रत्न का प्रणयन किया ।
कम्य की विनयशीलता उन्हें और भी उच्च पद पर प्रतिष्ठापित करती है : क व अपनी भावानुभूति को व्यक्त करते हुए स्पष्ट करता है कि यदि बाही काव्य-रचना में स्खलन हो गया हो तो विद्वज्जने से क्षेमी कर दें ..
अम्यं काव्यस्य निर्माणे उपयोगः सुरक्षितः । नथापि यदि जाता स्यात्वृटिः क्षम्या गृणाग्रहै: ।। ..
-परिशिष्ट २ आगे वा बिवर हाथ जोड़कर अपनी त्रुटियों के प्रति ध्यान न देने । इन्हें कधि को बुद्धि का दोष मान कर क्षमा करने की याचना
विवरेण्यै गुणिरागवभिः, बायकोलोद्भव काव्य मैतत् । विचिन्त्य गाब्दीह यदि त्रुटिः, स्यात् क्षम्येति सयोज्य करीबवामि ।।
–परिशिष्ट कालय के अन्त में कविवर शास्त्री जी ने अपने बाव्य के पठन-पाठन की शाश्वतिक मनीषा की कामना की है और कहा है कि जब तक जैनधर्म का प्रचार-प्रसार रहेगा, जव तक मन्दाकिनी का जल प्रवाहित होता
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रहेगा, जब तक सूर्य और चन्द्रमा क्षितितल को प्रकाशित करते रहेंगे तब तक विद्वत्सभा में प्रकृत वर्धमान चम्पू-काव्य को सहृदय रसिकगण निरन्तर पढ़ते-पढ़ाते रहेंगे
यावद्राजति शासनं जिनपर्यावच्च गंगाजलम्, यावच्चन्द्रदिवाकरी वितनुतः स्वीयां गति चाम्बरे । तावद्राजतु काव्यमत्र भुवि मे विद्वत्सभायां जनेः
हृद्यं सद्धृदयैरहनि शमिदं पापठ्यमानं मुदा ।। कविवरेण्य शास्त्रीजी आज नहीं हैं परन्तु उनकी आत्मा काव्य के कण-कण में व्याप्त है । काव्य की रामणीयकता नि:सन्दिग्ध है।
प्राशा है सुज्ञ बिद्वज्जन प्रस्तुत काव्य का रसास्वादन करेंगे ।
जयपुर २७ जुलाई, १९८७
गंगाधर भट्ट
निदेशक रायबहादुर चम्पालाल प्राच्यशोध संस्थान,
जयपुर
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प्रकाशकीय
प्रस्तुत काव्य 'बर्धमान-चम्पू" के रचयिता स्वर्गीय पं० मूलचन्दजी संस्कृत के उच्चकोटि के विद्वान् थे | उन्होंने तीर्थंकर वर्धमान के लोकोत्तर चरित्र एवं उन द्वारा अनुभुत तथा उपदिष्ट मार्ग का साहित्य को एक विशेष विधा-चम्पुशैली में बड़े ही मनोरम, हृदयग्राही रीति में वर्णन किया है । भाषा अलंकारपूर्ण होते हुए भी रसमयी है, प्रांजल है। संस्कृत भाषा से अनभिः नाटक भीमद इल सक एतदर्थ विद्वान् कृतिकार ने उसका हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत कर रचना का अधिक लोकोपयोगी बना दिया है।
वर्धमान महावीर को देखने समझने के लिए विशिष्ट प्रांख चाहिये। महाबीर तो संप्रदायातीत थे। उन्होंने जो अनुभव किया वे उसी में जीए । अनुभव को शब्दों की चहारदीवारी में कैद करना कठिन है । शब्द इन्द्रिय जनित हैं और महावीर का अनुभव अतीन्द्रिय ।
महावीर दीये की अविनम्वर लौ हैं। ज्योति हैं । ज्योति को पकड़ा नहीं जा सकता, उससे मार्ग की ठोकर से बचा जा सकता है। हमें दीये को पकड़ने की प्रादत है। हमारा कल्याण दीये को न पकड़ने में निहित है । हमारा सारा ध्यान दीये की बनावट में लग रहा है, यह किस धातु से निमित है, यह स्वर्ण का है, रजत का है अथवा मिट्टी का । इसकी लम्बाईचोड़ाई कितनी है । इसके प्राकार-प्रकार को क्या संज्ञा दी जावे। पर इस दीये की ज्योति में हमें क्या दीनता है इस पर हम केन्द्रित नहीं हो पाते।
आवश्यकता इस बात की है कि उस दीये के प्रकाश में हम सही मार्ग ढूढं । उस मार्ग को पकड़ पाव तो इहलौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही जन्मों का संवार सकं/सुधार सके ।
यदि हम साहस संकल्प जूटा पायं और अग्रसर हों उस मार्ग पर तो हम छुटकारा मिल सकता है।
और यह प्रकाश किसी की बपौती नहीं है। वह हर अांखवाले को सन्मार्ग की ओर इंगित करती है । इसमें किसी जाति वर्ग की बंदिश नहीं है । बहाँ न कोई अपना है न पराया, सबके कल्याण के लिये सुलभ है। शर्त है आँख खालकर चलने की। स्वामी समंतभद्र ने भी पाज से डेढ़ हजार वर्ष पूर्व वर्धमान की बन्दना करते हुए 'सर्योदयतीर्थमिदं तवैव' का उद्घोष किया है । अपभ्रंश के महाकवि वीर ने भी किउ जेण तित्थ जगे
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बड्ढमाणु', अर्थात् लौकिक एवं पारलौकिक समृद्धि के प्रदायक तीर्थ का प्रवर्तक कहकर वर्धमान की स्तुति की है।
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वर्धमान महावीर के लिए Globat History of Philosophy के सुप्रसिद्ध दार्शनिक लेखक john C Poll की निम्नलिखित पंक्तियां पठनीय हैं "Mahavira stands like a spiritual giant by comparison with most of the old Testament Prophets and his example as well his way of Victory over everything that finds us to the finite may yet be fruitful in all the world. When it cane 10 the problems of conduct and knowledge, he did got stop with a Socratic Ignorance', He found an answer to Socratic questioning and left a light that will never be extinguished" अर्थात् अधिकांश ज्ञात प्राचीन आध्यात्मिक सन्तों में महावीर का स्थान प्राध्यात्मिक महापुरुष के रूप में शीर्ष पर है और उनका उदाहरण एवं हर प्रकार के भांतिक बन्धन पर विजय प्राप्त करने हेतु उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग आज भी संसार में फलप्रद हो सकते हैं | चारित्र एवं ज्ञान की समस्याओं पर जब उन्होंने चिन्तन प्रारम्भ किया तो वे सुकरात के 'अज्ञेयवाद' पर रुके नहीं । उन्होंने सुकरात के प्रश्नों का समाधान प्राप्त कर लिया और वे एक ऐसी ज्योति छोड़ गये जो कभी बुझेगी नहीं ।
उन्हीं वर्धमान के चरित्र के प्रस्तुतीकरण से रचनाकार धन्य हो उठा है ।
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सुविज्ञ पाठकगण इन रचना के पठन से साहित्यिक, ललित काव्य का रसास्वादन करें और वर्धमान का यह सार्वकालिक सर्वमांगलिक ज्योति हमें सन्मार्ग दिखा सके, हम उस पथ के राहो बनकर सांसारिक त्रासदी से त्राण पा सकें इस पवित्र भावना के साथ पंडितजी की इस कृति का प्रकाशित कर रहा है जैन विद्या संस्थान |
इसके प्रकाशन में संलग्न हमारे सभी सहयोगी धन्यवाद के पात्र हैं । डॉ. गंगाधर भट्ट, निदेशक, रायबहादुर चम्पालाल प्राच्य शोध संस्थान, जयपुर के प्रति विशेष रूप से आभार प्रगट करते हैं जिन्होंने प्रस्तावना लिखकर हमें अनुगृहीत किया है। पुस्तक के मुद्रण के लिए अजन्ता प्रिण्टर्स, जयपुर भी धन्यवादाई है ।
जयपुर
श्रेयांसनाथ निर्वाण दिवस
श्रावण पूर्णिमा, वी. नि २५१३ ६-८-८७
ज्ञानचन्द्र विन्दुका संयोजक
जनविद्या संस्थान समिति
श्रीमहावीरजी
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आभार
प्रस्तुत वर्धमान-चम्पू काव्य में पं० मुलचन्द्र शास्त्री की परिपक्व प्रज्ञा एवं प्रौढ प्रतिभा का परिचय प्राप्त होता है । उन्होंने अपने काव्य के नायक भगवान् महावीर के जीवन-चरित्र को इतनी सजीवता के साथ चित्रित किया है कि उनकी मंजुल मुति प्रत्यक्ष के समान नेत्रपटल पर अंकित हो जाती है।
यह चम्पु-बाल म नः माग ग मालावित है। इस काव्य में मानब-हृदय व रागात्मिका बत्ति के प्रवाधक भाव पद्य के माध्यम से और बाह्य जगत के चित्रण गद्य के द्वारा प्रकट किये गये हैं। यह मिश्रण एक नूतन चमत्कार का, अद्भुत कमनायता का एवं अतिशय रामणीयकता का सृजन करता है।
पं० मूलचन्द्रजी की यह हादिक इच्छा था कि इस काव्य का प्रकाशन उनके जीवन काल में ही हो जाय, पर उनके निरन्तर गिरते हए स्वास्थ्य के कारण उनकी यह इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी । उनको मृत्यु के बाद भो इस काव्य के प्रकाशन से जैम विद्या सस्थान का बड़ा सन्तोष है । यह उनका जीवन्त स्मृसिम्रन्थ है ।
इस काव्य के प्रकागन में पं० भवरलाल पाल्याका, जनदर्शनाचार्य और सुश्री प्रोति जैन का प्रमुख योग है । सस्कृत पाठ का यथावत् प्रस तक पहुचाना, हिन्दी अनुवाद का परिमाजित करना यार प्रूफ को पुरी सावधानी से तीन तीन बार पढ़ना साधारण कार्य नहीं है । इसे इन दाना ने किया है । पुस्तक का यथेष्ट रूप में मुद्रित करमा अजन्ता प्रस के अधिकारियों और मुद्रकों का काम रहा है । ये सभी धन्यवादाह हैं।
इस पुस्तक के प्रकाशन से सम्बन्धित समस्त कार्य के पीछ डॉ० गोपीचन्द्र पाटनी और श्री ज्ञानचन्द्र विन्दुका की। जागरूक प्रेरणा है ।
सब ने अपना अपना काम निष्ठा और सजगता से किया है । संस्थान इनके प्रति ग्राभारी है। हम आशा है कि आधुनिक सस्कृत साहित्य की यह नवीनतम कृति विद्वानों, चिन्तका और मनीषियों द्वारा उचित समादर को प्राप्त करेंगी।
(प्रो०) प्रवीणचन्द्र जैन
निदेशक
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रचनाकार का जीवन परिचय
प्रस्तुत कृति के रचनाकार पं० मूलचन्दजी का जन्म अगहन वदी अष्टमी सं० १९६० के शुभ दिन मध्यप्रदेश के सागर मण्डलान्तर्गत मालथीन नामक ग्राम में हना था । आपके पिता का नाम श्री सटोले लाल एवं माता का नाम श्रीमती मलखोदेवी था। आप परवार जाति के भूषण
नाप अपने पिता की एकमात्र सन्तान थे। दुर्भाग्य से हाई वर्ष की अल्पायु में ही आपके पिता का स्वर्गवास हो गया। इनका पालन-पोषण इनके पिता के भाई, भावज एवं माता के द्वारा हुना। बचपन में ये बड़े नटखट थे। जब ये सात वर्ष के थे तब एक दिन 'अण्डा द्धाबरी' प्रामलकी कीड़ा) नामक खेल खेलते हुए इनका बांया हाथ टूट गया जो जीवनपर्यन्त ठीक नहीं हग्रा ।
इनके परिवार की एवं इनकी स्वयं की विपन्नावस्था पर दृष्टिपात कर पं० बजलालजी जो किसी कार्य में मालश्रीन पाये थे, इन्हें अपने साथ चौरासी मथुरा ले गये पीर जहां आश्रम में अध्ययनार्थ इनकी व्यवस्था कर दी। कई कारणों से वहां इनका अध्ययन भले प्रकार चल नहीं सका । चौरासी में ये तीन वर्ष रहे एवं वहां धर्म प्रवेशिका की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात इनको १५ वर्ष की प्राय में अागे शिक्षा प्राप्त करने हेतु बाराणसी भेज दिया गया। वहां स्व० गणेशप्रसादजी वर्णी द्वारा संस्थापित स्याद्वान महाविद्यालय में प्रापने छह वर्षों तक प्रसिद्ध विद्वान् श्री अम्बादासजी से न्याय, व्याकरण, साहित्य एवं दर्शन विषयों का तलस्पर्शी अध्ययन किया तथा धर्म और साहित्य में शास्त्री तथा न्यायतीर्थ परीक्षाएं उत्तीर्ण की।
वाराणसी में अपना अध्ययन समाप्त कर ये अहमदाबाद चले गये । बहां प्रज्ञाचक्ष पं० मुखलालजी ने इनकी योग्यता का प्राकलन कर इनको गांधी विद्यापीठाधित पुरातत्त्व विभाग में नियुक्त कर लिया। वहां उस समय सम्मतितर्क नामक ग्रंथ का प्रकाशन कार्य चल रहा था जिसके पाठान्तर संकलन का कर्तव्य इन्होंने सूचाम रूप से किया। यहां कार्य करते समय ही इनका सम्पर्क प्रसिद्ध पूंजीपति श्री पन्नालाल उमाभाई एवं कई विद्वान् श्वेताम्बर साधूत्रों से हुआ। ये १६ वर्ग तक श्वेताम्बर साधुनों एवं समाज के सम्पर्क में रहे । यहां रहते हुए इन्होंने कई श्वेताम्बर साधुनों को शिक्षा प्रदान की तथा कई महत्त्वपूर्ण श्वेताम्बर प्रागमों और ग्रंथों की टीका, अनुवाद यादि किये । कूछ स्वतंत्र ग्रंथों की भी रचना की ।
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वहां से मुक्त होकर इन्होंने दिगम्बर जैन क्षेत्र पपौरा के वीर विद्यालय में पांच वर्ष तक अध्यापन कार्य किया जहां से दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी स्थित मुमुक्ष महिलाश्रम की तत्कालीन संचालिका स्व० ब्रह्मचारिणी कृष्णाबाई इनको श्रीमहाबीरजी ले आई। तत्पश्चात १६ वर्ष तक इन्होंने ब्रह्मचारिणी कमलाबाई के आदर्श महिला विद्यालय में धर्माध्यापक के रूप में कार्य किया । इनकी योग्यता, विद्वत्ता, सादगी आदि गुणों का समादर करते हुए दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीर की प्रबन्धकारिणी कमेटी ने प्रावास आदि की सुविधाएं प्रदान करते हए क्षेत्र पर आपकी नियुक्ति की जहां अाप जीवन के अन्त तक कार्यरत रहे । यहां रहते हुए अापने क्षेत्र के तत्कालीन मंत्री स्व० श्री रामचन्द्र जी खिन्दूका की प्रेरणा से 'युक्त्यनुशासन' का हिन्दी अनुवाद किया जो दो भागों में प्रकाशित हक्षा है। ग्राचार्य समन्तभद्र की 'आप्लमीमांसा' नामक ग्रंथ की विस्तृत टीका भी यापने लिखी जो १०५क्षल्लक शीतलसागरजो द्वारा सम्पादि: बार शालिवो ए दिशा पर जैन संस्थान शांतितीर नगर श्रीमहाबीर जी द्वारा वी.नि. सावत २४६६ में मुद्रित कराया जा सका है। आपको एक अन्य स्वतंत्र रचना 'वचनदूतम्' है जो जैन विद्या संस्थान श्रीमहावीरजी द्वारा उन द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद सहित दो भागों में प्रकाशित किया गया है। जब तक आप जीवित रहे अनवरत साहित्य सेवा में लीन रहे। 'बर्धमानचम्पु सानवाद जो पाठकों के हाथों में है इन्होंने ७८ वर्ष की आयु में लिखा था, यह इस बात का प्रमाण है।
अपनी धार्मिक, साहित्यिक तथा सामाजिक सेवाओं के कारण इन्दौर में एलाचार्य मुनिश्री १०८ श्री विद्यानन्दजी तथा देहली में मुनिश्री १०८ श्री ग्रानन्दसागरजी के सानिध्य में समाज द्वारा सम्मानित हुए । "प्राप्तमीमांसा' को टीका पर इनको न्याय वानस्पति की पदबी से अलंकृत किया गया। दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी को प्रबन्धकारिणी कमेटी ने भी ग्रापकी सेवाओं के लिए आको यथोचित सम्मान एवं पुरस्कार प्रदान किया । राजस्थान के राज्यपाल महोदय ने भी संस्कृत दिवस पर प्रायोजित एक समारोह में सस्तात सेवाग्रा के लिए आपको प्रशस्तिपत्र एवं पुरस्कार प्रदान किये ।
दिनांक ५.८.८६ का ८३ वर्ष की प्रायु में हृदय की गति रुक जाने से अापका स्वर्गवास हो गया ।
अाप अपने पीछे अपनी पत्नी, चार पुत्र तथा चार पुत्रियां छोड़ गये हैं।
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अनुक्रमणिका
पृष्ठ सं.
१-५१
५२-७२
र्श
व
स्तबक सं. १. प्रथमः स्तबकः
उत्था निका बीरजन्मकाले भारतदशा जम्बूद्वीप वर्णनम् भरतक्षेत्र आर्यखण्डश्च
वैशालीवैभवम् २. वितीयः स्तबकः
वीरगर्भावतरण मातुः स्प स्वप्नफलवर्णनम् गर्भकल्याणकवर्णनम् तृतीयः स्तबका जन्मकल्याणक वर्णनम्
बाल्यावस्था ४. चतुर्थः स्तबकः
विवाहोपक्रमः ५. पंचमः स्तनकः
संसाराद्विरक्तिः षष्ठः स्तबकः तपस्या चन्दनोद्धारः उपसर्गसहनम्
७३
E१-१०६
१०७-१३१
१३२-१५४
१४१
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स्तबक सं.
पृष्ठ सं.
७. सप्तमः स्तबकः
कंबल्य-प्राप्तिः
१६६-२११
१६८
२१२-२२२
अष्टमः स्तबकः समवसरणम् वीरवाणी-प्रभाव: परिनिर्वाणम् प्रानुषंगिक-कथनम् तीर्थको महावीरो बुद्धश्च केवलिनः श्रुत केवलिनः दशपूर्वधारिण: एकादशांगधारिणः प्रभावकाचार्याश्च विद्यागुरुस्तुतिः ग्रन्थनिर्माण हेतुः वार्द्धक्यमहिमा ग्रन्थकतः प्रशस्ति:
८.xorru
- Mr.
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वर्धमानचम्पः
प्रथमः स्तबकः
श्रियं क्रियाद्यस्य नतेन्द्रसेन्द्र
मौलिप्रभारंजितपापीठम् । बभौ सभाकामुरा जिराब
चच्युतं नमःखण्डमिवानजो वः ॥१॥ भोगक्षितिर्यपगता च यदा समस्ता
कर्मक्षितिश्च समजायत बोक्ष्य तान्तान् । तत्र स्थितानसुमतः खलु जोविकाथ
कृष्यादिकर्म कृपया समुपादिशद्यः ॥ २ ॥
नमस्कार करते हुए इन्द्र वीर देवों के मुकुटों की कान्ति से रंजित हुआ जिनका सिंहासन नक्षत्रमाला से शोभायमान गिरे हुए आकाशखंड के जैसा समवसरण में शोभित हुना, ऐसे वे आदिनाथ जिनेन्द्र पाप सबका कल्याण करें ।। १ ।।
जब भरतक्षेत्र के आर्यखण्ट से भोगभूमि की रचना समाप्त हो चुकी एवं कर्मभूमि की रचना प्रारम्भ हुई, तब प्रभु आदिनाथ ने प्राजीविका के साधनों के प्रभाव से संत्रस्त हुए जीवों को असि, मसि, कृषि, शिल्प, सेवा एवं वाणिज्य ऐसे प्राजीविका के साधनभूत छह कर्मों का उपदेश दिया ।। २ ।।
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वर्धमानवम्पूः
चन्द्रप्रभ नौमि यदीयकान्ति
विलोक्य चन्द्रोऽपि विलज्जितोऽभूत् । नो लज्जितश्चेत् किमसात्वेति
रात्रौ विदा मेति विचारयन्तु ॥ ३ ॥
नमामि शान्ति भवतापतप्तजनस्य तापापनुदे मुदे यः। प्रासारतुल्यामिव विष्यवाणों प्रवर्षयामास घनौधतुल्यः ॥ ४ ॥
यस्यान ध्योर्नखकान्तिरुज्ज्वलतया सत्पुष्पदामायते सेवार्थ समुपागतेन्द्रमणिभन्मोलिश्च फुल्लायते । श्रद्धाभक्तिभरावनम्रमविनां माला मिलिन्वायते सोऽयं वस्त्रिभुवः प्रभुविभुवरो वीरोऽवतादंहसः ॥५॥
मैं उन चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र को नमस्कार करता हैं जिनकी शारीरिक कमनीय कान्ति को देखकर चन्द्रमा लज्जित हो गया। यदि ऐसा न होता तो सोचिये-वह रात्रि में ही क्यों निकलता है, दिन में क्यों नहीं निकलता ? ।। ३ ।।
संसाररूपी पातप से अत्यन्त संतप्त हुए जीवों के उस संताप को दूर करने के लिए जिन प्रभु ने मेघ के रूप होकर दिव्यध्वनिरूप धनघोर जल की वर्षा की ऐसे उन शान्तिनाथ स्वामी को मैं नमस्कार करता हं ।। ४ ।।
जिनके दोनों चरणों की उज्ज्वलतम कान्ति सर्वोत्तम पुष्पों से ग्रथित हुई एक माला के जैसी प्रतीत होती है, सेवा के लिए उपस्थित हुए इन्द्रों के मणिरचित मुकुट इस माला के पुष्प के जैसे प्रतीत होते हैं, एवं श्रद्धा और भक्ति से भरे हुए भव्यजन ही इस माला पर गुंजार करते हुए भ्रमर के तुल्य प्रतीत होते हैं, ऐसे वे त्रिभुवनपति श्री बीरप्रभु आप सबकी पापों से रक्षा करें ।। ५ ।।
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वर्धमानवम्पूः यः कर्मभित् क्रोधकषायमुक्तः
स्वस्थोऽपि यः सर्वगतो, निरीहः। संश्चापि यो मोक्षपथस्य नेता
स अंशलेयो झवतान्मनो मे ॥ ६॥ तारुण्ये जयिना स्मरं विजयिन जित्वा प्रबुद्धात्मनः
वघ्र येन महौजसाऽतितरसा दृष्ट्वा जगदुःस्थितिम् । बीक्षाऽक्षाश्वबलप्रसारशमने
सुप्रग्रहप्रोपमा सः श्रीमास्त्रिशलात्मजो भवतु मे संसारतापापहः ॥ ७ ॥ स्याद्वादान्धौ सुविहितमहामज्जनात् या पवित्रा
हेयावेयप्रकटनपराऽऽविस्यतुल्योऽस्तदोषा । मिथ्यामागं नयपरशुना खंडयन्ती विपक्षम्, ___स्वस्यां पूर्णा जयतु सततं शारदा दारिकाऽस्य ॥ ८ ॥
जिन्होंने क्रोध कषाय से विहीन होते हुए भी कर्मशत्रु का विनाश किया, ग्रामस्थ होते हुए भी जो व्यापक हुए एवं इच्छाविहीन होते हुए भी जो मोक्षमार्ग के प्रणेता हुए, ऐसे वे त्रिशला माता के सुपुत्र श्री महावीर मेरे ज्ञान की रक्षा करें ।। ६ ।।
जिन्होंने संसार को परास्त करनेवाले विजयी कामदेव को भर जवानी में जीता एवं जगत की दुर्दशा को देखकर जिन्होंने स्वयं प्रबुद्ध होकर बड़े उत्साहपूर्वक शीघ्र इन्द्रियरूपी घोड़ों के बल को रोक देने में उत्तम लगाम के जैसी दगम्बरी दीक्षा धारण की, ऐसे वे त्रिशला माता के इकलौते लाडले लाल श्री बर्द्धमान प्रभु मेरे संसार के संताप को दूर करने वाले हों ।। ७ ।।
__ वह श्री महावीर प्रभु की दिव्यध्वनिरूप दारिका- पुत्री जो स्याद्वादरूपी महासागर में स्नान करने से पवित्र-निर्दोष हो चुकी है, और सूर्य के जैसी होकर जो हेय और उपादेय के सच्चे स्वरूप को प्रकट करती है, तथा सुनय-रूप परशु के द्वारा जिसने अपने से विपरीत एकान्त मिथ्यामार्ग का निरसन किया है एवं जो अपने आप में परिपूर्ण है, सदा जयवन्त रहे ।। ८ ॥
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वर्धमानचम्मूः दुःखोस्पतिर्भवति नियमान्मोहनीयेन जन्तो
रासंध्यानं भवति च ततः कर्मबन्धश्च तस्मात् । एवं बोधप्रद इह न भवेवागमस्ते जिनेन्द्र !
कः संसारी निजहितरतः स्यात् कथं स्याच्च मुक्तः ॥६॥
स्वारमानवप्रकाशानिजहृदि समतावल्लरीविजुष्टाः
शिष्टाः शिष्टाभिराध्या विधृतशमदमागुणः सद्विशिष्टाः । हुष्टाश्चारित्रलब्ध्या विमलगुणगणान् निष्ठयाऽऽराधयन्तः सन्तः सन्तु प्रसन्ना मयि गुणगुरवः साधवः साधुवृत्ताः ॥१०॥
मोहनीय कर्म के उदय से मोहित हुया यह जीव नियम से दुःख का पात्र होता है, दुःखी होने से आर्त रौद्र ध्यान करता है, इससे नवीन कर्मों का बन्ध होता है, ऐसा, हे जिनेन्द्र ! आपका नागम कहता है । यदि ऐसा बोधदाता आपका आगम संसार में नहीं होता तो भला कौन संसारी जीव अपने हित साधन में लगता एवं कैसे वह कर्मबन्धन से मुक्त होता ? ।।३।।
जो साधुजन निज प्रात्मा के आनन्द के प्रकाश से अपने मन में समतारूपी बेल की वृद्धि को चाहना करते रहते हैं, सब प्रकार की अवस्थाओं में जो सन्तुष्ट बने रहते हैं, शिष्टजन जिनकी सेवा करते-करते नहीं अघाते, धारण किये हुए शमदमादि गुणों के कारण जो सत्पुरुषों में श्रेष्ठ माने जाते हैं, चारित्र की वृद्धि या उसकी प्राप्ति से जिन्हें हर्ष होता है एवं एकनिष्ठा से जो निर्मल गुणों की आराधना में दत्तचित्त रहते हैं ऐसे वे साधुजन जो अपने गुणों के विकास से महिमाशाली हैं और निर्दोष चारित्र की आराधना करने में तल्लीन हैं, मुझ पर सदा प्रसन्न रहें ।।१०।।
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वर्धमानचम्पूः
सम्यग्दशनशुबोधचरणं संधारयन्त्यावरास,
स्वस्थानोषितसद्गुणेश्च विविधराकर्षयन्त्यंगिनः । वैराग्योद्भवकारकहितवहनित्य वचोभिः धिताः, धन्यास्ते गुरयो दिगम्बरभृतः स्थुम भवार्हिराः ॥ ११ ॥
दुःसाध्यान्यपि यस्य वै सुघटितान्यत्रासतेऽक्षिभ्रमात्,
शानध्यानतपांसि यस्य' बयया सिसि लभन्ते पराम् । दुर्गम्याग्धिनगाटवीगतजनो येनव संरक्ष्यते, तस्मै सर्वविधायिने च जयिने देवाय नित्यं नमः ॥ १२ ॥
वे दिगम्बर मुद्रा के धारी गुरुदेव जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध ज्ञान एवं चारित्र को बड़ी सावधानी के साथ पाराधना करते रहते हैं, एवं अपने पद के अनुरूप विविध सद्गुणों के द्वारा मानव मात्र को श्रद्धा के स्थानभूत बने हुए हैं एवं संसार, शरीर तथा भोगों में आसक्त हुए जीवों को उनसे विरक्ति उत्पन्न कराने वाले सदुपदेशों द्वारा सम्बोधित करते रहते हैं मेरी संसाररूपी व्याधि को दूर करते रहें ।। ११ ।।
जिसको प्रांखों के इशारे मात्र से ही कठोर से कठोर भी दुःसाध्य कार्य क्षण मात्र में सुकर–सुसाध्य हो जाया करते हैं—प्रासान हो जाते हैं तथा जिसकी अनुकूलता के बल पर ही शान एवं ध्यान की सफल सिद्धि हो जाती है, ऐसे उस सर्वशक्तिमान् विजयी देव को जिसकी कृपा से-अनुकूलता से ही मनुष्य-प्राणी-दुर्गम्य समुद्र, पर्वत और भयंकर अरण्य-जंगल में पड़ जाने पर भी सुरक्षित बना रहता है, मैं नित्य नमस्कार करता हूं ॥ १२ ।।
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वर्धमानचम्पू. शक्तर्यस्य कथामपोह गवितु शक्तोऽभवन्नो कषिः,
ब्रह्मा, विष्णुमहेशशेषमुनयोऽप्यास्थाय मौनं स्थिताः । कान्येषां विदुषां कथाऽत्र महतामेतत्रिलोकीजनाः, .. यस्याप्रे तृणव विभान्ति मयि ते निःस्वेऽपि भूयात्कृपा ॥ १३ ॥ अम्बादिवासान्तपदोपगूढो विद्यागुरमें जयप्तादयालुः. अवे महाधीरजिनस्य वृत्तं मूर्योऽप्यहं यत्कृपया पवित्रम् ॥ १४ ।। क्वैतस्पवित्रं विपुलं अरित्रं क्षाल्पोधा मलिना मतिमें, तथापि सन्मत्यनुरागपुण्यात् पूता तदात्यातुम सौ प्रवृत्ता ॥ १५ ॥ प्रमोश्परिनं खलु पापहारि प्रगीयमानं सुकृसं वाति, अभ्यस्यमानं निजरूपबोधप्रदं च सत्यस्य हितकरं तत् ॥१६॥
.-..-...- ... -- -.--.-..--
जिसकी असाधारण शक्ति की प्रशस्ति ग्रथित करने में जब बृहस्पति जैसा बुद्धि एवं प्रतिभा का धनी अपने आपको अशक्त मानता है तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शेषनाग और ज्ञानी मुनिजन भी जिसको शक्ति का लोहा मानते हैं, तब विचारे अन्य साधारण विद्वानों की तो बात ही क्या है, ऐसा वह सर्वातिशायी देव-भाग्य जिसका तीनों लोकों के समस्त जीव पानी भरते हैं. जिसके समक्ष तृण के जैसे प्रतीत होते हैं, मुझ गरीब पर सदा दयालु बना रहे ।। १३ ॥
जिनकी अनुपम परमदया के प्रभाव से मैं अल्पज्ञ-मूर्ख भी इस पवित्र महावीर-चरित्र के चित्रण करने योग्य बना हं ऐसे वे मेरे परमदयालु विद्यागुरु श्री अम्बादास शास्त्री सदा जयवन्त रहें ॥ १४ ।।
कहां तो यह विशाल पवित्र चरित्र और कहां अल्पबोधवाली मेरी मलिन मति; फिर भी यह सन्मति प्रभु की भक्तिरूप अनुराग से जन्य पुण्य से पवित्र होकर उस विशाल पाबन चरित्र का वर्णन करने में प्रवृत्त हो रही ॥ १५ ॥
प्रभु के पापनाशक पवित्र चरित्र का वर्णन पुण्य की प्राप्ति का सबल कारण बनता है और जो इसका प्रयास करता है उसके लिए यह निज स्वरूप का बोधक होता है, अत: यह सब तरह से जीव के हित का ही साधक बन जाता है ।। १६ ।।
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वर्धमानचम्पू:
याणी भवेत्कस्यचिदेव भाग्यात,
साघोगुणोत्कीर्तनतः पवित्रा । मान्या च धन्या सुरसायंसेग्या
गुणाढ्यता पूज्यपदाप्तिहेतुः ॥ १७ ॥ कथं न शस्या गुणरागरम्या
वाणी कवीनां श्रवणाभिरम्या। श्यामा सुवर्णाभरणाश्रिय
सुसेव्यमाना च मनो मुवे स्यात् ॥ १८ ॥ यथांजनं क्षेत्रगतं तरुण्याः
विलासरत्याश्च यथांगहारः । धिनोति धियिष्यति काव्यमेत
प्रव्यं मदीयं च तथैव धीरान् ॥ १६ ॥
परम पुण्य के उदय से ही किसी-किसी कवि की वाणी साधुजनों के गुणों के वर्णन से पवित्र होती हुई मान्य और धन्य बनती हैं क्योंकि वह सुरस उपंत अर्थवाली होकर सुरसार्य सेव्य होती है-वाणी में पूज्यता का कारण उसका सद्गुणों से युक्त होना ही होता है ।। १७ ।।
गुणों के प्रति अनुराग रखने से सुहावनी एवं कानों को मानन्दप्रदान करनेवाली कविजनवाणी ललितपदावलीरूप सुवर्णाभरणों से विभूषित हुई श्यामा युवती के समान सेवित होने पर मन को प्रसन्न करने वाली होती है ॥ १८ ॥
जिस प्रकार तरुणी के नयनों में लगा अंजन एवं विलासवती नारी का अंगहार-अंगविक्षेप अच्छे-अच्छे धीरों को भी चंचलचित्तवाला बना देता है, उसी प्रकार मेरा यह नवीन काव्य भी रसिकजनों को चमत्कृत कर देगा ।। १६ ।।
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अहो
खलस्यापि महाप्रभायो, भियेव यस्यास्ति कविः सुवृत्तः । चकास्ति गोभिः सवितेव यस्य मोकला कविता कलंका ॥ २० ॥
वर्धमान चम्पूः
कविप्रकाशे खल एव हेतुयंतश्च तस्मिन् सति तत्प्रकर्षः । काचं विना नैव कदापि कुत्र मणेः प्रतिष्ठा भवतीति सम्यक् ॥ २१ ॥
दुरस्ति यस्मात् सुजनस्य दुष्टो, जनोऽथवा रगतो जनोऽस्मात् ।
इत्थं निरुक्त्या स गतः प्रसिद्धि, परोपतापी किल बुर्जनोऽयम् ॥ २२ ॥
देखो - दुर्जन का भी कितना बड़ा प्रभाव है कि जिसके भय से कवि पनी कविता में निर्दोष छन्दों की रचना करता है तथा सूर्य जिस प्रकार अपनी किरणों से चमकता है, उसी प्रकार उस कवि की कविता भी अकलङ्क होकर जगत् में चमकती है और सबके मन को मुग्ध कर देती हैं । ॥ २० ॥
कविजन जो प्रसिद्धि पाते हैं उसमें कारण दुर्जनों का सद्भाव ही है क्योंकि उनके होने पर ही उनका प्रकर्ष होता है। सच है--यदि काच न होता तो मणि की प्रतिष्ठा नहीं होती श्रतः मणि की प्रतिष्ठा में जैसे काच कारण पड़ता है उसी प्रकार कवि की प्रतिष्ठा में दुर्जन कारण पड़ता है ।। २१ ।।
सज्जन जिसके व्यवहार से दुःखित हो, अथवा जो दुष्टजन हो, किं वा जिससे साधारणजन भी दूर रहते हों वह दुर्जन है ऐसी यह दुर्जन शब्द की व्युत्पत्ति है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर दुर्जन परोपतापी होता है ।। २२ ।।
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वर्धमानचम्पूः
सरस्वती सय मुखं तदेव सेवास्ति जिल्ला रचनाऽपि संव, तथाध्यहो ! पश्यत दुर्जनस्य कृन्तन्ति मर्माणि वचांसि चोक्तौ ।। २३ ॥
कलङ्कहीनः
सब पूर्वचन्द्रो, विवापि विस्तारित कौमुदीकः । तनोति दोषोज्झित एव जीवं जीवं परं मोदभरं महान्तम् ॥ २४ ॥
शशी कलङ्की स्फटिको जङः खं
शून्यं समुद्रोऽपि जडाशयश्च । विकारयुक्तः सविषः फणीशः,
सतो न सादृश्यमुपैति कोऽपि ॥ २५ ॥
वही सरस्वती है, वही मुख है, वही जिला है, और वही प्रकार, ककार प्रादि शब्दों की रचना है, पर देखो - दुर्जन जब बोलता है तो उसके वे बोल ममच्छेदी होते हैं जबकि सज्जन के बोल श्रानन्दप्रद होते हैं ||२३||
सज्जन एक अपूर्व - पूर्णचन्द्रमा है क्योंकि प्रसिद्ध चन्द्र कलङ्कसहित होता है, यह कलङ्कविहीन होता है, वह रात्रि में ही कुमुदावलि का विकासक होता है, यह रात दिवस भी कुमुद - पृथ्वीमण्डल में सुद - श्रानन्द की वर्षा किया करता है; वह दोषा - रात्रिविहीन नहीं होता, पर यह सज्जनरूपी चन्द्रमा दोषों से विहीन होता है। वह जीवंजीव - चकवा चकवी को दुःखदायक होता है पर यह जीवजीव- प्रत्येक जीव को हर्ष का प्रदाता होता है ।। २४ ।।
चन्द्रमण्डल कलंकसहित है, स्फटिक मणि जड़ है, प्रकाश शून्यरूप है । समुद्र "डलघोलयोरभित्" के अनुसार जड़रूप आशयवाला है । एवं शेषनाग विकारयुक्त तथा विष से भरा हुआ होता है अतः इन सब अवस्था से विहीन सज्जन की ये चन्द्रमण्डल आदि बराबरी नहीं कर सकते हैं ।। २५ ।।
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वर्धमानचम्पूः
हरिमुं रारिस्त्रिपुरारिप्रो हिरण्यगर्भः कलहंसवाहः लेन्द्रश्च संक्रन्दनपारयश्यश्चेन्द्रोऽपि शत्रुनंमुचेनं तुल्यः ॥ २६ ॥
वाणी यवीया सुमनोऽभिरामा प्रकाण्डजुष्टा सुरसार्थ सेव्या । लतेख करूपश्य इति सौ मनोऽनुकूला सततं जनेभ्यः ॥ २७ ॥
बलस्य निंदा न च सज्जनस्य, कृता प्रशंसेति
मयेत्थमत्र ।
परं यथैवास्त्यनयोः
स्वभावः,
प्रशितोंऽशेन गुणः किमाभ्याम् ।। २८ ।
सज्जन की तुलना में हरि और महादेव इसलिए नहीं आते हैं कि हरि मुर नामक राक्षस का और महादेव त्रिपुर नामक राक्षस का शत्रु है । ब्रह्मा "कलहंसवाह" - कलह लड़ाई झगड़े में संवाह श्रानन्द मानते हैं । देव संक्रन्दन - पारवमय है - संक्रन्दन - पारवश्य अच्छी तरह से रोने धोने में पड़े रहते हैं एवं इन्द्र नमुचि का शत्रु है परन्तु सज्जन न किसी का शत्रु है और न कलहप्रिय ही है ।। २६ ।।
सज्जन कल्पलता के समान सुखप्रद होता है क्योंकि उसकी वाणी सुमनोभिराम होती है, विद्वज्जनों को सुहावनी लगती हैं जब कि कल्पलता पुष्पों से अभिराम होती है । सज्जन की वाणी सु-रस- अर्थ - सेव्य अच्छे-अच्छे रसों एवं वाच्यार्थ से युक्त होती है और कल्पलता सुर- सार्थ सेव्य - देवों के समूह से सेवनीय होती है । सज्जन की वाणी प्रकाण्ड जुष्टा - विशिष्ट प्रतिभाशाली नरपुंगवों द्वारा प्रेमपूर्वक आदरणीय होती है और कल्पलता सुन्दर लने से सम्पन्न होती है, ऐसी कल्पलता के जैसी सज्जन की वाणी जीवों को मनोनुकूल सुख प्रदान करती है ॥। २७ ॥
सज्जन और दुर्जन के इस वर्णन से यह नहीं मानना चाहिए कि मैंने दुर्जन की निंदा और सज्जन की प्रशंसा की है। मैंने तो केवल इन दोनों के स्वभाव का अंशतः प्रदर्शनमात्र किया है - परिचयमात्र दिया है, बाकी मुझे उनसे लेना देना ही क्या है ।। २८ ।।
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वर्धमानचम्पूः
चिकीवितस्यास्य पशुडपेह नमामि दोषैकदृशं खलं तम् ।
घृणावशाद् यस्य कथा ममेयं, भवेत् कनिस्ठाऽपि मुद्दे वरिष्ठा ॥ २६ ॥
वचांसि रम्याणि महाकवीनां, पुरातनानां महताऽदरेण । मोsस्म्यहं काव्यमिदं सहायी, कृत्या क्षमो वक्तुमपि ह्यविशः ॥ ३० ॥
बला हसिष्यन्ति हसन्तु कामं, यतश्च तेषां हृद्वृत्तिरीवृक् । मुदं समेष्यन्ति तथापि सन्तो, निरीक्ष्य सव्यं चरितं ममेदम् ।। ३१ ।।
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हां, एक बात अवश्य है कि मैं निर्मातुम् इष्ट इस ग्रन्थ की विशुद्धि के लिए केवल दोषों पर दृष्टि रखनेवाले खलजन को इसलिये नमस्कार करता हूं कि उसकी दया से मेरा यह कथानकरूप ग्रन्थ निर्दोष बनकर छोटा सा होता हुआ भी उपादेय बन जाय ।। २६ ।।
यद्यपि मुझ में इतनी क्षमता नहीं है कि इस ग्रन्थ का निर्माण कर सकूं, परन्तु फिर भी प्राचीन महाकवियों के वचनों की सहायता से मैं इसका निर्माण कर रहा हूं ॥ ३० ॥
मेरे इस प्रयास को देखकर हो सकता कि खलजन - दुर्जन मेरी हँसी करें तो भले ही करें क्योंकि उनकी मानसिक वृत्ति ही ऐसी है, फिर भी मुझे विश्वास है कि संतजन --- विद्वज्जन इस मेरे नवीन चरित्र को देखकर अवश्य ही प्रानन्दित होंगे ।। ३१ ।।
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वर्धमानपम्पः
सौभाग्यवध्यस्ति सतः स्वभावोऽ,
सतश्च वैश्वानरबत्तयोनः । मध्ये स्थितः काञ्चनशुद्धिमिवा,
मान्पोस्वयं काञ्चनवत् प्रबन्धः ।। ३२ ॥ देवागमगुरून् नत्वा नुस्वा विद्यागुरू स्तपा ।
श्री वर्धमानचम्प्वाल्य काव्यं नवचं विरज्यते ।। ३३ ॥ यदा खलु श्रेष्मो रविः स्वकरनिकरजगदिदं संतापयति तवा व्योमकान्तविहारिणां खगानां नमत्यन्मुक्तो बिहारः स्थगित्तः संजायते । संजायते च निरुता निरावरणप्रदेश कान्तारे स्वच्छंदोऽनुवृत्या विहरणशीलानामेणानामामोदप्रमोवमयी क्रीडा, चंक्रमणं च । अपि चोवन्याकुलितानाममितप्राणिगणानां पिपासापहारिणः सरोवराः सलिलविरहिता जायन्ते ।
सज्जन का स्वभाव सुहागा के जैसा होता है और दुर्जन का स्वभाव अग्नि के जैसा होता है । सो अग्नि और सुहागा के योग से जिस प्रकार सुवर्ण की शुद्धि होती है, उसी प्रकार सज्जन और दुर्जन के मध्य में स्थित हुना मेरा यह काव्य भी शुद्धि को प्राप्त करनेवाला होगा, ऐसी मैं भाशा करता हूं ।। ३२ ।।
देव, शास्त्र और गुरु को तथा विद्यागुरु को नमस्कार करके उनकी स्तुति करके मैं अब "श्रीवर्धमानचम्पू" नाम के नबीन काव्य की रचना करता हूं ।। ३३ ।।
जब नीष्मकाल का सूर्य अपनी तीव्र तप्त किरणों से इस जगत् को संतापित करने लगता है, तब अाकाशरूपी एकान्त स्थान में विचरण करनेवाले पखेरुओं का स्वेच्छानुकूल विहार बन्द हो जाता है । निर्जन प्रदेशवाले अरण्य में मनमानी उछल-कूद करनेवाले हिरणों की आमोदप्रमोद भरी झोडाएँ एवं इतस्तत: परिभ्रमण करना भी रुक जाते हैं। अगणित प्राणियों की जो कि प्यास से आकुलित हो जाया करते हैं, पिपासा को शान्त करनेवाले सरोवरों की पंक्तियां बिलकुल शुष्क हो जाया करती हैं
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बर्षमानवम्पूः भवति च सरसाऽपि तेषां मृत्तिका शुष्कवतिकेव नौरसा, जायन्ते व जनानामपीतस्ततो गमनागमनेन विरहिता निर्जनवनप्रदेशा इव निगमादीनां पन्थानः प्राणप्रदेनापि समीरेणाप्यरिणेव तदा प्राणापहारिणा संभूयते। निखिला नभश्चराः स्थलचराश्चाधान्ता "स्त्राहि त्राहि" इति ध्वनि कुर्वन्तः स्वरक्षाकृते भावनां भावयन्ति तापेनासहान संत्रस्ताः सन्तः । तम्यतत्तोबस्तावत्तपति सपनो ग्रीष्मकाले यदेह,
जायेतास्मात् सुखविरहिता प्राणिनां क्लेशहेतुः । भोणी शुष्का भवति सरसां मृतिका नीरसा च, वाति प्राणप्रद इह तदा प्राणहारी समीरः ॥ १॥
- उनका जल सूख जाता है यहां तक कि उनकी सरस मृत्तिका सुखी वती के जैसी इकदम नीरस हो जाती है । गमनागमन से बड़े-बड़े नगरों तक की गलियां, राजमार्ग प्रादि स्थान शून्य-उजड़े हुए जैसे प्रतीत होने लगते हैं । प्राणप्रद वायु भी वरी के समान उस समय प्राणों का हरण करनेवाली हो जाती है एवं असह्य ताप से दुःखित हुए नभश्चर तथा स्थलचर त्राहि-त्राहि करते हुए अपनी रक्षा की चिन्ता में फंस जाते हैं ।
सत्य है
इस पृथ्वी पर ग्रीष्मकाल में जब सूर्य तीव्ररूप से तपने लगता है तो उस समय प्राणी वेचन हो जाते हैं, श्रातपजन्य दुःख का ही उन्हें अनुभव होता रहता है, पृथ्वी पर उष्णता के प्रभाव से शुष्कता आ जाती है, तालाबों की सरस मिट्टी भी नीरस हो जाती है एवं प्राणप्रद वायु भी प्राणहारी जैसा हो जाता है । ।। १ ।।
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वर्धमानबम्पूः
तस्मिन् काले खरतरकरैरुष्णगोस्तापिताना, छंदोवस्या विहरणबता दुर्गमेऽरण्यभागे । कोडणानां भवति नितरां संनिरुद्धा, निरुद्धं, संपद्धतागममम वापि न जाना ॥२..
ज्येष्ठे मासे मृगस्तावन्मृगतृष्णाविमोहितः । पिपासा कुलितस्तापात् तप्तः प्राणान् विमुञ्चति ।। ३ ॥
उपन्याकुलिता जीवा जलमिच्छन्ति शीतलम् । - घर्त्तािः सधनां छायां पेयभिम्याः कुलस्थिताः ॥ ४ ॥
महतोमोशी जगतो दुर्दशा व्याकुलतां च समीक्ष्य प्रकृतिरात्मनि परिवर्तनं विदधाति । सधस्तदा नमोमण्डलं सजलजलबराच्छादितं - --
.. --.दुर्गम अरण्य में मृग आनन्दप्रद विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ किया करते हैं, पर जब गर्मी का प्रकोप बढ़ जाता है तब उनकी क्रीड़ाएँ और जवान पुरुषों तक के गमनागमन बंद हो जाते हैं ।। २ ।।
ज्येष्ठ मास के सूर्य के चिलचिलाते हुए ताप से संतप्त हुआ मृग जब प्यास से आकुलित हो जाता है, तब वह बालुका के चमकते हुए कणों को पानी समझकर अपनी पिपासा बुझाने के लिए उस ओर दौड़ लगाता है, पर उसे वहां पानी नहीं मिलता । इस तरह पानी की प्राशा से दौड़ लगाता सूर्य की तीक्षण गर्मी से संतप्त हुआ वह मृग अन्त में अपने प्यारे प्राणों से हाथ धो बैठता है ।। ३ ।।
इस समय प्यास से संत्रस्त हुए जीव शीतल जल की चाहना करते हैं । गर्मी से-धूप से तपे हुए जीव सघन छाया की कामना करते हैं एवं धनपति अपने निवास-भवनों में रहते हुए ही शीतलपेय-ठण्डाई आदि की इच्छा करते हैं ।। ४ ।।
संसार की ऐसी भयङ्कर स्थिति का और उसकी व्याकुलता का निरीक्षण कर प्रकृति उस समय अपने आप में परिवर्तन लाती है । शीघ्र ही
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वर्धमान चम्पूः
जायते । तीव्रातपोभूत संतापवारणाय च वात्या प्रवहति वारिवाः सलिलविन्दून् शनैः शनैभूमौ निपातयन्ति । पश्चात् पृथ्वीतो वाष्पच्छद्मनो पूर्व गृहीतं तोयं वृद्धिसमन्वितं विधाय ते धारासंपातेन तद्वर्षयन्ति । पश्चात् पृथ्वीतो वाच्छबूमना पूर्व गृहीतं तोयं वृद्धिसमन्वितं विधाय प्लाविता पृथ्वी न केवलं स्थीयामेव पिपासा प्रशमयति, परंच भविष्यति कालेऽपि प्राणिनां पिपासापनुदे स्वकोशमपि सलिलसमूहै बिभति । जनताया आमोद-प्रमोद कृते च सा हरिततृणाङ, कुरच्छद्मना भूमेरुपरि श्यामलं शापप्रशस्तपटलपट मध्यास्तृणोति । इत्थं प्रकृतेः परमकृपया जयतः सन्तापो प्रभावश्च प्रशमितो जायते । प्रसरन्ति च सर्वत्र तदा दिक्षु विविश्वपि प्रमोदभूतां नरपशुपक्षिणाममन्दानन्दध्वनय इतस्ततः सोल्लासा जगति ।
I
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उस परिस्थिति में नभोमण्डल मेघों से धीरे-धीरे आच्छादित होने लगता है । वे मेघ सजल होते हैं। आंधियां माती हैं । मेघों से शनैः शनैः पानी की बूँदें बरसने लगती हैं । भाप के द्वारा पृथ्वी से ग्रहण किये हुए जल को व्याज सहित चुकाने के लिए ही मानो मेघ मूसलाधार वृष्टि करने लगते हैं । पृथ्वी के ऊपर चारों ओर जल ही जल दिखने लगता है। इस तरह प्रकृति प्रदत्त जल से केवल पृथ्वी अपनी ही प्यास शान्त नहीं करती है, किन्तु आगे भी प्राणियों की प्यास शान्त होती रहे इसके लिए वह अपने में जल का प्रथाह भण्डार भी भर लेती है तथा जनता खुशहाल रहे ग्रामादप्रमोद में मग्न रहे, इसके लिए वह पृथ्वी पर हरी-हरी घास का गलीचा भी बिछा देती है । यह सब जो कुछ होता है वह प्रकृति की परम कृपा से ही होता है । जगत् का गर्मीजन्य संताप और उसका प्रभाव शान्त हो जाता है । दिशात्रों और विदिशाओं में भी आनन्दित हुए मनुष्य और पशुपक्षियों की प्रानन्द ध्वनियां इधर-उधर फैलती हुई सुनाई पड़ने लगती हैं ।
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बर्धमान चम्पूः
सत्यमेतत्
धन्या सा प्रकृतिर्यदीयकृपया व्यालोऽपि मालायते क्ष्वेडो वाऽय सुदृष्टिरागवशतः पीयूषकोशायते । दुर्ग: स्वर्गनिभोऽनलो - जलसमो खड्गोऽपि हारायते, दुर्दान्तोऽपि करी हरिश्च हरिको भीमोऽपि शिष्यायते ।। ५ ।।
महाप्रभावः प्रकृतेर्यदा सा, संजायते कोपवती तथा स्युः । कार्याप्यनिष्टानि वसुन्धरायां घरापि विस्फोटवती चित्स्यात् ॥ ६ ॥ विकारहीनप्रकृतेः प्रभावात् समन्ततो वृद्धिमुपैति भत्रम् । नूनं पृथिव्यां नितरामनन्तं भवन्त्यरण्येऽपि च मंगलानि ॥ ७ ॥
यह सत्य है कि
वह प्रकृति धन्य है जिसकी परम कृपा से विषधर सर्प भी पुष्पमाला के जैसा हो जाता है, विष भी अमृत के कोश जैसा बन जाता है, भयंकर दुर्गम स्थान भी स्वर्ग के तुल्य सुखप्रद हो जाता है, अग्नि पानी के जैसी, तलवार कण्ठ के हार जैसी एवं दुर्दान्त गजराज भी विनीत घोड़े के समान हो जाता है । ज्यादा क्या कहा जावे- भयप्रदविकराल केशरी भी जिसकी अनुकूलता के बल पर शिष्य के जैसा श्राचरण करने लग जाता है ॥ ५ ॥
प्रकृति का प्रभाव बहुत विशिष्ट होता है । जब वह कोपवती हो जाती है तो इस पृथ्वी मण्डल के ऊपर अनेक अनिष्ट कार्य होने लगते हैं । कहीं-कहीं यह धरा भी स्वयं फट जाती है ॥ ६ ॥
जब प्रकृति स्वस्थ होती है, तब इसी वसुन्धरा पर अनेक मांगलिक कार्यों की सब ओर सृष्टि होने लगती है और वृद्धि भी होने लगती है । यहां तक कि जंगल में भी मंगल होने लग जाते हैं || ७ ||
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वर्षमागचम्यूः
सर्व सहेयम् प्रकृतिः स्वभावात्,
यदा विरुद्धा विषमाऽयवा स्यात् । सदा पृथीव्यां प्रसरत्यकालो,
वृष्टेरभावो बहुवृष्टि सृष्टिः ॥८॥ एवमेध यता स्वार्यान्धीकृतविवेकवक्षषो मानवाः स्वाभिप्राय कुत्सितं साधयितुमीहन्ते तदा ते निःशङ्कीभूय संस्तो विविधं दुराचारमत्याचारं च सृजन्ति । तत्सिद्धये विविधाभिः कुयुक्तिभिस्तयोः पोषणं संवर्धनं च विवति । एवं दुराचारादीनां प्रसरणे प्रचारे च सति कृपापात्रता अपि दीनहीनदशापन्नाः प्राणिनस्तदा न पियपेषण्या पिष्टा भवन्ति । ये च सन्ति रक्षकास्तेऽपि तस्मिन् काले मक्षिका इव भक्षकाः संजायते । बयालयोऽपि हा ! हन्त ! निर्दयान्तःकरणमासो गहिताबरण
अतिवृष्टि का होना, वृष्टि का नहीं होना तथा अकाल का पड़ना ये सब प्रकृति की विकृति के फल हैं । प्रकृति यद्यपि स्वभावत: सर्वसहा है; परन्तु जब यह विरुद्ध या विषम अवस्थावाली हो जाती है तब ये सब विकार पृथ्वी पर देखने में प्राते हैं ।। ८ ।।
जब मानव की स्वार्थवश विवेकरूपी अांखें अंधी हो जाती हैं, तब वे अपने कुत्सित अभिप्राय को हर तरह से सिद्ध करने की चेष्टा करने की ओर अग्रसर हो जाते हैं, उन्हें न किसी का भय होता है और न किसी प्रकार की शंका । संसार में वे अनेक प्रकार के दुराचार अत्याचार के सर्जक होते हैं; उनका वे प्रचार और प्रसार करते रहते हैं। इनके प्रचार और प्रसार की पुष्टि में वे अनेक विध कुयुक्तियों का सहारा लेते हैं । ऐसेऐसे कदाचारों का जब प्रचार और प्रसार बढ़ जाता है तब दया के पात्रभूत भी दीनहीन दशापन्न प्राणी उस समय निर्दयता की चक्की में पिसते रहते हैं, जो इनके रक्षक होते हैं, वे भी उस काल में मक्खियों की तरह भक्षक बन जाते हैं । दयालु जन भी, बड़े दुःख की बात है कि, दयाहीन होकर मलिन आचार-विचार वाले बनकर उन पर कहर बरसाने लगते
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वर्धमानवम्पूः सम्पन्नाश्च भूत्वा भ्रकुशायण्ते । धार्मिका अपि दाम्भिका इव स्वीयां धर्ममयों प्रवृत्तिमुज्झित्वा बदराकारवबहिरेव मनोहराः प्रतीयन्ते, नाम्यन्तरे । दीनानां सहायकवजितानां सस्थामा बम विसहितानां भूकानां च परवादीनां फहणध्वनि न कोऽपि तदा संशृणोति । आचारविचारव्यवस्थेत्थमस्तव्यस्ता निरर्गला च संजायते । तवा निष्कम्पापि प्रकृतिः स्थास्मनि सकम्पा भवति । प्रवहति तस्याः कवणस्रोतो जगवाचार विचारविलोपापनोवाय । तत्प्रभावाद्विशिष्टधर्मप्रभावावा यथा वियति वारिवाः प्रभवन्ति तथैव अगत्यपि कश्चिदीदक प्रभावशाली सासनिधिता । वीरावतंसो वीराग्रणीः प्रभवति, योऽत्याचारानाचारनाथरता दुर्दान्तहिपानामिव जनानां स्वेच्छाचारं निरस्यति । संकटग्रस्तानां दुर्दशा. गर्तपततरं च सत्वानां संकट दुर्दशाव्यवस्थां च दूरी करोति प्रदर्शयति च सर्वेभ्यः सत्पथम् ।
हैं एवं बाहर में वे नटों के जैसे होकरदयालू होने का ढोंग रचते रहते हैं। इसी तरह जो धामिकजन माने जाते हैं वे भी अपनी धार्मिक वृत्ति को छोड़कर बैर के प्राकार जैसे होकर जनता के समक्ष आते रहते हैं-ऊपर से ही वे चिकने चुपड़े प्रतीत होते हैं; ग्राभ्यन्तर उनका धार्मिक प्रवृत्ति से बिलकुल शून्य बना रहता है। उस समय दोन, सहायविहीन, कमजोर मूक पश्वा दिप्राणियों की करुण पुकार कोई नहीं सुनता है । प्राचार विचार व्यवस्था इस प्रकार जब अस्त-व्यस्त एवं निरंकुश हो जाती है, तब निष्कप भी प्रकृति अपने आप में सकंप होकर उस अव्यवस्थित एवं निरर्गल जगत् के प्राचार-विचार को नष्ट करने के लिए अपना करुण प्रवाह वहाती है । इसके प्रभाव से आकाश में जैसे बादल हो जाते हैं उसी प्रकार से जगत् में भी कोई एक ऐसा प्रभावशाली साहस निधि नेता, जो कि वीरशिरोमणि होता है, जन्म लेता है जो अत्याचार एवं अनाचार करनेवाले दुन्ति हाथी के समान अत्याचारी जनों के अत्याचारों एवं अनाचारों को दूर कर देता है, तथा संकटग्रस्त एवं दुर्दशारूप गर्त में पतित प्राणियों के संकटों को एवं दुर्दशारूप विशिष्ट अवस्था को दूर करता है और उनके लिए सत्पथ पर चलने का सुन्दर मार्ग प्रदर्शित करता है।
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वर्धमान सम्पूः
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सत्यमिदम्भवस्यनाचारविशिष्टसृष्टिर्यका जगत्या, प्रकृतिः स्वयं द्वाक् । प्रकम्पते, तत्प्रभवप्रभावाद्वीरावतंसी गुणराशिपूतः ॥६॥ उदेति कश्चिजगतो विपत्ति दूरीभवेत्तत्प्रबलोपवेशात् । पाता च नेता च भवत्यतो ऽयं सर्वस्य जन्तो हितकारकत्वात् ॥१०॥
इलः षष्ठीशताधिकद्विसहस्त्राग्वेभ्यः पूर्व युग्मम् भारतभूरपि धर्मप्राणा पापभारेणाकान्ता सती प्रकम्पिता जाता । तस्मिन् काले धर्मगुरुत्वेन धर्मावतारकत्वेन जनतया ये अनाः संमानिता प्रासन् तेषामेव पिशिताशनाभिलाशमा लपनं मांसभक्षणे लुग्धं जातम् । अतस्ते स्वीयां तां मांसशोणिसभक्षणाभिलाषां निरोद्धमक्षमाः सन्तः स्वर्ग-राज्य-पुत्र-धनप्राप्ति
सच है-जन संसार में अनाचार – अत्याचारों का साम्राज्य छा जाता है तब प्रकृति में बहुत जल्दी प्रकम्पन होता है-वह करवट बदलती है। इसके प्रभाव से कोई गुणराशिस्वरूप वीरशिरोमणि महान् प्रात्मा उत्पन्न होता है जो अपने प्रबल उपदेशों के द्वारा उसकी विपत्तियों को चकनाचूर कर देता है । मानव के मानसपटल को बदल देता है। अतः समस्त प्राणियों का हितसाधक होने के कारण वही जगत का त्राता और नेता बन जाता है। .
प्राज से २६०० वर्ष पहले धर्मप्राण यह भारतभूमि पाप के भार से माकान्त हो रही थी। अतः उस काल में जनता ने जिन्हें अपना धर्मगुरु और धर्मावताररूप से मान रखा था, उनका स्वयं का लपन मांस खाने की अभिलाषा से लोलुप बन गया था। उन्होंने जनता को गुमराह किया
और अपनी मांसभक्षण की अभिलाषा को शान्त करने के लिए उसे "यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः" "अजयष्टश्य" इन वेद मन्त्रों का प्रमाण देकर पशुयज्ञ करने के लिए बाध्य किया। जनता भोलीभाली थी । वह इनके चंगुल में फंस गई । जनता को यज्ञ करने के फलस्वरूप यह बतलाया जाने लगा कि यज्ञकर्ता को स्वर्ग की प्राप्ति होती है, राज्य का लाभ होता है । पुत्र के मंह को देखने का सुनहरा अवसर मिलता है, धन का उसके घर में
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वर्णमामचम्पू:
प्रलोभनेर्जनतां समाचकृषुः । प्राकृष्टया तया मुग्धया ते यज्ञानकारयन् । "यज्ञार्थं पशवः स्रष्टाः, अजैर्यष्टव्य" इत्यादिभिर्वेदवाक्यरनेकरच मंस्तानाकृष्य तेषु यज्ञेषु निरागसां निरीहाणां मूकानाम विपशूनां बलि दापयन्ति स्म । यदा कदा स्वयमपि च धर्मोऽयमिति घोषणापूर्वक तानि हत्य तन्मांसहवनं कुर्वन्ति स्म ।
हेयादेयविवेकविकला गौरिव सरलस्वभावा मुग्धा जनता स्वार्थसाधनतत्पराणां तेषां धर्मगुरुत्वेन मन्यमानानां वचनं परमात्मवचनं मत्वा दयोज्झितमपि तत्पापकृत्यं धर्मोऽयमित्यमन्यत । नासीत्सवा कोऽपि तेषा दयार्हाणां निर्बलानां सहायकविहीनानां करणोत्पावकवाचां श्रोता याद्रवितान्तःकरणस्तद्रक्षणबद्धकक्षः कोऽपि त्राणकर्ता, अतो मांसलुग्धकानां तेषां धर्मान्धभक्तानां पुरोहितानां पिशिताशनगडितारूपः स्वार्थों जनसायाश्च धर्मविषयकज्ञानाभावस्तत्पापकृत्यस्य नेतत्वमकार्षीत् ।
अम्बार लगा रहता है । इस तरह के प्रलोभनों के जाल में इन्होंने जब जनता को फंसा लिया तो वह निधड़क होकर यज्ञ करवाने लगी। दीनहीन निरपराधी पशुत्रों की बलि दी जाने लगी । यदा कदा पुरोहितजन भी यह कृत्य "धर्म है" इस प्रकार की घोषणा करते हुए मारे गये पशुओं के मांस से हवन करने लगे ।
उस समय जनता इतनी अधिक भोली थी कि 'हेय क्या है और उपादेय क्या है' वह यह नहीं जानती थी । अतः हेयोपादेय के ज्ञान से विकल हई जनता ने जो गाय के जैसी सीधी साधी थी स्वार्थ के साधन में तत्पर इन धर्मगुरुयों के कथन को ईश्वर का वाक्य मानकर ही इस पापमय कार्य को धर्मरूप से अपनी श्रद्धा का विषय बनाया-उसे तन्मय होकर अंगीकार किया।
उस समय दीनहीन दयाई मूक प्राणियों की करुणध्वनि को सुनकर जिसका हृदय पसीज जावे ऐसा कोई भी नहीं था और न ऐसा भी कोई था जो उनकी रक्षा करने में अपनी कमर बांधकर आगे आता अत: मांसलन्धक उन धर्मान्ध गरुनों के-पुरोहितों के मांसभक्षणकरनेरूप स्वार्थ ने और जनता के अज्ञान ने उस पापकृत्य का नेतृत्व किया । उस
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वर्धमानचम्पूः
___21 तस्मिन्नवसरे जनसाधारणकृते सज्ज्ञानप्रकाशप्रदायकस्य तेषां कुमार्गगामिना भ्रष्टानां धर्मान्धभक्तानां पुरोहिताना हृदयपरिवर्तनकारकस्य च जनस्यातीवावश्यकताऽसीत् यतो धर्मप्राणस्वरूपस्य भारतस्यायं महान् पापकलपङ्कोऽकात् प्रक्षालितः स्यात्, लधिष्टो वा भवेत् । दुगंधो बाऽस्य वेशाबहिनिर्गतो वा जायेत
गाढान्धकारे पतितस्य पुसो
यथाऽस्ति दीपः शुभमार्गदाता । शाम तथाऽमानतमस्यपार
निमग्नचिसस्य हितप्रकाशि ॥ ११ ॥ यस्मानिवृत्तिरहिताद्धितस्य संप्राप्तिरीदृशं ज्ञानम् । विपरीताभिनिवेशानिमुक्तं प्रमाणपसेवि ॥१२॥
काल में जन-साधारण के लिये ज्ञानरूपी प्रकाश देनेवाले की एवं उन कुमार्गगामी भ्रष्ट धर्मान्धभक्त पुरोहितों के हृदय को परिवर्तन करानेवाले जन की अनिवार्य आवश्यकता थी, जिसके प्रभाव से धर्मप्राण-स्वरूप इस भारतवर्ष से यह महान् पापकलङ्क प्रक्षालित हो जाये या बहुत ही कम हो जावे; अथवा इस देश से इसकी दुर्गन्ध ही बाहर निकल जाये ।
गाढ़ अन्धकार में पतित व्यक्ति को शुभमार्गका दिखानेवाला जैसा दीपक होता है, वैसा ही ज्ञान अज्ञान रूपी अन्धकार में डूबे हुए प्राणी को उसका हितप्रदर्शक होता है ।। ११ ।।
जिस ज्ञान से अहित का परिहार हो और हित की प्राप्ति हो ऐसा विपरीताभिनिवेश से रहित ज्ञान ही प्रमाणभूत होता है, अर्थात् ऐसे प्रमाणभूत ज्ञान से ही जीव को हित-प्राप्ति और अहित से उसका अपना बचाव होता है ।। १२ ॥
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वर्षभानचम्पू:
हिंसाविदुष्कृत्यविधान दक्ष ज्ञान न समझानमनर्थकृत्वात् । न तेन शान्ति न सुख लभेत जीवः परह कदापि किञ्चित् ॥ १३ ॥
यत्रास्ति हिंसा न समस्ति तत्र,
धर्मो यतः प्राणिक्यान्वितः सः। न बालुकापेषणतः समाप्ति,
स्तलस्य कुत्रापि कयापि दृष्टा ॥ १४ ॥
प्राणिनां पोड़नं पापं पत्राऽस्ति तस्कथं भवेत् । धर्मो धर्मस्थहिसैव तत्वजस्तद्विचार्यताम् ॥१५॥
जीव जिस ज्ञान से हिंसादिदुष्कृत्यों के करने में प्रवृत्त हो जावे .. दक्ष हो जाये वह जान सच्चा ज्ञान नहीं है । वह तो कुज्ञान है । ऐसे ज्ञान से जीव को न इस लोक में शान्ति और सुख मिलता है और न परलोक में ही ॥ १३ ।।
जहां प्राणियों पर दया है वहीं धर्म है और जहां उनकी हिंसा है वहां अधर्म है । जैसे बालुका के पेलने से जीव को तेल की प्राप्ति नहीं होती वैसे ही हिंसा से धर्म की प्राप्ति नहीं होती ।। १४ ।।
__ प्राणियों को पीड़ा पहुँचाना पाप है । यह पाप जहां पर है वहां धर्म कैसे हो सकता है ? धर्म तो अहिंसा रूप ही होता है ।। १५ ।।
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वर्धमानचम्पू:
भ्रष्टान्धधर्मभक्तानां
पापाशनविलोभिनाम् । सदाचारविहीनाना,
मत्याचारविधायिनाम् ॥ १६ ॥
धर्माधर्मविवेकेन,
होनानां धर्मलोपिनाम् । सद्धर्मशिक्षकः कश्चिन, ___ महात्मा जायते ध्रुवम् ॥ १७ ॥
पासीत्तस्मिन् काले जनधनाकीर्णा विशला विशालशालान्विता वैशालीनामधेया नगर्यका। नगरीयं जम्बूद्वीपस्थित-भरतक्षेत्रार्यखंबान्तर्गसविदेहप्रान्तस्थमुजफ्फरपुरमण्डलाधीमयसाढनिगमनिकटस्था।
जो धर्म-भ्रष्ट हैं, धर्मान्ध हैं, मांस भक्षण करने में लुब्ध हैं, सदाचारविहीन हैं, अत्याचार करने में निपुणमति हैं, धर्म-अधर्म के विवेक से रहित हैं एवं धर्मविध्वंसक हैं ऐसे आततायियों को सद्धर्म की शिक्षा देनेवाला कोई न कोई महात्मा इस संसार में समयानुसार जन्म धारण करता ही है ।। १६-१७ ॥
उस काल में जनधन से परिपूर्ण एक विशाल वैशाली नाम की नगरी थी। इसके चारों ओर कोट था। यह नगरी जम्बूद्वीपस्थित भरत क्षेत्र के प्रार्यखण्ड के अन्तर्गत विदेह (बिहार) प्रान्त में वर्तमान जिला मुजफ्फरपुर के वसाढ ग्राम के निकट थी ।
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संक्षेपतो जंबूद्वीपस्य वर्णनम् -
श्रयाऽस्ति वृत्तः प्रथितः पृथिव्यां स्वः कीर्तिकारस्यापित
सुराद्रिमध्यो
''?
वर्धमान चम्पूः
दैन्यभारः ।
लवणाविप्रो,
द्वीपः स जम्बूपपदो विशालः ।। १८ ।।
द्वीपान्तर श्रेण्युपरिस्थितोऽसाबुद्यम्ययोना किनगोत्तमाङ्गम् । विमति पश्य दिग्गतांस्तान् द्वीपान् स्वलक्ष्म्यैव विलज्जितांस्तान्
॥१६॥
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प्ररमच्छ्रिया लज्जित ! बन्धुवृन्द ! मा भूः परासुः पतनेन वाधौ । इत्थं कृते ते न समस्त्यमिख्या, स्थामन्त्र भूचक्र बहिष्कृतोऽहम् ॥२०॥
वोपस्तस्थानिति बोधनाय कृतोऽजलि येन सुराद्रिदभ्भात् । महामयाबेन धूतापगाध्या - जान्मुक्तनेत्राभूदन्ति ॥२१॥
संक्षेपतः जम्बूद्वीप का वर्णन -
इस भूमण्डल पर गोल चूडी के आकार जैसा एक द्वीप है । इसका नाम जम्बूद्वीप है | यह सबसे पहला द्वीप है। इसकी कीर्ति और कान्ति के प्रागे स्वर्ग भी लजाता है। इसके ठीक बीचों-बीच एक पर्वत है जिसका नाम सुमेरु है | जम्बुद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए कोट के जैसा लवण समुद्र है ।। १८ ।।
द्वीपान्तरों के ऊपर रहा हुआ यह जम्बूद्वीप सुमेरुपर्वत रूप अपना मस्तक ऊपर उठाकर - ऊंचा कर अपनी लक्ष्मीं से लज्जित हुए उन भिन्न-भिन्न दिस्थित पर्वतों को ही मानो देख रहा है और उनसे "हे बन्धुवृन्द ! श्राप सब मेरी लक्ष्मी के आगे लज्जित हो जाने के कारण कहीं ऐसा न कर बैठना कि पास के समुद्र में डूबकर अपने प्राणों को गंवा दें । यदि आप लोगों ने ऐसा किया तो मैं हत्यारा माना जाऊंगा और ऐसी स्थिति में मेरा जाति से बहिष्कार हो जायेगा । अतः श्राप लोग यह अशोभनीय कार्य न करें" ऐसी प्रार्थना वह सुमेरुपर्वत के बहाने से ही मानो हाथ जोड़कर एवं अपने में बहती हुई नदियों के छल से उनके समक्ष श्रश्रु बहाकर (उन तटस्थ द्वीपों से ) कर रहा है ।। १६-०२० - २१ ।।
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वर्धमानसम्प:
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जिनाभिषेकाय सुराङ्गनाभिः,
सुरंश्च शच्येह समागतस्य । शतकतो मरपवन दत्तो ,
दीपश्रिया बोष इवाश्रयः किम् ॥२२॥
प्रवादिसंकल्पितलोकरूपः,
सम्पनयास्तति, विलोकनाय । सूक्ष्मेक्षिकातो युगलेन्बु सूर्य-,
व्याजाद् दधातीय महोपनेत्रे ॥२३॥
धतेऽन्तरं मे वियतश्च मध्ये,
कियद्भवेद्वेति बुभुत्सया यः। सुचिह्नितं सौमनसादिमिस्तै,
मन्मिषेणेव च मानसूत्रम् ॥२४॥
जिनेन्द्र प्रभु के जन्म कल्याणक का अभिषेक करने के लिए प्रथम स्वर्ग से अपनी इन्द्राणी, देव और देवाडनाओं के साथ आने वाले इन्द्र के लिए उस द्वीपश्री ने उतरने के निमित्त सुमेरुपर्वत के ब्याज से मानो यह हाथ का सहारा ही दे रखा हो ।। २२ ।।
में तो ऐसा मानता है कि 'अन्य सिद्धान्तकारों ने जो लोक का स्वरूप माना है वह सत्य है या नहीं' इस बात को सूक्ष्मदृष्टि से विचारने के लिए ही-जांच करने के लिए ही-इस द्वीप ने चन्द्र और सूर्य के ज्याज से दो बहुत बड़े उपनेत्र (चश्मा) लगा रखे हैं ।। २३ ।।
'मुझ में और प्रकाश में कितनी दूरी का प्रन्तर है' यह जानने के लिए ही मानो इस द्वीप ने सुमेरु पर्वत के बहाने से ही सौमनसादि बनों से चिह्नित यह मानसूत्र धारण कर रखा है ।। २४ ॥
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वर्ष मानवम्पू:
स्वपारपर्भश्सकृच्च साधो ! कृतं कृतार्थ गहमस्मदीयम् । पुरातनैस्तैस्त्वनुशजस्त राधेन्द्र ! निर्वाणपुरों प्रयातः ।। २५ ॥
त्वयेवमप्यार्य ! मुमुक्षुणा नौ कुलक्कमेरणानुगतं सुसख्यम् । पाल्यं, समादाय तबीयमित्थं वृत्तं दिवं गच्छति मेदूतः ॥ २६ ॥
षडायताः सन्ति नगाश्च, सप्त,
क्षेत्राणि, नद्योऽत्र चतुर्वशाढ्याः । वनर्भयाढ्योऽपि सदा स्थिरो यो,
लक्ष्म्यालयो योजनलक्षमानः ॥ २७ ॥
नयम्बुतलाञ्चितविस्तृतान्तः सुमेरुशृङ्गोरुदशोऽयमे वोः । प्रमाभरोऽसौ गगनाञ्जनश्रीः स्वोतितु वोपत्ति वीप्तरूपः ॥ २६ ॥
"हे प्रथमस्वर्गाधिपते शक्र ! जब-जब आपके वंशज मोक्षपुरी में गये हैं, तब-तब उन्होंने हमारे घर को अपने चरणकमलों से पवित्र किया है अर्थात् वे यहां कुछ दिन ठहरकर ही बाद में मोक्षपुरी में गये हैं। प्रतः जब आप भी मोक्षपुरी जाने लगें तो कुल परम्परा से चले आये हुए इस मंत्रीभाव को निभावें ।" इस प्रकार के इस जम्बूद्वीप के दिये गये सन्देश को लेकर ही मानो सुमेरुपर्वतरूप दूत स्वर्ग की ओर जा रहा है ।।२५-२६।।
इस जम्बुद्वीप में पूर्व से पश्चिम तक लम्बे ६ पर्वत हैं, ७ क्षेत्र हैं, गंगा आदि १४ नदियां हैं, सौमनस प्रादि वनों एवं अपनी विशिष्टकान्ति से यह सदा सुशोभित रहता है, यह स्थिर है, लक्ष्मी का भण्डार और एक लाख योजन के विस्तारवाला है ।। २७ ।।
यह जम्बुद्वीप स्वर्गलोक को प्रकाशित करने के लिए चमकीले रूप वाले एक दीपक के जैसा है । नदियों का जल ही इसमें तेल है। सुमेरुपर्वत का शिखर इसकी विस्तृत बत्ती है । सूर्य और चन्द्रमा की प्रभा इसका विशिष्ट प्रकाश है और आकाश ही इसका निर्गत अंजन है ।। २८ ।।
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वर्धमानचम्यू:
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भरतक्षेत्रस्य वर्णनम् -
बदान्यताधरकृतकल्पवृक्षजनः सदाचारपवित्रताः ।
धन्यः सुमान्यः सुरतुल्यरूपः श्रिया समालिङ्गितचारवेषः ॥ २६ ॥ निःसेवितः स्वर्गनिमः पवित्रस्तीयंकरोत्पत्तिविशिष्टशिष्टः । बीपेऽस्त्यमुष्मिन् खलु भारताख्यो देशो विवस्वानिव चान्तरिक्षे ॥३०॥ तद्दक्षिणस्यां दिशि वर्तमानो,
देशोऽयमणिगणे । यतो हि काळंति सुरा अपीम,
नजन्मने स्वात्महिताभिलाषात् ॥ ३१ ॥ क्षेत्र समृद्ध्या परिपूर्णमेतत्,
समस्ति पुण्यात्मधयर्वरिष्ठम् । मन्दाकिनीसिन्धुतरङ्गिन्यनि-,
विभक्तषङ्खडसुमण्डितं तत् ॥ ३२ ॥
इस जम्बुद्वीप में एक भरतक्षेत्र नाम का देश है । यहां के निवासी जन सदाचार से पवित्र और दान धर्म की प्रवृत्ति से सदा हरे भरे बने रहते हैं। इनकी वदान्यता दानशीलता को देखकर कल्पवृक्ष भी नीचे भक गये । देवताओं के जैसा इनका रूप सौन्दर्य होता है। ऐसे महामान्य धन्य-जनों द्वारा यह देश सुसेवित है । इस देश की विशिष्टता का एक सबसे बड़ा कारण यह है कि इसे तीर्थकर अपनी उत्पत्ति का स्थान बनाते हैं। जैसे आकाश में सूर्य चमकता है वैसे ही इस द्वीप में यह देश चमकता है। ॥२६-३०।।
जम्बद्वीप की दक्षिणदिशा में यह भारत नाम का देश है । समस्त प्राणी इसकी पूजा करते हैं सार्थात् यहां जन्म लेकर वे अपने आपको भाग्यशाली मानते हैं । इसीलिए देवता भी प्रात्मकल्याण करने की कामना से यहां मनुष्य जन्म धारण करने के लिए लालायित रहते हैं ।। ३१ ।।
पुण्यात्मात्रों द्वारा सर्वतोभद्र बना हश्रा यह क्षेत्र समस्त प्रकार की ऋद्धि से परिपूर्ण रहता है । गंगा और सिन्धु तथा विजयाई पर्वत, इनके द्वारा विभक्त होकर इसके ६ खण्ड हो गये हैं ।। ३२ ।।
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वर्धमानसम्पू: सौमोपरि ह्यस्य विराजमानः पूर्वापरौ तोयनिधो वगाए । विशोभते पद्मजलाशयाङ्कः शैलाधिराजो हिमवान् सुशैलः ॥३२॥
तत्रास्ति भूमण्डलमण्डनं ,
खंडं तवार्याभिधमुत्तमाङ्गम् । अंगेष्विवानन्वितसर्वलोक,
तीर्थंकरोत्पत्तिपवित्रभूमि ।। ३३ ॥
अथार्यखंडालंकारभूता सा मुक्त्यङ्गनालीब वैशाली गणतन्त्रशासनस्य केन्द्रस्वरूपा लिच्छविगणतन्त्रशासनस्य गणनायको निखिलगुणगणपेटको राजासोच् चेटकः । प्रासीवयं सद्गुणानामेव श्रावको न तु दुर्गुणानाम् । कान्ताचरणमग्नोऽप्ययं नातिशयेन कान्ताचरणमग्नः, समन्तभद्रोऽ.
इसकी सीमा पर शंलाधिराज हिमवान् नामका पर्वत है । यह पर्वत पूर्व से पश्चिम समुद्र तक फैला हुआ है । इसके बीच में पमहद् नामका एक सरोवर है ।। ३२ ।।
इस भरतक्षेत्र में भूमण्डल का अलंकारस्वरूप एक प्रार्यखण्ड है । यह समस्त अंगों में उत्तमांग-मस्तक की तरह श्रेष्ठ माना गया है। यहां की भूमि समय-समय पर तीर्थंकरों के जन्म से पवित्र होती रहती है ।। ३३ ॥
__ आर्यखण्ड' की अलंकारस्वरूपा वह वैशाली मूक्तिरूपी अंगना की सखी के जैसी थी एवं गणतन्त्रशासन की केन्द्र थी। लिच्छविगणतन्त्रशासन के गणनायक शासक के समस्त गुणों के निधिस्वरूप राजा चेटक थे । ये सदगुणों के श्रोता और दुर्गणों के अश्रोता थे। ये कान्ताचरणमग्न शुद्ध निर्दोष आचार-विचार के पालन करने में मग्न होते हुए भी कान्ताचरणमग्न--कान्ता के चरणों की सेवा में ग्रासक्त नहीं थे अर्थात वैषयिक भोगों की गद्धता से विहीन थे । ये समन्तभद्र थे-चारों ओर से इन्हें कल्याण
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मधमानपम्पू:
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व्ययं न समन्तभद्रः, विनायकोऽप्ययं नाविनायनां नायकः सविग्रहोऽप्ययं नो सविग्रहः।
नृपतिमौलिमालाचुम्बितपायपीटस्यास्य नृपतिशेखरशिरोमणेरासन सप्राप्तात्मजास्त्रैलोक्यसौन्दना शिस्वरूपा मनामनाङ्गनेव सा मूतिमत्यः । प्रास्त्रेका प्रणयप्रणोतिर्गतौ करिणीव प्रियकारिणी त्रिशलाऽपरनामधेया प्रोणितपोष्यवर्गा बुर्गुणानां विवारिका वारिका । सा कुण्डलपुराधिपतिना ज्ञातृवंशावतंसेन नृपतिना सिद्धार्थनोवाहिता शुभे रूग्ने प्रशस्तायो तिथौ महतोत्सवेन । पतिप्राणा सा स्वस्वामिनेऽनमिने प्राणेभ्योऽपि
कारक साधनसामग्री प्राप्त होती रहती थी फिर भी ये समन्तभद्र नहीं थे तो इस विरोध का परिहार ऐसा जानना चाहिए कि किसी भी साधन सामग्री का जो कि कल्याणकारक होती थी एक क्षण भर के लिए भी अन्त–अभाब नहीं रहता था । हर प्रकार से उस साधन सामग्री से ये भरपूर बने रहते थे। ये कुशल नायक थे—फिर भी अविनीतों के नायक-- नेता नहीं थे। ये विग्रहसहित थे—सौन्दयोपेतशरीरवाले थे-फिर भी विग्रहवाले नहीं थे तो इस विरोध का परिहार ऐसा है कि ये सदा युद्ध से परे रहते थे।
जिसके पादपीठ को राजाओं के मुकुट प्रतिदिन चुम्बित किया करते थे ऐसे इस नृपतिशिरोमणिरूप चेटक नरेश की सात कन्याएँ थीं । ये सौन्दर्य की राशि स्वरूप थीं, देखने में ये ऐसी प्रतीत होती थीं मानो रति की साक्षात् अवसरस्वरूप ही हैं। इनमें प्रथम पुत्री का नाम त्रिशला था । इसी का दूसरा नाम प्रियकारिणी भी था । इसकी चाल हथिनी की चाल जैसी सुहावनी थी । दुर्गुणों से यह सदा दूर रहती थी। अपने प्राश्रित परिचारकों को यह सदा प्रसन्न रखती थी । चेटक ने इसका विवाह मातृवंश के मुकुटस्वरूप राजा सिद्धार्थ के साथ, जो कि कुण्डलपुर के शासक थे शुभ लग्न और प्रशस्त तिथि में बड़े उत्सव के साथ कर दिया । पतिप्राणा त्रिशला अपने प्राणनाथ सिद्धार्थ को अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी हो
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वर्धमाननम्पू:
गरीयस्यभवत् । अतो भर्तुर्बहुमतत्वात्तस्याः प्रियकारिणीति गुणानुरूपं नामधेयं पृथिव्यां प्रथितं जातम् ।
शासितारौ तस्मिन् सिद्धार्थे युवतिनारोमिय बसुमती वसुमती शासति सति नाभावेवाधोधरत्वं, पारोपितचापेष्वेवापरापकृतित्वं शातोपरीणामुदरेष्वेव नास्तित्वं, कुचेष्वेव कृष्णाननत्वं, नेत्रपक्षस्वेत्र निपातित्व, रम्भास्तम्भेष्वेव निःसारत्वं, भ्रमरेज्येष गन्धापहारित्वं परं व्यवस्थितरमासीन प्रजाजनेषु ।
गयी । नरेश का इस पर अधिक से अधिक मोह हो गया था इसीलिए वह प्रियकारिणी इस नाम से भी जगत् में विख्यात हुई।
सिद्धार्थनरेश जब युवति नारी के समान इस भूमि का एकछत्र शासन कर रहे थे तब प्रजाजनों में अधोगामिता नहीं थी। "यह तो केवल नाभिमण्डल में ही थी । 'दूसरों का अपकार करना', ऐसी वृत्ति भी प्रजाजनों में नहीं थी-ऐसी वृत्ति तो चढ़ाये गये धनुष में ही थी नास्तिकपना भी प्रजाजनों में नहीं था। यह तो वहां के नारीजनों के उदरों—पेटों में ही था क्योंकि उनका कटिभाग पतला था । प्रजाजनों . में कोई भी जन काले मुखवाला नहीं था । यह तो केवल नारीजनों के कुचों के अमभाग में ही था क्योंकि वे काले थे। निपातपना भी वहां के प्रजाजनों में नहीं था। यह तो केवल अांखों की पलकों में ही था। निःसारता भी वहां के प्रजाजनों में नहीं थी। यह तो केवल केले के वृक्षों में ही थी । गन्ध को चोरी करना भी वहां के प्रजाजनों में नहीं था यह तो सिर्फ भ्रमरों में ही था क्योंकि वे ही गन्ध का पान किया करते हैं ।
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मनः
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प्रचण्ड दोर्दण्ड विराजितोऽसौ सुपर्ववगैरपि गीतकीर्तिः । महीं स्वकीयां करिणों चकार स्वविक्रमविक्रमशालिमुख्यः ।। ३४ ।।
राजनीत्यवतारोऽयं धर्मनीत्यनुसारतः । पालयत् स्वां प्रजां सर्वा धर्मतातोऽअनिष्ट सः ॥ ३५ ॥
हवेस्तड गैस्तटिनीतरङ्गः स्तत्पल्वलैः पल्लवित पार्श्वभागंवा वैशाली धराधरेषु क्षचयंश्च समन्तादुपचीयमाना स्वश्रिया जनानां मनांसि प्रीणयन्ती निलिम्पानामपि नगरीमरावतीं तृणाय मन्यते स्म । प्रभातदाताहतिकम्पमानोत्पल फुल्ल राजियंत्र रसक लुब्धानलिजाल्मान् स्वाङ्ग
सिद्धार्थनरेश के बाहुयुगल प्रचण्ड बलशाली थे, देवता तक भी इनके यवन किया करते थे । वे पराक्रमशालीक्तियों में भी विशिष्ट पराक्रमशाली माने जाते थे । समस्त पृथिवी को इन्होंने करिणी-टंक्स देनेवाली - बना दिया था, अर्थात् विशिष्ट धनधान्य से उसे भरपुर कर दिया था || ३४ ॥
वे सिद्धार्थनरेश राजनीति के साक्षात् अवतार थे; परन्तु फिर भी उन्होंने धर्मनीति के अनुसार ही अपने प्रजाजनों का पालनपोषण किया श्रतः प्रजा उन्हें अपना धर्मपिता मानती थी ।। ३५ ।।
ह्रदों से - तडागों से - और नदियों की तरङ्गों से तथा पल्वलों से जिसका पार्श्वभाग पल्लवित - व्याप्त – शोभित हो रहा है ऐसी यह बंगाली नगरी सब ओर से पर्वतमालाओं एवं वृक्षराजियों से सुशोभासम्पन्न थी । यह नगरी इतनी अधिक सुहावनी एवं मनोरम थी कि देवों की नगरी अमरावती भी इसके समक्ष तृण के जैसी नगण्य प्रतीत होती थी। जहां पर प्राभातिक वायु से कम्पित कमलश्री मानो रस-लोलुपी
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,
वर्धमानघम्पू: वातुं निषेधयन्तीय प्रतीयते । यत्राकृष्टपच्याः कलमाः पदे पवे लभन्ते । क्वचित् क्वचिच्छोमन्ते च पुण्ड्वनरुपलक्षिता वारपोषणरतानां कृषीवलानां केवाराः । गोधनराजिविराजिता प्रामा मोदित मानवान्तःफरणा अशरारण्यभूताश्चतसृसु विक्षु वृत्या परिवृता लसन्ति । सदाचारविशिष्टशोमः सर्वमनोकूलः प्रकृत्यामद्रमावभरितः श्रमपरिषशाद्वातादिविकारशून्यविधिकर्युतास्ते शुश्तानपानसामग्ग्राः सुलमत्वेतान्यपथिकेभ्यः स्पृहणीया भवन्ति ।
भ्रमररूपी विटों को व्यभिचारियों को अपने अङ्ग का स्पर्श तक करने का निषेध करती हुई सी होती थी। इस नगरी में विना बोये धान्य (पसाई के चाक्ल) जगह-जगह मिलते थे। कहीं-कहीं स्त्री-बच्चों के पोषण करने में दत्तचित्त किसानों के इक्षुषों से भरे हुए सेत सुरक्षित होकर चित्त को आकृष्ट करते थे।
यहां के ग्राम गोधन से परिपूर्ण थे । इनके चारों ओर बाढ़ थी । ये ग्राम देखनेवालों के चित्त को बड़े सुहावने-लुभावने लगते थे । जिन्हें रहने को कहीं जगह नहीं मिलती थी उन्हें यहां जगह मिल जाती थी।
यहां जो मजदूर वर्ग रहता था वह सदाचारी और हरएक व्यक्ति के अनुकूल श्राचार-विचार वाला था, स्वभावतः भद्र प्रकृति सम्पन्न था एवं परिश्रमी होने के कारण वातादिजन्य विकारों से रहित था। स्वस्थ शरीरवाला था।
पथिक जनों को यहां शुद्ध घृत, अन्न पान आदि सामग्री सुलभ थी । प्रतः वे अन्य पथिक जनों के लिए स्पृहणीय थे ।
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बभ्रमामयम्पूः
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पत्र च पदे पदे ध्वजमालालङ्ग कृता जिनागाराः, प्रपा, गोचरभूमयो बजाश्च विद्यन्ते । यत्रालिमालाध्वनिलाञ्छनेन सरोवरेषु प्रभातवाताहतिकम्पमाना सभयेव सरोजमाला "हे प्रार्यपुत्र ! त्वया रात्रिः कथं कुत्र व्यतीतेति" रवि प्रतिदिनं पृच्छति । पादाञ्चलस्पर्शमवाप्य हष्टाऽप्यंमोजिनी मिलिन्दनाथं निशावसाने जाते सति रिरंसयालिङ्गति । यत्र च हिमाशामुद कृत दसपरागमूल्या सरोजिनी ताँस्तान् नृत्यकलाविलासान् प्रभजनान्नित्यं समभ्यस्यतीव भाति । यत्र च मे पादाग्राहतितस्त्वयोवं कामं न जातं, किन्तु निशासपत्न्याः सहवासत इत्युक्त्वेव सरोजिनी स्वगृहात्षट्पदमनाय निष्कासयति ।
वैशाली में जगह-जगह ध्वजात्रों की पंक्तियों से अलंकृत जिनमन्दिर थे । पद-पद पर प्याऊएँ—पानी की शालाएँ थीं । बज-गाय आदि जानवरों के स्थान थे और गोचर भूमियां थीं । सरोवर भी थे । उनमें कमल खिले रहते थे । जब प्रातःकाल होता तब प्राभातिक वायु से कम्पित हुई पंकजमाला मानो भयभीत सी होकर अपने पतिदेव रवि से यों पूछा करती "हे आर्यपुत्र ! आपने रात्रि कहां और किस प्रकार व्यतीत की। रात्रि का अवसान हो जाने पर भी जहां प्रागत मिलिन्दनाथ के चरणों का स्पर्श पाकर मुदित हुई अंभोजिनी उसके साथ रमण करने की इच्छा से ही मानो उसका प्रालिङ्गन करने लगती । तथा जहां पर अपने पतिदेव चन्द्रमा को प्रसन्न करने के लिए सरोजिनी परागरूपी मूल्य देकर वायु से उन-उन नृत्यकलारूप विलासों को सीखती रहती है तथा- जहां पर "मेरे पैरों के प्राघात से तुम में यह कालापन नहीं पाया है, किन्तु मेरी सौत निशा के साथ सहवास करने से ही आया है" ऐसा उलाहना देकर सरोजिनी अपने घर से षट्पद-भ्रमर-को बाहर कर देती है। अपने पास नहीं आने देती है।
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बर्धमानबम्पू: यत्र च ब्राझे मुहूर्ते उत्थाय प्रतिविनं जनाः केऽपि "कोऽहं, कि च मे स्वरूप" मित्थं विचारयन्ति । केऽपि श्रुतां मुनिराजवाणी कर्मकृपाणी संसारजलधिसंतरणे द्रोणीमिय समभ्यस्यन्ति । कुर्वन्ति च केऽपि सद्भावभरावनम्रा पालोचनां दुर्भावविमोचनकारिणी, केऽपि सामायिक केऽपि च प्रत्याख्यानम् ।
कि च--विहारकाले विहरतां मुनीनां दिव्योपदेशान् परिपीय सत्रत्या भन्याः केचन पापाचार प्रवृत्तितः समुद्वेजिता जैनेश्वरी दीक्षामक्षाश्वबलप्रसारशमनदक्षशिक्षामावाय क्लेशकर्मविपाकाशयान संवरपूर्वक निर्जरयितुं झटिति तपसि द्वादविधे स्वात्मानं संलग्नं कुर्वन्ति । कश्चिच्चोपासकप्रतानि गृह्यन्ते । प्राद्रियन्ते च कश्चिन्मूलगुणाः ।
जहां पर नाह्ममुहूर्त में उठकर प्रतिदिन वहां के कितने ही जन "मैं कौन हूं, मेरा क्या स्वरूप है" ऐसा विचार करते हैं । कितने ही जन सुनी हुई मुनिराजों की वाणी का जो कि कर्मों को काटने के लिए कृपाणीतलवार- जैसी है पीर संसार रूप समुद्र से पार कराने के लिए नौकाजहाज ---के तुल्य है बारम्बार अभ्यास करते हैं। कितने ही जन सद्भावों से प्रोतप्रोत होकर दुर्भावों को दूर करनेवाली प्रालोचना करते हैं। कोई कोई जन सामायिक और कोई कोई प्रत्याख्यान करते हैं ।
तथा-वहां के कितने ही भव्यजन विहारकाल में विचरण करनेवाले मुनिजनों के मुखारबिन्द से निर्गत धार्मिक उपदेशों को अच्छी तरह श्रवण कर मनन कर और निदिध्यासन कर पापाचार प्रवृत्ति से भयभीत होकर मुंनिदीक्षा धारण कर लेते, एवं रागद्वेषरूपी क्लेश को, ज्ञानावरणादिरूप कर्मों को और इनके विपाकाशय को संबरपूर्वक निर्जरण करने के लिए बारह प्रकार के तप तपने लगते । कितने ही जन श्रावक के बारह प्रतों को धारण कर लेते तथा कितने ही जन श्रावक के मूलगुणों का पालन करने लग जाते।
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वर्धमानधम्पू:
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मुनिजनविहारपूतायामस्या वैशाल्यामन तद्गृहं यत्र न सन्ति वृद्धाः,
वृद्धा न ते ये च न सन्त्युदाराः । उचारता सापि विशालतायाः,
विशालता सापि वयानुबन्धा । ३६ ।। गहे गहे धार्मिकभावभूषाः,
विनम्रता मूतिनिभाः स्थदारान् । स्वदारकान् किकरत्तिभाओ,
जनान् जना श्राद्धयर्ष अवन्ति ॥ ३७॥ गृहे महे तत्र वसन्त्युबारा:,
दाराश्च ते सन्ति च दारकायाः । ते दारकाश्चापि च कण्ठहाराः,
हाराश्च ते सन्ति च नेत्रहाराः ॥ ३८ ॥
मुनिजनों के बिहार से पवित्र हुई इस वैशाली नगरी में
कोई ऐसा घर नहीं था जिसमें वृद्धजन न हो और कोई ऐसा वृद्ध भी नहीं था जो उदारता से भरा न हो। वह उदारता भी ऐसी नहीं थी जिसका क्षेत्र विशाल न हो और वह विशालता भी ऐसी नहीं थी जो सर्वजीवानुकम्पा से सनी न हो ।। ३६ ।।
घर घर में धार्मिक भाव ही जिनके प्राभूषण हैं ऐसे मानवरत्न निवास करते थे और वे विनम्रता की मूर्तिस्वरूप थे । वे अपनी धर्मपत्नियों को एवं अपनी सन्तानस्वरूप बाल-बच्चों को तथा परिचारक जनों को धर्म की राह पर चलने का उपदेश दिया करते थे ।। ३७ ।।
वहां प्रत्येक घर में ऐसा महिलामण्डल था जो उदारता के वरदान से विभूषित था। उनकी गोद प्यारे बाल-बच्चों से हरी भरी रहती थी। बच्चे भी उनके ऐसे थे जो उनके गले के हारस्वरूप थे अथवा जिनके कण्ठ हारों से शोभित थे ऐसे थे, तथा वे हार भी ऐसे थे जो देखनेवालों के नेत्रों को लुभाते थे ।। ३८ ।।
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वर्धमानम्पू
विशालणार सा वैशादी शोकनमा किलोका नमस्तलस्प शिसुरम्य सौधान्विता स्वां पश्यतां जनानामन्तःकरणं संभ्रान्तं त्रिधाति । सुधाधवलितबहिरन्तर्भागास्ते सौधा: सफलस्य सुधाप्रसूतेः सकलाः कलांशा इव प्रतिभान्ति । गवाक्षजालाङ्कित भव्य भिसयस्ते नक्षत्रमालाङ्कितनभः प्रवेशा किमिमे इत्यारेकां जनयन्ति पथिकानां विश्रामार्थमागतानाम् । तुषार शुभ्रोज्ज्वलकुड्य सालेन बृहदाकारेणावेष्टितामिमां चतुर्वद्गोपुरद्वारेण पातालतलान्निर्गतोऽहीशः कंचुकाव्य एव संरक्षति कि प्राकारच्छलेनेत्थंभूतामारेकां विवधती पश्यतामिपं विभाति ।
विशाल परकोटे से घिरी हुई उस बंशाली नगरी ने अपनी शोभा से देवताओं के निवासभूत स्वर्ग को भी तिरस्कृत कर दिया था। इसमें जो सोध -- धनपतियों के निवासभवन - या राजमहल थे वे नभस्तलस्पर्शीबहुत ऊंचे थे और सुरम्य थे। जो एक बार भी इस नगरी को देख लेता बह चकित हो जाता । समय-समय पर इन सौधों के भीतर बाहर सफेदी होती रहती । अतः ये चन्द्रमण्डल के सम्पूर्ण कलांश हैं क्या ?' ऐसा प्रतीत होता था । गवाक्षों - खिड़कियों से युक्त उन सोधपंक्तियों की दीवालें बाहर से आये हुए पथिकजनों के लिए ऐसा सन्देह उत्पन्न कर देती थीं कि ये सौधों की भित्तियां नहीं हैं किन्तु नक्षत्रमाला से अंकित ये नभ प्रदेश ही हैं । उस नगरी का जो विशाल कोट था वह तुषारपात से शुभ्र बना रहता था । प्राकार इसका बहुत बड़ा था | उस कोट से यह नगरी घिरी हुई थी। इसके बड़े-बड़े चार द्वार थे अतः देखनेवालों को ऐसी शंका हो जाती थी कि यह कोट नहीं है किन्तु कोट के छल से इस नगरी की रक्षा पाताल से निकलकर कंचुकी से प्रावृत हुआ शेषनाग हो कर रहा है।
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वर्धमानवम्पू:
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नयनाभिरामाणि धमकानां समुन्नतानि शरवभ्रशुभ्राणि वरभवनानि पतंगसंतापहृतये प्रयुक्तः प्रसारितातपत्ररिव ध्वजांशुकैविभाति, लसन्ति च यस्याम्सौधा मयङ्कोपललालितेलाः,
प्रोत्तुङ्गशृङ्गः परितः परोताः । विधूद्गमे मुक्तपयः प्रयाहाः,
हिमालयस्येव सुखण्डमालाः ॥ ३६ ।। लताप्रतानः प्रततप्रसूनर्जालोदगमर्यन्त्रचयरनेकः ।
पत्रत्रिपातोत्थचलत्तर: कुल्याकुलमा लगायः ४." विशोभिताऽऽक्रीडचयः सनाथाः पवित्रवृत्ताञ्चितदारवन्वाः । स्वर्गप्रदेशा इव ते मनोज्ञा लसन्ति सर्वसुखाः सचित्राः ।। ४१ ॥
वहां धनिकजनों के नयनों को लुभानेवाले श्रेष्ठ भवन थे । वे बड़े उन्नत थे । शरदकालीन बादलों के समान वे धवल थे । उन पर ध्वजाएँ फहराती थीं । अतः देखनेवालों को ऐसा ख्याल पाता था- 'सूर्य के संताप के भय से ही मानो इन भवनों ने अपने ऊपर इन ध्वजातों के बहाने से क्या छत्ते तान रखे हैं ?' यहां के इन सौधों की दीवारों में
. चन्द्रकान्तमणियां खचित थीं । इनके शिखर बड़े उन्नत थे । अतः जब रात्रि के समय चन्द्रमा का उदय होता तब इनसे पानी का प्रवाह झरने लगता । इसलिए ऐसा प्रतीत होने लगता कि ये सौध नहीं हैं, बल्कि हिमालय के खण्ड ही हैं ।। ३६ ।।
इन सौधों में बगीचे भी थे। उन बगीचों में छोटी-छोटी बनावटी नदियां भी थीं । जगह-जगह फव्वारे लगे हुए थे । उनसे जल निकलता रहता था। जब पक्षिगण जल पीने के लिए इन कूल्याओं के पास आते और उनके पंखों की हवा से इनमें चंचल तरंगें उड़तीं तब ऐसा लगता कि ये कहीं बाहर जाने के लिए मचल सी रही हैं । इन भवनों में रहनेवाली स्त्रियां पवित्र चालचलनवाली थीं । इन सौधों में सब ऋतुओं की सामग्री भरपुर थी, ये मनोज्ञ एवं पवित्र थे अतः ये स्वर्ग के प्रदेश जैसे प्रतीत होते थे ।। ४०-४१ ।।
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वर्धमानचम्पूः
कमनीयकषिताकामिनीकान्तकविप्रियास्तु अन्यन्ते यत्-- गृहाणि नेतान्यभितोऽ चलाङ्गाः,
भषारिमालाः कृतसभिश्वेषाः ।। विभुलोकोवलनेत्रभीनान्,
जिघृक्षयाऽतिष्ठन् यत्र तत्र ॥ ४२ ॥ चित्राषिताभिस्त्रिदशाङ्गनाभि
मनोऽस्य नीतं विकृतेन मार्गम् । का मेऽत्र गयेस्यवधार्य मुग्धा,
यत्राङ्गनाऽखिङ्गति न स्वकान्तम् ।। ४३ ॥
लावण्यतारुण्यभराषनम्राः,
कशासकान्ता तरलास्तरुण्यः । यत्र स्खलद्भिश्च पदैःप्रयान्स्यो,
___वहन्ति नो भूषरणभूरिभारम् ॥४४ ।।
कविता कामिनी के कान्त कविजन तो इस नगरी के उन सौधों को अपनी कल्पना में इस प्रकार चित्रित करते थे कि ये सौध नहीं हैं किन्तु अचल स्थिति में बैठे हुए बगुले हैं; जो कि देखनेवालों की नेत्रपंक्तिरूप मछलियों को पकड़ने के लिए इधर उधर दिखाई पड़ रहे हैं ।। ४२ ॥
इन भवनों में रहनेवाली मुग्धा नवोढाएँ अपने प्रिय पतिदेव का आलिङ्गन इस अभिप्राय से नहीं करती हैं कि ये चित्रगत देवाङ्गनाएँ ही जब इनके मन को विकृत बनाने में असफल हो रही हैं तो फिर हमारी क्या गिनती है ? ।। ४३ ।।
इनमें रहनेवाली तरुणियां भूषण इसलिए नहीं पहनती हैं कि जब हमसे लावण्य एवं तारुण्य का भार ही वहन नहीं होता है तो भूषणों का भार कैसे सहन हो सकेगा? ।। ४४ ।।
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वधमानचम्पू:
धर्यक्षमाशीलवयाप्रमोदमाध्यस्थमंत्र्यादिगुणा प्रमेया । कीडन्ति यासां हृदयेऽनुरक्ता मिथो विपक्षं परिमर्वयन्तः ॥ ४५ ॥ बग्धोऽपि यन्नेत्रसुधाब्धिमध्येऽ
वगाह्य मारः खलु पंचयाणः । भिनत्त्यसंस्थो हृदयं जनाना
मनेकशो यत्र स कामुकानाम् ॥ ४६ ।। प्रकृष्ट सौन्दर्यजुषो बलिष्ठाः,
साहित्यसंगीतकलाप्रवीणाः। प्रमाणमेयव्यवहारविज्ञाः,
पतिप्रियास्तन्वि! कयंन वंद्याः ।। ४७ ॥ मितव्ययेनाजितरिविक्षः
दानप्रदाने बहशो दधानाः । दाराश्च से तन्धि ! कथं न शस्याः,
मुक्तावलीचुम्बितचारुकंठाः ॥ ४८ ।।
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जिनके हृदय में परस्पर अनुरक्त हुए धैर्य, क्षमा, शील, दया, प्रमोद, माध्यस्थ एवं मैत्री आदि अनेक गुण अपने-अपने विपक्ष को मदित करते हुए सदा खेलते रहते हैं ।। ४५ ।।
जिनके नेत्ररूपी अमृत समुद्र में स्नान करके मृत हुआ कामदेव भी जहां उज्जीवित होकर अपने पांचवाणों द्वारा कामुकजनों के हृदय को विदारता रहता है ।। ४६ ॥
यहां का महिलामण्डल बलिष्ठ, सौन्दर्यस म्पन्न, साहित्य और संगीत. कला में प्रवीण, प्रमाणप्रमेयव्यवहार में निष्णात एवं पतिप्रिय था, अतः हे प्रिये ! वहां का जनमण्डल इसे पूज्य मानता था ।। ४७ ।।
यहां का महिलामण्डल इतना अधिक व्यवहारज्ञ था कि खर्च तो परिमित करता था और दान प्रदान करने के लिए खर्च में से बचाकर रखता था एवं समय समय पर दान आदि धार्मिक कार्यों में सहायक होता रहता था । इसी कारण पुण्यप्रभाव से लभ्य मुक्तावली–मोतियों की मालाएँइनके सुन्दर कण्ठों को चुम्बित करती रहती थीं ।। ४८ ।।
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कचेषु कार्यं च कुचेषु बाईयं, कटिप्रदेशेषु च नास्तिवादः ।
कटाक्षपातावसरेऽक्षियुग्मे,
परस्पर स्नेहनिबद्धचित्ताः
चेतोहरा
वर्धमानचम्पूः
विरागता तत्र परं न चित्ते ॥ ४६ ॥
बग्धस्मरोज्जीवन दृष्टिपाताः ।
कामकलाप्रवीणाः,
वीणास्वरास्ते च कथं न बंधाः ॥ ५० ॥
यदा च ते स्वाङ्गमनङ्गरङ्गोद्गमप्रसङ्ग ेन विभाव्य भग्नम् । जिघांसयायास्तसमस्तशंका समारभन्ते कदनं स्मरेण ।। ५१ ।।
यहां की महिलाओं के केवल केशों में ही कृष्णता थी, केवल कुचों में ही कठिनता थी, केवल कटिप्रदेश में ही नास्तिवाद था - - पतलापन था, और केवल कटाक्षपात के समय में ही विरागता - विशिष्टराग का हो जाना – था, पर इनके चित्त में कृष्णता आदि नहीं थीं । ४६ ।।
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यहां महिलाएँ आपस में हिलमिल कर रहती थीं । इनके दृष्टिपात में इतना बल था कि दग्ध हुआ कामदेव भी जीवित हो जाता था । इनका स्वर वीणा के स्वर समान था । घिस को लुभानेवाली ये महिलाएँ कामकला में बड़ी प्रवीण थीं ।। ५० ।।
जब कामदेव इन्हें परास्त करने के लिए उतार होता तो ये उसे नष्ट करने की इच्छा से उसके साथ युद्धरत हो जाती और उसे परास्त कर देती थीं ।। ५१ ।।
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धधंमानचम्पूः
मन्दकियान्दोलितशाटिककाञ्चलस्छलेन व्यजनं गृहीत्वा । रणे श्रमार्तान् श्लथगात्रवन्धान तान् वीक्ष्य पातं तनुते समीरः ॥ ५२ ॥
यत्र व निवसन्ति प्रतिदिशं रसिकावतंसा महोन्नतांसा दयादम स्यागमनोभिरामा रामान्विताः । येषां दुःखितक्याधिसानो पुरुषार्यविसानां प्रमोदमसानां चतुराणां सुक्तानां यशसाऽभिभूतं सुकृतं दासायते ।
__ पादौ यदीयौ परिचुम्थ्य या रजःकणरपि महy सुरत्नस्थानं प्रलभ्यते । सत्यं-पुण्यात्ममा संसर्गतो यदि जघन्योऽपि मान्यतायाः पदं लभेत नात्यद्भुतं किञ्चिवत्र ।
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जब समीर-वायुमण्डल-कामदेव के साथ हुए युद्ध से थकित शरीरवाला और शिथिल अंगोंवाला इस महिलामण्डल को देखता है तो वह अपनी मन्द-मन्द गति से इनकी शाटिका के अञ्चलरूप पंखे को हिला कर इस पर हवा करने लगता था ।। ५२ ।।
इस नगरी में प्रत्येक दिशा में अपनी-अपनी धर्मपत्नियों के साथ रसिकजन शिरोमणि महाजन जिनके स्कन्ध बलिष्ठ हैं और जिनका चित्त दया, दम एवं त्याग से सुशोभित होता रहता है, रहते हैं । गरीब दीन दुःखित प्राणियों पर जिनकी कृपा बरसती रहती है । पुरुषार्थ प्रधानी ये महाजन सदाचार से मंडित रहते हुए सदा प्रानन्दित रहते हैं । इनके यश के मागे पुण्य भी दास के जैसा बना रहता है ।
जिनके सुकुमार पादतलों को चुम्बित करके रजःकण भी जहां वेशकीमती रत्नों का स्थान प्राप्त कर लेते हैं । सच है पुण्यात्माओं के संसर्ग से यदि जघन्य पदार्थ भी मान्यता का स्थान ग्रहण कर लेता है तो इसमें भचरज की कोई बात नहीं है ।
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वर्धमान चम्पूः
यत्र च लब्धावकाशा जना सुदर्शनज्ञानवृत्तलध्यर्थं प्रयतन्तः सन्ततित्रिवतिशेष विधिप्रबन्धा भवन्ति । शिक्षयतीव येषामुरःस्थलराजितं रत्नत्रयात्मकं मात्यमन्येभ्य इध्येध्य इदमेव न भवत्यात्मतुष्टिरन्तरा रत्नत्रय रत्नवृन्दैः ।
42
यत्र च हरेः किशोरका इव किशोरकाः पण्यवीथ्यां रममाणा धूपासिंधूसरितोऽपि विलोभनीयाकृतयो भवन्ति । भवति च पथिकानां वृन्दः सुन्दराङ्गानिमान् परिवीक्ष्य रजोभिराच्छावित हीरका बीमिये मान् वाचामगोचर संतुष्टो मुदमाप्नोति ।
यत्र स्मशे ह्येव निपातहेतुः,
प्राणान्तकः पितृपतिश्च पाप्मा ।
भयप्रदश्चातक एवं यात्रा
परोऽस्ति पण्डो मन एव नान्यः ॥ ५३ ॥
जब यहां के निवासीजन फुरसत में होते हैं तो वे रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन श्रादि प्राप्त करने की चर्चा करते हैं और जब वे त्रिवर्ग की सिद्धिरूप ऋद्धि की वृद्धिवाले हो जाते हैं तो अपने-अपने कर्मों के बन्धन को शिथिल करने में जुट जाते हैं । रत्नत्रयरूप रत्नमाल से सुशोभित इनका वक्षःस्थल अन्य धनिक जनों के लिए यही शिक्षा देता है कि इन बनावटी रत्नों से आत्मा की तुष्टि होने वाली नहीं है । वह तो सम्यग्दर्शनादिरूप रत्नत्रय से हो होगी ।
जहां की गलियों में शेरों के बच्चों के जैसे बच्चे खेला करते हैं । यद्यपि उनका शरीर उस समय धूलिधूसरित होता है तथापि उनकी प्राकृति चित्त को लुभाने में कसर नहीं रखती है । पथिकजन जब वहां होकर निकलते हैं तब वे रजःकण से आच्छादित हीरकादि रत्नों की तरह इन बालकों को देखकर अनिर्वचनीय प्रह्लाद का अनुभव करने लगते है |
उस नगरी में पतन का कारण यदि कोई था तो वह कामदेव ही था । प्राणों का अपहरणकर्ता केवल यमराज ही था, भयदाता केवल पाप ही था । याचना करने में तत्पर केवल चातक ही था तथा मन ही नपुंसक
था ।। ५३ ।।
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वर्धमानत्रभू
द्वेषः परं मण्डलमंडलेषु, करेणुकंठीरवयो विरोधः ।
मियो विवादः प्रतिवावियावि, प्रवावकाले, न जनेषु तत्र ॥ ५४ ॥
यत्र च वृषभालाराधका अपि जना न वृषभाङ्काराधकाः, अजितानुयायिनोऽपि नाजितानुयायिनः, अभिनन्दनपक्षपातिनोऽपि नाभिनंदन पक्षपातिनः, पद्मोपासका अपि न पद्मोपासका गृहे गृहे दरीदृश्यन्ते । किमधिकं तत्र वक्तव्यम् । विरोधकर्माकुशला अपि न विरोधकर्मकुशलास्ते।
यदि वहां द्वेष था तो केवल कुत्तों में ही था । विरोध था तो वह सिंह और हाथी में ही था। प्रवाद-विवाद था तो वह केवल वादी और प्रतिवादियों में ही था । अन्यत्र प्रजाजनों में यह सब कुछ नहीं था।।५४।।
ऐसे ही मानव वहां पर प्रत्येक घर में दिखाई देते थे जो वृषभाङ्क के-आदिनाथ के-पाराधक होते हुए भी उनके पाराधक नहीं थे तो इसका परिहार ऐसा है कि वे वृषभाङ्क-महादेव के भाराधक नहीं थे । इसी तरह अजितानुयायो...अजिसनाथ प्रभु के अनुयायी होने पर भी वे अजितांनुयायी-शत्रु के पक्षपाती नहीं थे । अभिनन्दन प्रभु की मान्यतावाले होने पर भी चे अभिनन्दन के पक्षपाती नहीं थे अर्थात् अपनी मान, प्रतिष्ठा, सन्मान की लालसा रखनेवाले नहीं थे । पद्मोपासक होने पर भी-पद्मप्रभ की सेवा पूजा आदि करने में रत रहने पर भी वे पोपासक नहीं थे--पद्मा-लक्ष्मी की सेवा पूजा आदि को ही सब कुछ मानने-- वाले नहीं थे । और अब अधिक क्या कहा जावे ? वहां के निवासी मानवविरोधकर्म में अकुशल होने पर भी विरोध-पक्षियों को पिंजड़े प्रादि में रोककर रखनेरूप कार्य में कुशल नहीं थे ।
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वर्षमानसम्पू:
किञ्च-यस्य राज्ञः प्रचण्डदोर्दण्डभयेन पलायमानारिचमून क्वचिदपि क्षणमात्रं विभान्ति लेभे । यवीयरगण्यैः कर्पूरचन्द्रोज्ज्वलसगुणोघे वोऽन्तराले न ममे, अतस्तमक्षमन्येासवां सदसि निवासो
कारि । अम्भोनिधिर्यवीय गाम्भीर्यगुणं निरीक्ष्य बुजिक्षयव्याजेनानुमिमोमि स्वछ व्यक्ति।
महोपतेस्तस्य गुवों वदान्यतामुध्यां विलोक्य सुराधिपा अपि न ज्ञायतेऽस्माद् भूतलात् कवा दृष्टिपथं व्यतीताः । किन्नरगीतकोतर्यस्य भुजबलमाश्रित्य लक्ष्मीरचापि चलेति स्वापवावं माष्टं ललनेव वश्याऽभवत् ।
तस्मिन् महीमण्डलमिद्धशौर्ये,
महीपती शासति शासितारी। पक्षक्षति धरधोरणीषु,
निकुञ्जकुमेषु परागरागः ॥ ५५ ॥
उस नरेश के प्रचण्ड बाहुबल के भय से भागी हुई शत्रु की सेना क्षणमात्र भी कहीं पर शान्ति नहीं पाती थी। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि उसके कपूर एवं चन्द्र मण्डल के जैसे उज्ज्वल गुण जब इस भूमण्डल में नहीं समाये तब उन्हें रहने को स्थान देवों की सभा में ही मिला । नरेश के गाम्भीर्य गुण को देखकर समुद्र अब भी वृद्धि एवं क्षय के ब्याज से अपने कष्ट को स्पष्ट रूप से प्रकट करता रहता है । उस महीपाल की प्रथिवी में प्रसृत गुर्वी वदान्यता दानशीलता को देखकर कब कल्पवृक्ष इस भूतल से ओझल हो गये यह ज्ञात नहीं हो सका । किन्नर देवों के द्वारा जिसकी कीर्ति का गान किया गया है ऐसे उस नरेश के भुजबल का प्राश्रय पाकर "लक्ष्मी चंचला है" इस अपने अपवाद को परिमाजित करने के लिए ही मानो ललना के समान लक्ष्मी उसके निकट स्थिर रही ।
अपने शत्रदल को शासित करनेवाले एवं विशिष्ट पराक्रम शाली उस नरेश के शासनकाल में पर्वतों में ही पक्षक्षति थी मनुष्यों में पक्षक्षति नहीं थी। सब अपने-अपने पक्ष में सबल थे । निकुञ्ज-कूजों में ही पराग था मनुष्यों में पर का अपराध करने के प्रति राग नहीं था ।। ५५ ।।।
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वर्धमानचम्पू:
भवत्र तिर्मसगजेन्द्रपंक्ती,
मिलिन्दवृन्वेषु च कायॆमुग्रम् । पयोधरास्ये, जघनस्थलीषु,
नखक्षते वारुणिमंव यत्र ॥५६॥
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पराङ्गनालिगनपापतापात् क्षयी कलडी शशभून्न कोऽपि । सदागतिनगुणाहरी द्विल्पनिम्नल एव नान्यः ॥ ५७ ।।
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संदीपितेऽग्नाविव प्रबलप्रतापे यस्यास्तरकोधश्वालावली सोहुमशक्नुवन्नास्तच्छासनवारिमग्नाः सन्तोऽत्यर्थमसून वसूनि ध ररक्षः।
मदोन्मत्त हाथियों में ही मद का बहाव था, मनुष्यों में मद-घमण्डनहीं था । भ्रमरों में एवं पयोधरों के अग्रभाग में ही कालापन था, मनुष्यों के रूप में कालापन नहीं था । जघनस्थली एवं नखक्षतों में ही ललाई थी, मनुष्यों में ललाई-क्रोध के आवेश में आनेवाली लालिमा नहीं अासी थी ।। ५६ ।।
परस्त्री के आलिङ्गन करने के ताप से चन्द्रमा ही क्षयीकलाओं की हीनतावाला था और कलङ्गी-दोषवाला था, कोई और जन वहां दोषवाला और क्षयरोग से ग्रस्त नहीं था । गंधगण की चोरी करने के कारण वायु ही विरूपमूलिवाला और चल स्वभाववाला था, प्रजाजनों में न कोई विकृत शरीरवाला था और न कोई चंचल स्वभाववाला ही था ।
नरेगा का प्रताप अग्नि के जैसा जाज्वल्यमान रहता था, इसलिए उसके शत्रुजन उसकी क्रोधरूपी ज्वाला को सहन करने में सर्वथा असमर्थ थे, अतः वे उसके शासनरूपी जल में निमग्न रहकर ही अपने प्राणों की रक्षा और द्रव्य की सम्भाल करते रहते थे।
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वर्धमानचम्पूः
___ सरिक्रयाचारविशुद्धबुद्धि हियाञ्चितां स्मेरमुखी सखोजनः सेवितपार्श्वभागां स्वप्रियां त्रिशलामसौ निधि चक्रीय निरीक्ष्य परं सौमनस्यावात्मानं कृतकृत्यं मन्यते स्म । सापि सुभ्रक्लिासलासंहस्मिन्दस्मितर्भावणश्च वसुंधराधिपस्य तस्य चित्तं हरति स्म । काम निधानमिवास्याः कलेवरं चौवारिकाभ्यामिव तत्पृथस्तनाभ्यां वप्रायमाच्या च काऊच्या सततं संरक्ष्यते स्म ।
बिम्बाधरोष्ठोत्पललोचनश्रीः,
रंभोरजघनस्थलमावहन्ती । यशागतिः सिंहकटिमरेन्द्र,
सा कंबुकंठी स्ववशं निनाय ।। ५८ ।।
इस नरेश की धर्मपत्नी त्रिशला महारानी सस्क्रियाचार से विशुद्ध बुद्धिशालिनी थी। नारी के गुणस्वरूप लज्जा से विभूषित वह सदा हँसमुख रहती, सखीजन इसकी निकटता नहीं छोड़तीं। अपनी इस प्रियपत्नी को जब नरेश देखता तो चक्रवर्ती जैसे अपनी निधियों को देखने से आनन्दित होता और अपने आपको बड़ा भाग्यशाली मानता है, उसी तरह यह नरेश भी अपने जीवन को सफल और श्रेष्ठ मानता था । त्रिशला भी अपने प्रिय पतिदेव के चित्त को सुश्रुषों के विलासों से, हास्य से, मुसकान से एवं मनोहर वचनालापों से प्रसन्न रखती थी । त्रिशला का शरीर कामदेव का निधान जैसा था । द्वारपाल के समान दो विस्तृत वक्षोज इसकी रक्षा में सतत निरत रहते थे एवं काञ्चीदाम... परकोटे के समान बाहरी अाक्रमणों से इसे सुरक्षित रखता था ।
बिम्बाफल जैसे प्रोष्ठोंवाली, कमल जैसे लोचनोंवाली, केले के स्तम्भ जैसे जघनस्थलवाली, सिंह की कटि जैसी कमरवाली एवं शंख जैसी ग्रीवावाली उस त्रिशला महिषी ने सिद्धार्थ नरेश की अपने ऊपर अनुपम कृपा प्राप्त कर ली थी ।। ५८ ।।
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वर्षमान चम्पूः
कचावलीचंचलचञ्चरीका,
दन्तोद्गमा विस्तृतबाहुशाखा । पोनस्तनश्रेष्ठफलाकिताना,
विभाति सा जंगमवल्लरीय ॥५६॥
विद्वत्तरावाप्तसमस्तविद्या,
सा भूपतेः प्रोणिसपोष्यवर्गा। श्रेयस्तरापास्तसमस्तदोषा,
बभूव मंत्रीव सुराज्यकायें ॥ ६० ॥
चन्द्रानना पत्रितचारुकुम्भ-,
स्तनान्जग्रीवाऽस्य मनोहरन्ती । सा कोफिलालापनिभाल्पजल्पा,
बभूव पुण्याग्धिफला नपस्य ॥ ६१ ।।
त्रिशला एक जंगमलता-चलती-फिरती बेल- जैसी शोभित होती थी। कचावली इस पर चंचल भ्रमर थे। दांत ही इसके पुष्प थे, विस्तृत बाहुएँ ही इसकी शाखाएँ थीं एवं पुष्ट स्तन ही इसके फल थे ॥ ५६ ।।
यह बड़ी विदुषी थी । अपने प्राश्रितजनों पर विशेषकर दासी-दासों पर बड़ी दयावत्ती बनी रहती थी । स्वयं भी मंगलस्वरूप और निर्दोष थी।
सिद्धार्थ नरेश अपनी इस प्यारी महिषी को अपने पुण्यरूपी समुद्र के फलस्वरूप मानतेथे । चन्द्रमा जैसा इसका मुखमण्डल था । चित्रित दुम्भ जैसे इसके स्तन थे, शंख जैसी इसकी ग्रीवा थी और कोफिल 'सी सुहावनी इसकी अल्पमात्रा में बोली गई वाणी थी ।। ६१ ।।
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वर्धमानचम्मूः
सा शारदीयाम्बरकान्तिकान्ता,
सर्वेन्द्रियाणाममितं प्रसौख्यम् । समर्पयन्ती स्वविलासमावं,
रजायतास्याभिमसा मुगाक्षी ।। ६२ ॥
केशेयु कार्षण्यं च तनौ तनुत्व,
मधस्तनरवं नमु नामिबिम्बे । भ्र बोश्च बकत्वमपि प्रयाणे,
सा भविमानं वधसी रराज ॥६३ ॥
यस्या उरोजो कठिनी न वाणी,
पायो म मन्दगति नं पाणी। मंघे च पौने न वपुर्यवीयं,
नेत्र चले नैव मनो मुगाक्ष्याः ॥ ६४ ।।
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नरेश की प्रत्येक इच्छा की पूर्ति वह महिषी किया करती थी। इसकी शारीरिक कान्ति शरदकालीन अम्बर जैसी थी। वह अपने हावभावों द्वारा अपने पतिदेव के मन को अनुरंजित करने में बड़ी दक्ष थी, इसलिए नरेश को वह बहुत ही अधिक प्यारी थी ।। ६२ ।।
यद्यपि त्रिशला के केशों में कालापन था, शरीर में तनुता थी, नाभि में अधस्तनता थी, भ्रू में वक्रता थी, और गति में मंदता थी, फिर भी वह बड़ी सुहावनी लगती थी ।। ६३ ।।
इसके दोनों उरोज ही कठिन थे, वाणी कठोर नहीं थी । चरण मृदु-कोमल थे, हाथ कोमल नहीं थे, क्योंकि दान देने से वे कठोर बन चुके थे । स्थूल-पुष्ट-जंघाएँ थीं, शरीर स्थूल नहीं था। नेत्र ही चंचल थे, मन चंचल नहीं था ।। ६४ ।।
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वर्धमानचम्मू:
कृष्णाः कधा नान्यगुणाश्च मन्दा,
गति न बुद्धि ननु नाभिग” । नीचो, न वृत्तं कुटिलालकालिः,
वृत्तिर्न सद्भावधि निमितायाः॥ ६५ ॥ गत्या विसज्जीकृतहंसवामां शीलनाधस्कृतविष्णुवामां स्वरेणन्य. पकृतकेकिकान्तां स्वरूपतस्तजितकाममामा तामवामां वामां लगाया नृपालमौलिः सिद्धार्थः स्वात्मानं सिद्धार्थ मन्यमानोऽखिलेन्द्रियग्रामसुखस्य लाभावाखंडसमपि तृणाय मन्यते स्म । ऋतमेतद्यत् पुण्यादते नैव कदापि कस्यापि मनोरथातीतशातावाप्तिर्जायते ।
इरपं सौख्यपयोधिमग्नमनसो नित्योत्सवानन्दिनः, कृत्याकृत्यविचारचारुचतुरां तां शेमुषों बिभ्रतः । नीत्या भ्रष्टाविपक्षकक्षदहनस्यायत्तपृथ्वीमुजः शुद्धाचारबलान्वितस्य विवसायान्त्यस्य मोदप्रदाः ।। ६६ ।।
इसके बालों में ही कालापन था, अन्य गुणों में नहीं । गति में ही धीमापन था, बुद्धि में नहीं । नाभिमण्डल में ही नीचे की ओर झुकाव था, चाल-चलन में नहीं । केशों की पंक्ति ही कुटिल थी, वृत्ति नहीं क्योंकि सद्भावों द्वारा ही इसका निर्माण हुआ था । ६५ ।।।
हंसिनी भी जिसकी गति के प्रागे लजाती थी । शील के प्रागे विष्णु की धर्मपत्नी, स्वरके प्रागे कोकिल और रूप सम्पत्ति के प्रागे कामदेवकी पत्नी रति भी फीकी लगती थी। ऐसी उस अप्रतिकुल आचरणवाली त्रिशला को पाकर नपालौलि सिद्धार्थ यथार्थरूप में अपने पापको सिद्धार्थ मानता था । समस्त इन्द्रिमसुख उसे प्राप्त थे अत: इन्द्र को भी वह नगण्य गिनता था । सत्य है पुण्य के बिना किसी को भी मनोरथातीत सुखों का लाभ नहीं होता।
इस प्रकार सुख सागर में मग्न हुए उस नरेश का चित्त नित्य होनेवाले धार्मिक उत्सवों से प्रमुदित रहता था । कृत्य और प्रकृत्य के परखने में पैनी बुद्धिवाले उस नृपालतिलक के विपक्षों के सर्वथा शाम्त होजाने के कारण दिवस निश्चिन्ततापूर्वक निकलने लगे ।। ६६ ।।
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वर्धमानचम्पू:
भुक्तेऽरीन् प्रबलान् गजानिय हरिः प्रोन्मूल्य शानिय,
वंशाली मगधस्थितां वसुमतौं लक्ष्मीमिवाहन नृपः। तीबालापसुतप्तविक्षु वसुमृद्भभुद्गणाः प्राङ्गणम्,
त्यक्त्वा नव ययु विलोक्य भयतः शार्दूलविक्रीडितम् ॥ ६७ ॥
यस्य ज्ञानमयों महोदयमयी घड्वर्शनोद्घोधिकाम्,
सद्भावः समलक कृतां सुखपथप्रस्थापिका निर्मलाम् । मूर्ति वीक्ष्य सरस्वती भगवती यं दारकत्वेन वे,
लीले भगत स पेगमगुगो विद्यागुरूः श्रेयसे ।। ६८ ॥
जिस प्रकार प्रबल गजों को एक अकेला सिंह दबा देता है उन्हें नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सिद्धार्थ ने भी शंकु के जैसे अपने शत्रुओं को दबा दिया-उखाड़ दिया तथा जिस प्रकार अर्हन्तप्रभु अन्तरंग एवं बहिरंग लक्ष्मी का भोग करते हैं उसी प्रकार सिद्धार्थ नरेश ने भी मगधस्थित वैशाली का शासन किया। उस समय इनके तीव्र ताप से तप्त दिग्मण्डल में इनका शार्दूल जैसा प्रभावशाली क्रीडन देखकर भय के मारे शत्रुनों ने अपने घर का प्राङ्गण नहीं छोड़ा-अर्थात् वे अपने अपने स्थानों को छोड़कर बाहर नहीं गये ।। ६७ ।।
जिनको ज्ञानमत्री, महोदयवती एवं सद्भावों से प्रोतप्रोत मूति को देखकर सरस्वती ने जिन्हें अपना पुत्र माना और इसी कारण जिनके भीतर षड्दर्शनों का ज्ञान--रहस्य-उसने उंडेल दिया ऐसे वे मेरे विद्यागुरु जिनकी निर्मल मूति शिष्यमण्डली को सुखकारी मार्ग पर चलने का उपदेश देती थी, (अम्बासदासशास्त्री) जिनके गुणों की अभी तक उपमा नहीं मिलती मेरे कल्याणकारी हों ।। ६ ।।
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वर्धमानम्पू
खुश्शालचन्द्रजनकेन विनिर्मितेऽस्मिन् श्रीमूलचन्द्र - विदुषा श्राद्यो गतः स्तवक एष मनोमुवे स्यात्,
मनवावरेण ।
स्थगं गतस्य जननीजनकस्य तावत् ।। ६६ ॥
इति वर्धमानवप्रबन्धे प्रथमः स्तबकः समाप्तः
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·
खुशालचन्द्र के पिता मनवादेवी के पति मूलचन्द्र पण्डित के द्वारा विरचित वर्धमान चम्प्रप्रबन्ध का यह प्रथम स्तबक समाप्त हुआ । दिबंगत मेरे जननी जनक के लिए यह मानन्दकर्ता हो ।। ६६ ।।
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द्वितीय स्तबकः
जननीत्रिशलाजठरे न्ययसच्छुत्तों यथा च खलु मुक्ता । कुर्यात् स शेमुषों मे शुद्धां गुण्यां च वद्धिष्णुम् ॥१॥
यस्यावतारप्रभवप्रभावात् सिद्धार्थभूपालगृहे पपात । सार्वत्रिकोटोप्रमिता सुष्टिनमस्तलाद् रत्नमयी तमोडे ॥२॥
स श्रीवीरो गुणमणिधनी यो न लक्ष्माच्चचाल,
रुद्धः स्निग्धजनकजननोमोहजन्य पंचोभिः । द्रोद्भूतैः प्रबलपरुषस्तैश्च तैर्वोपसर्ग
नोंदिग्नो यो विशवविशदां शेमुषी विदध्यात् ॥३॥
जिस प्रकार शक्ति में मोती रहता है उसी प्रकार वीरप्रभ भी त्रिशलामाता के गर्भ में रहे । ऐसे वे वीरप्रभु मेरी बुद्धि को पवित्र करें, एवं गुणी पुरुषों द्वारा आदरणीय बनावें तथा उस प्रतिभाशालिनी करें ।। १ ।।
जब प्रभु देवलोक से च्युत होकर त्रिशलामाता के गर्भ में आये तब उसके प्रभाव से सिद्धार्थ नरेश के राजमहल में साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा एक-एक बार (१५ माह तक) आकाश से तीन बार हुई। ऐसे प्रभावशाली वीर प्रभु की मैं स्तुति करता हूँ ।। २ ।।
प्रभु गुणरूपी मणियों के धनी है—सच्चे जोहरी हैं । जब प्रभु राजमहल का परित्याग कर तपोवन को जाने के लिए उद्यमी हुए तब माता-पिता ने ममताभरे स्निग्ध वचनों द्वारा उन्हें समझाया-रोका, पर वे अपने लक्ष्य से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए । उज्जैनी नगरी के अतिमुक्तक बन में रुद्र ने इन पर भयंकर से भयंकर उपसर्ग किये, पर वे उनसे भी चलायमान नहीं हुए-अपनी तपस्या में स्थिर रहे । ऐसे वे वीरप्रभु मेरी बुद्धि को अतिविशद करें ।। ३ ।।
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वर्धमानचम्पूः
श्रथ वैभवशालायामिव तस्यां कीर्तिमालायामिय विशालायां वंशाल्यां जगज्जनकुराशिषेव तस्मिन् कराले ग्रीष्मकाले कालक्रमेण दिवंगते तत्क्षणमेव प्रकर्षहर्षोत्कर्षोन्मत्तनिखिलप्राणिभिविहितस्थागतः वर्षाकालः । प्राणनाथविरहात् पतिव्रताया इव वसन्तवियोगान्मनी— भूतायाः पृथिव्याः प्रभाविहीनत्वं प्रविलोक्याशावयस्था घनापदेशात्रीलाब्जायेत तत्प्रमोदार्थ वितेनः । संयोगतविस्फुलिया इव निरालयमा व्योम्नः पतितानि नक्षत्राण्येवेतस्ततः स्वधीतच्छद्मना aar विविधुतिरे । अन्यपुष्टो मौनी बभूव । दर्दुराशवैर्महीमण्डल वर्षाकालाभिनंदनं चकार । बभार च शष्पांकुर व्याजेन क्षोणीतदागमोत्थं हर्बोत्कर्षं । कालेऽस्मिन् मुनिजननिरुद्धं गमनागमनं स्वमर्यादीभूतक्षेत्रक्षेत्रान्तरे, विहिताचैकत्र तत्समाप्तिपर्यन्तं स्थिरा स्वसंस्थितिरतः । जनताऽपि धर्मध्यानतत्परा तदा विशेषतः समजायत ।
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वैभव की शाला जैसी उस वैशाली नगरी में जो कीर्तिरूप माला जैसी विशाल श्री वर्षा ऋतु का शुभागमन हुआ। जगज्जन के मानो दुराशीप से ही उस भयंकर ग्रीष्मकाल का कालक्रम के अनुसार अन्त हुआ। ऐसी स्थिति के होते ही समस्त जन प्रत्यधिक आनन्द से नात्र उठे । उन्होंने हर्षविभोर होकर वर्षाऋतु का स्वागत किया । जब दियारूप सखियों ने अपनी सहेली पृथिवी को प्रभाविहीन एवं वसन्त के वियोग से अनमनी देखा तो उन्होंने उसके मनोविनोद के लिए मानो नीलकमल के जैसे मेघों को आकाश में बखेर दिया । जिस प्रकार धन से ताहित होने पर प्रत्यन्त तप्त हुए लोहे के गोले से स्फुलिङ्ग निकलकर इधर उधर बिखर करके गिरजाते हैं, ठीक उसी प्रकार उस समय रात्रि में चमकती हुई जुगुनियों को देखकर ऐसा लगता था कि निरालम्ब होने के कारण ये आकाश से गिरे हुए तारे ही इधर उधर चमक रहे हैं। इस समय कोयल ने मौन धारण कर लिया । मण्डल ने बोलते हुए मेहकों की ध्वनि से ही मानो वर्षाकाल का अभिनन्दन किया | पृथ्वीमण्डल ने उद्भुत हुए दूर्वाकुर के ब्याज से मानो वर्षाऋतु के आगमन से उत्पन्न हुए अपने प्रकर्ष हर्ष को प्रकट किया । मुनिजनों ने अपना विहार - स्त्रमर्यादीकृतक्षेत्र मे क्षेत्रान्तर में आना-जाना बन्द कर दिया । एवं वर्षाकाल की समाप्ति होने तक एक ही स्थान में रहने का योग -- वर्षायोग - धारण किया। जनता भी सावधान होकर धर्मध्यान करने में तत्पर हो गई ।
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बंर्धमानचम्पू:
परस्परस्नेहनितद्धचित्ताविमौत्रतो दानपि धर्मकृत्यम । संभूय हर्षाञ्चितकाययष्टी असे विष्णतां हितकाम्ययंव ॥४॥
एकस्मिनहनि सा त्रिशला निशायामाषाढमासस्य शुक्लायो षष्ठ्या तिथौ हस्तनक्षत्रेण समन्वितायां स्वकोयनन्द्यावर्तनाम्नि राजभवने हंसतूलसमन्विते पत्यके प्रमोदमग्नासती शेते स्म । सार्वर्तुकसुखावहे तस्मिन् भवने द्वयोः पार्श्वयोर्लोहिताक्षमयबिम्बोको तपनीयगंडोपधानकलितां सालिंगनवतिकामुपचितदुकूलपरिच्छिन्नां शय्यामधिशयाना निद्रावती क्षणदाया अन्तिमयामे शिवानुदारानिमान् हितकरान् षोडशस्वप्नान् प्राभातिके मारते वाति ददर्श । तद्यथा--करिपतिः १, वृषभः २, केशरी ३, लक्ष्मीः ४, मालायुग्मम् ५, शशाङ्क: ६, अर्यमा ७, झषयुगलम् ८, सलिल
पारस्परिक स्नेह से जिनका चित्त अनुरक्त हो रहा है ऐसे उन सिद्धार्थ और त्रिशला ने भी बड़े हर्ष के साथ मांगलिक कामना से ही धामिक कायों की आराधना में एक साथ अपना योगदान दिया ।।४॥
एक दिवस की बात है जब त्रिशला निश्चित होकर प्रानन्द के साथ अपने नंद्यावर्तनामक राजमहल में गद्दे त किये से सुसज्जित कोपल पलंग पर सो रही थी, तब उसने रात्रि के अन्तिम पहर में सोलह स्वप्न देखे। यह दिन प्रासाढशुक्ला षष्ठी तिथि का था । हस्तनक्षत्र का योग था । पलंग पर झूल पड़ी थी। गद्दे के ऊपर जो आस्तरण बिछा था उसके प्राजू बाजू के कोनों पर मरकत मणियों की झालरें लटक रहीं थीं । तकियों की खोलियां तपनीय सुवर्ण की जैसी प्राभावाली थीं । नंद्यावर्त भवन सर्वऋतुओं के प्रानन्द को देनेवाला था । स्वप्नाबलोकन के समय त्रिशला गहरी नींद में नहीं सो रही थी । अल्प निद्रावती थीं।
वे स्वप्न इस प्रकार हैं-(१) गजराज, (२) बैल, (३) सिंह, (४) लक्ष्मी, (५) दो माला, (६) चन्द्रमा, (७) सूर्य, (८) दो मछलियां,
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वर्धमानचम्प: मरितः सौर्णिकः कुंभः ९, तडागः १०, समुद्रः ११, हर्यासनम् १२, वेबविमानम् १३, धरणेन्द्रभवनम् १४, रत्नराशिः १५, धूमविजितो धमध्वजश्च १६
तदनन्तरं पूर्वदिशि रक्ताशोकपर्णाभा संध्योदगात् । पश्चिमाशे हताशे ! त्वय्यनुरागादेवाहं यावन्नक्त रविसुतविरहिता बभूवेत्थं शुकशावकाधारायच्छमना पुरन्दराशा तामुपासमं दातुमिव कोपारणा संजाला।
प्राविरासीद् रवी राशि तमसः स्वोत्करैः करैः । धुन्धत्, भासयन् विषयान् काष्ठा प्रष्ट प्रकाशयन् ॥५॥
-.
(६) जल से भरा हुआ सुबणं कलश, (१०) तालाब, (११) समुद्र, (१२) सिंहासन, (१३) देव विमान, (१४) धरणेन्द्र भवन, (१५) रलराशि और (१६) निर्धूम अग्नि ।
इसके बाद पूर्व दिशा में रक्त अशोक के पत्र के वर्ण जैसी संध्या प्रकट हुई। "मेरी प्राशानों पर पानी फेर देनेवाली हे पश्चिम दिशा ! तूने मेरे बेटे को अपने ऊपर अनुराग सम्पन्न कर अपने पास रखा लिया, अतः मैं अपने प्यारे-लाडले-लाल से रात भर विरहित रही" ऐसा उलाहना शुक शावक प्रादि परिन्दों की चहचहाहट के छद्म से मानो पश्चिम दिशा को देने के लिए ही पूर्व दिशा क्रोध के प्रावेश से लाल हो गई।
अपनी तीक्ष्णकिरणों से अंधेरे को चकनाचूर करते हुए घटपटादि पदार्थों को प्रकाशित करते हुए और आठों दिशाओं के मुख को उज्ज्वल करते हुए सूर्य का उदय हुमा ।। ५ ।।
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वधमानचम्पूः
भाति नियं गन्द मीमालोतराशयः । अथवा तद्गृहस्यायं विद्युद्दीपो महोज्यसः॥६॥
कच्चिदाकाशगंगाया सप्तर्षीणां कराच्युतः । पङ्कजः पतितो मेघपथस्य पथि भास्करः ॥७॥
यद्वायं व्योमरामाया अभिरामोऽस्ति कंदुकः । विशासोमन्तिनीसीमन्तस्य सिन्दूरपिपिडकर ॥॥
प्रजकारागृहे तम्या ये क्षिप्तास्छषिचौर्यतः । राजा मुक्ता मिलिन्दास्ते तं स्तुवन्तीह झंकृतः ॥६॥
अपनी आभा से सूर्य ऐसा प्रतीत होता था मानो वह पूर्व दिशा रूपी नवेली नारी को लाल रंग की अोढने की चूनरी ही है या उसके भवन का वह १००० वाट का बिजली का बल्ब ही है 11 ६ ।।
अथवा-सप्तर्षियों के हाथ से आकाशमार्ग में गिरा हुआ यह कान्तिमान आकाशगंगा का कमल ही है ।। ७ ।।
अथवा -पाकाशरूपी नायिका की खेलने की गेन्द है ? या दिशारूपी सोमन्तिनी की मांग भरने की सिन्दूर की डिबिया है ।। ८ ।।
अपनी कान्ति की चोरी करने के कारण रात्रिरूपी नायिका ने भौंरों को कमलरूपी कारागृह में रातभर बन्द रखा, अब सूर्य के उदय होने पर वे उस कारागृह से मुक्त होकर मानो अपने मुक्तिदाता सूर्य की भनभनाहट के छल से स्तुति करने में तल्लोन हो गये हैं ।। ६ ।।
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वर्धमामचम्पू:
पंकजा ये प्रसुप्तास्तेऽधुना बुद्धा इवानतिम् । प्रकम्पिताः समीरेण कुर्वन्तीह स्ववन्धवे ॥१०॥
पराकीयं चकोरी पानाथा रात्रिमसेवत । तज्जन्ममहसा संषा प्रातः स्वेशं समाप द्राक् ॥११॥
महिषीयं हरेराशा वारुणी प्रति शरसती । स्वसौभाग्यमनौपम्यं वक्ति रव्युदयाठलात् ॥ १२ ॥
वारणी भजतः कस्य पतनं नाभवद्भुवि । शिक्षामिमां विधातुं हि रविरुदयमागतः ॥ १३ ॥
जो कमल तालाब में सूर्यास्त के बाद मुकलित हो गये थे बे अब सूर्योदय होने पर खिल गये हैं और मन्द मन्द मलयानिल से वे प्रकम्पित हो रहे हैं इससे ऐसा आभास होता है कि मानो वे अपने बन्धुरूपी सूर्य को नमस्कार ही कर रहे हैं ।। १० ।।
बिना नाथ की हुई इस चकोरी ने रात्रि की सेवा करने से जो पुण्य कमाया उसी का उसे यह फल मिला कि सूर्योदय होते ही उसे अपने प्राणनाथ का प्यार मिल गया ।। ११॥
यह पूर्व दिशा जो कि इन्द्र की महिषी है—रवि के उदय के बहाने से---मिस से-मानो वारुणी दिशा से--पश्चिम दिशा से अपना प्रसाधारण सौभाग्य ही प्रकट कर रही है ।। १२ ।।
__ "जिन्होंने वारुणी-शराब या पश्चिम दिशा की सेवा की उनमें से इस संसार में ऐसा कौन व्यक्ति बचा है जिसका पतन नहीं हुमा हो” मानो जगज्जन को ऐसी ही शिक्षा देने के लिए जब सूर्य उदित हुमा ।। १३ ।।
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वर्धमानमभ्यूः
दिवानाथेन मे पत्नी निशा नीता दिवं हहा ! सद्विनरहं कथं प्राणान् बधे चास्तंगतः शशी ॥ १४ ॥
ऋच्छपुष्पावकीर्णे च नमस्तपे महत्तरे । या शितम्योरभूत् के लिम्लनास्ताराश्च मर्दनात् ।।१५।।
जातमधुनेषियोगतः ।
कैरवाणां कुलं विनिद्रितं न तद्भाति गृहीतं किन्तु मूच्छंया ॥१६॥
सरोजानां प्रमोदोऽभूत् स्वबन्धोरवलोकनात् । रीतिः सांसारिकीषा कस्य न स्वजनः प्रियः ॥ १७ ॥
तब चन्द्रमण्डल मानो इस ख्याल से ही अस्तंगत हो गया कि जब सूर्य ने मेरी पत्नी रात्रि को ही विनष्ट कर दिया है तो अब उसके बिना मेरा जोना भी असम्भव है ।। १४ ।
प्रकाशरूपी विस्तृत पलंग पर पर जिस पर तारिकावली रूपी फूलों की सेज बिछी हुई थी, चन्द्रमण्डल और रात्रि दोनों ने कामक्रीड़ा की अतः उनके संमर्दन से ही मानो तारिकावलीरूपी पुष्प भी म्लान हो गये ।।१५।।
उधर रात्रिविकासी कैरवों का समूह भी अपने स्वामी चन्द्रबिम्ब के वियोग से मुकलित हो गया, वह देखनेवालों को ऐसा प्रतीत होता था मानो उसे मूर्छा ने ही घर दवाया हो ।। १६ ।।
इधर कमलों को अपने बन्धु सूर्य के दर्शन होते ही महान् हर्ष हुमा अर्थात् वे खिल गये । संसार की रीति भी ऐसी ही है कि अपने इष्टं बन्धु के प्रवलोकन से प्रानन्द का सागर हिलोरे लेने लग जाता है ।। १७ ।।
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वर्धमानचम्पूः
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अक्षणोः पदम समुद्घाट्य प्रभातमाकलब्य च ।
समुत्सृज्य प्रियाङ्कच पल्य' विजर्जनाः ॥१८॥ सहस्रकरमालिनि भगवति भास्करे उदयाचलशिखरमधिरूढे सतितावन्महीपालकमन्दिरान्तः,
प्रायोधिकाः पेठरुपेत्य गीतिम् । मनोजकंठध्वनिभिगंभोरेः,
प्रबोधनार्थ सुमतेमहिष्याः ॥१६॥
विभावरी देवि ! गताऽऽगता था,
प्रभातवेला, त्वमिहोस्थितास्याः । निद्रां च तन्द्रांक शम्या,
प्रभातकृत्यं पर चारनेत्रे ॥२०॥
मानव समाज ने जब अांखों की पलकों को खोलकर देखा कि प्रातः काल हो गया है तो उन्होंने उसी समय अपनी प्रिया के अङ्क को और पलंग को एक साथ छोड़ दिया ।। १८ ।।
___ इतने में सहस्र किरणालि परिमण्डित सूर्य-मण्डल उदयाचल पर्वत पर उदित हो गया।
सूर्य के उदित होते ही स्तुतिपाठकजन राजमन्दिर के प्राङ्गण में पाकर उपस्थित हो गये और मनोमुग्ध करनेवाली कंठध्वनि से मनोरंजक गीतों के द्वारा सुमतिशालिनी महिषी त्रिशला को जगाने लगे ।। १६ ।।
हे देवि ! रात्रि समाप्त हो चुकी है, प्रभात का समय हो गया है । अब पाप उठिये और निद्रा एवं तन्द्रा का परिहार कर शय्या का परित्याग कर दीजिये । हे चारुने ! यह समय प्राभातिक क्रियानों के करने का है अतः उन्हें कीजिये ।। २० ।।
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वर्धमानचम्मः द्वारिस्थितां भाविरविप्रतापात्,
प्रस्तां शरण्ये ! शरणार्थिनीयम् । विरौति संध्या कलहंसनादः,
कपाटमुद्घाट्य वीक्ष्य चैनाम् ।।२१॥ कलङ्कमुक्तं मुखचन्द्रषि
निरीक्ष्य संणाङ्कमयबिम्बात् । श्रीनिर्गता त्राश्रयणाय नूनं,
करोति याचाभुररीकुरुष्व ॥२२॥
कुमुदती कान्तवियोगतान्ता,
सतीव्रतं पालयितुं प्रवृत्ताम् । संध्यारणाग्नौ विशती विमुग्धा,
विलोकयनां दलशुभ्रवस्त्राम् ॥२३॥
है शरण्ये ! यह संध्या धीरे-धीरे तीक्ष्ण किरणों से तपनेवाले सूर्य के याताप से डर कर आपकी शरण में शरणाथिनी बनकर प्रायी है और यह आपके महल के द्वार पर खड़ी हुई कलहसों की चहाहाहट के छल से मानो रो रही है । अतः प्राप शयन कक्ष के कपाट खोलकर इसे देखें ।।२१।।
हे देवि ! कलङ्कविहीन प्रापकै मुत्रचन्द्र को लक्ष्मी सकलंक चन्द्र-- बिम्ब से निकल कर आपका सहारा लेने के लिए प्रार्थना कर रही है, अतः काप उसकी प्रार्थना स्वीकार करें।। २२ ।।
हे देवि ! देखो कान्त के वियोग से दुःखित हुई—बिलकुल मुरझाई हुई यह कुमुदती सतीनत को पालन करने के लिए कमलपत्ररूप शुभ्रवस्त्रों को धारण कर कटिबद्ध हो रही है । अतः संध्याकालीन लालिमा रूपी अग्नि में प्रवेश करती हुई इसे आप देखें ।। २३ ।।
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गर्धमानचम्यूः
भ्रमनिमलिन्द ध्वनिनाऽवगम्य,
मृणालिनों फुल्लमुखारविन्दाम् । रवेः प्रियस्यागमनं सरोग्य,
नेतुं गतां पश्य नु पाद्यमंभः ॥ २४ ॥
सा पदमिनी पदमपुरे विधुत्य,
परागरागं ालिने ददाति । पतिव्रताः स्येष्टसमागमेन,
कुर्वन्ति राजीवमुखे नु दानम् ।। २५ ॥
अहो ! प्राभातिकोऽयं कालः कियानस्ति सुरम्यो यस्मिन् प्रणिद्रया प्रान्तं शानं स्वस्थं प्रजायते । कर्णानन्वप्रचः शकुन्तानां रवो दिशि दिशि श्रूयते । अतः प्रतीयते तच्छलास परस्परं रात्रिसूखासिकां प्रच्छन्ति । धृक्षावृक्षान्तरेषु तेषां समुत्पतनात् तावदिवमेवानुमीयते यदेते निशायां विमुक्तानामात्मीयानां मार्गणां कुर्वन्ति ।
हे देवि ! यह मृणाग्निनी-कमलिनी गुंजार करते हुए भ्रमरों की ध्वनि से यह जानकर कि मेरे प्राणनाथ प्रा गये हैं, प्रसन्नचित्त होकर उनके स्वागतार्थ पादोदक लेने के लिए तालाब पर जा रही है, इसे श्राप देखें। । २४ ।।
हे देवि ! देखिये यह पनिनीपद्मपत्र के दोने में पराग-राग को भरकर भ्रमर को दे रही है । ठीक ही है-जो पतिव्रता होती हैं वे अपने इष्ट-पतिदेव के समागम से प्रसन्न होकर दान करती ही हैं ।। २५ ।।।
अहो ! देखों यह प्रभात का समय कितना अधिक सुहावना है जिसमें निद्रा से श्रान्त हुया ज्ञान स्वस्थ हो जाता है । प्रत्येक दिशा में कर्ण को आनन्द विभोर बना देनेवाला पक्षियों का कलरव सुनमे में पा रहा है । इससे तो यही समझ में आता है कि ये पक्षिगण आपस में मानो एक दुसरे की सुखासिका ही पूछ रहे हों । एक वृक्ष से दूसरे-दूसरे अन्य वृक्षों पर जो जाकर वे फूदकते फिर रहे हैं मानो ये रात्रि में बिछड़े हुए प्रात्मीयजनों की खोज करने में लगे हुए हों।
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वर्धमानचम्पः रात्रौ निस्तब्धताऽरण्ये याऽऽसीत्सा क्वाघुना गता । तस्था अन्वेषणायष श्रम्यते पशुभिः पृगे ॥२६॥
दिन बिना निपातसः । प्रदीयते मिलित्वते सूर्याय सलिलाञ्जलिः ॥२७ ।।
रजन्यां यन्न प्रत्येति नयनस्तमसाऽऽवृतम् । प्रातःकाले समायाते तत्स्पष्टं वस्तु बुध्यते ॥ २८ ॥
कोकः शोकं त्यक्त्वा कान्तां स्वीयां भृशं समाश्लिष्य । वदनारविन्दमधुना चुम्बति तस्या मुवा बहुशः ॥ २६ ॥
पशुजगत् जंगल की ओर जाने के लिए अपने-अपने स्थान से मानो इस बात की तलाश के लिए ही निकला कि रात्रि में जो जंगल में निस्तब्धता थी वह अब वहां से कहीं और चली गयी हो ।। २६ ।।
कमलपत्तों पर रात्रि में जो प्रोस की बूंदें थीं वे अब प्रातः होते ही गिरने लगी हैं इससे ऐसा भान होता है कि मानो ये सब मिलकर सूर्यदेव को जलाञ्जलि ही दे रही हों ।। २७ ।।
रात्रि में अन्धकार के कारण जो वस्तु नेत्रों से स्पष्ट नहीं दिखती थी, वह अब प्रातः काल होते ही स्पष्ट नजर आने लगी है ॥ २८ ।।
___ रात्रि में कोक पक्षी-चकोर चकोरी के वियोग से जो शोक में डूबा हुआ था, वह अब प्रातः होते ही देखो, अपनी बिछुड़ी हुई कान्ता-चकोरीका आलिङ्गन कर उसके मुखकमल को बारम्बार चूम रहा है ।। २६ ।।
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वर्धमानचम्मः
इत्यादिप्राबोधिकपद्यालापर्वाधनिनादैश्च स्वप्नायलोकनेन प्रबद्धपूर्वाऽपि सा प्रशुद्धा जाता । प्राभातिकं कृत्यमसौ विधाय प्रकर्षहर्षाञ्चित गात्रयष्टिष्टस्य स्वप्नस्योदन्तं किमिति विज्ञातुं विभोस्तोमिष गन्तुम् । विहितप्रत्यूषकृत्याय नृपतिगणतिलकाय सिद्धार्थमनोरथाय सिद्धार्थाय स्वस्वामिने अभ्यनमभ्युपेस्य तेन प्रदत्तमर्धासन्नं सनिविष्टेयं पृष्टा सती स्वप्नोवत्तं जिज्ञासमाना निवेदयामास । तदा
नयेन नीति विनयेन विद्या,
ज्ञानं च दृष्ट्या रमयेव विष्णुः । पुष्पधिया या विटपीय तत्र,
तयाऽध्यसौ तेन च सा विरेजे ॥ ३०॥
इत्यादि रूप पद्यालापों से एवं वादिनों के निनादों से उन प्राबोधिकों ने रानी को जगाया । यद्यपि वह स्वप्नों के देखने में पहले से ही जगी हुई थी पर ऐसा आचार है कि भाट लोग राजा-रानीको प्रातःकाल में उनकी विरुदावली बखानते हुए एवं प्रकृति की निराली शोभा की प्रशंसा करते हुए जगाते हैं । रानी ने उठकर प्राभातिक सब क्रियाएं की। क्रियाओं को करके वह शुद्ध सुहावने कीमती वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पतिदेव के निकट पहुंची। हर्ष के प्रकर्ष से जिसका शरीर रोमाञ्चित हो रहा है ऐसी वह प्रियकारिणी त्रिशला जब नरेश के पास जा रही थी तब नरेश ने उसे प्राती हुई देखा था । उसके पाते ही नृपतिगण के तिलकभूत सिद्धार्थ नरेश ने जिनके कि मनोरथ फलीभूत होने जा रहे थे उसे उठकर अपने आधे सिंहासन पर बैठाया । राजा ने ज्यों ही पाने का कारण पूछा रानी ने दृष्ट स्वप्नों के फल को जानने के लिए निवेदन किया। उस समय जब ये दोनों दम्पती राजसिंहासन पर आसीन थे आपस में ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे नय से मीति, विनय से विद्या, सम्यग्दर्शन से ज्ञान, लक्ष्मी से विष्णु और पुष्पधी से वृक्ष परस्पर सुशोभित होते हैं ।। ३० ।।
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वर्धमानचम्पूः
तयेत्थं प्रोक्तम्
दृष्टा षोडश स्वप्नाः सुत्रामविभवार्यपुत्र ! खलु तम्पाः। पश्चिमयामे, तेषां फलं किमस्तीति वक्तव्यम् ॥ ३१ ॥
इत्थं तदीयचेतसि स्वप्नानां फलं विज्ञातुं जायमानां बलवतीमत्कंठा विज्ञाय प्रमुषित मनसासिन सादरं भणितम्-के से स्वप्ना देवि ! निशीथिन्याः पश्धिमे प्रहरे त्वया दृष्टाः । बहि-इत्थं पृष्टा सा वामपार्श्वभागे विनिविष्टा स्थमधुरवाचाऽवदत्-स्वामिन् ! से मै । इस्थं सया स्वमर्तुः सविधे सपि स्वप्नाः प्रकाशिता गजपतिषभादयः ।
उसने ऐसा कहां
हे नाथ ! मैंने पाज रात्रि के पश्चिम प्रहर में १६ स्वप्न देखें हैं, सो हे इन्द्र के तुल्य वैभवशालिन् पार्यपुत्र ! इनका फल क्या है ? इसे आप स्पष्ट कीजिये ।। ३१ ।।
इस प्रकार त्रिशला महारानी के चित्त में दृष्ट स्वप्नों का फल जानने की बलवती उत्कंठा जगी। इसके बाद बड़े ही पादर के साथ प्रमुदित मन होकर सिद्धार्थ ने कहा-देवि ! कहो वे स्वप्न क्या हैं ? जिन्हें आपने रात्रि के पिछले प्रहर में देखा है । इस प्रकार नरेश के द्वारा पूछे जाने पर वामभाग की ओर बैठी हुई त्रिशला ने मधुर वाणी से कहा--स्वामिन् ! वे देखे गये स्वप्न ये हैं । इस प्रकार त्रिशला ने अपने पतिदेव के निकट देखे गये वे गजराज, वृषभ आदि के समस्त स्वप्न प्रकाशित कर दिये ।
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वधमानचम्पू:
निशम्य तान् निखलान् नुपेण सिद्धार्थेन निमित्तशास्त्रविशारदेन मुक्ताफलसमश्चतिरदेन पूर्व तत्फलं चेतसि विनिश्चित्य प्रसम्मममसा पश्चादित्थमभिहितम्
देवि ! त्वमांस परमसौभाग्यशालिनी यत् सांभाग्यसौन्दर्यमालिनो बलिष्ठस्य सातिशयज्ञानसमन्वितस्य तेजस्विनामप्य ग्रसरस्य महागुमिनो यशस्विनो जगवृद्धारकस्य तवभवसकलकर्ममलफलक विनाशरूपमूक्तिकान्ता-कान्तस्य सुतस्य जननी भविष्यसि । प्रघुना स त्वदीयोवरेऽवतीर्णः । एतदुबन्तस्य संसूचकाः स्वप्ना देवि ! स्वयेमे. दृष्टाः । यतो हि-"अस्वप्नपूर्व हि जीवानां नहि जातु शुभाशुभम्" इति । अस्मद्भवनमिधमचिरेण परमसौभाग्यशालिनास्मनापवायुष्केण जीवेन समलंकृतं भविष्यति । इत्थं हृद्यानवद्यमवन्तं विचिन्त्य श्रुत्वा च सिद्धार्थस्तस्पत्नीधेति द्वावपि हर्षोत्कर्षस्य परां काष्ठा जग्मतुः । कस्मिन् मंगलमयेहनि तज्जम्म भविष्यति, कदा चावयोः पुत्राननावलोकनसमोहा पूर्णतां प्राप्स्यति, कदा
सिद्धार्थ नरेश निमित्तशास्त्र के विशिष्ट ज्ञाता थे । अतः उन स्वप्नों को सुनकर और उनका फल पहिले अपने आप में निश्चित कर बाद में बड़े आनन्द के साथ मुसकाते हए उन्होंने रानी से कहा- देवि ! तुम बड़ी सौभाग्यशालिनी हो जो अत्यन्त सौभाग्य एवं सौन्दर्य से सर्वोत्कृष्ट, बलिष्ट, तेजस्वी, यशस्वी, संसारोद्धारक एवं सकलकर्ममलकलङ्क के विनाशरूप मुक्ति कान्ता का पति तद्भवमोक्षगामी ऐसे पुत्र की माता होनेबाली हो । इस समय वह तुम्हारे उदर में अवतीर्ण हो चुका है। इसी बत्तान्त की सूचना देने वाले ये सोलह स्वप्न हे देवि ! तुमने देखे हैं। स्वप्न जीवों के शुभ और अशुभ के सूचक होते हैं । हे देवि ! बहुत शीघ्र ही हमारा यह भवन परम सौभाग्यशाली एवं अनपवर्त्य प्रायुबाले जीव से जगमगाने वाला है । इस प्रकार के विचार से वे दोनों दम्पती हर्ष से उत्कर्ष की पराकाष्ठा को प्राप्त हुए, और इस प्रकार की प्रतीक्षा में तन्मय होकर ऐसा विचार करने लगे-किस मंगलमय दिवस में उसका जन्म होगा? कब पुत्र का मुख देखने की हम लोगों की वाञ्छा सफल होगी ? और कब
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वर्षमानचम्पू:
च तज्जन्मजायमानमहोत्सवतः सफल स्वजन्मावां विधास्यावः प्रतीक्षामिमां क्रियमाणो तो दम्पती स्य समयमनयताम् ।
- एतेषु सर्वेषु मांगलिकक्षणेषु निलिम्पमिलित्वा सिद्धार्थरामभवने महानुत्सवोऽकारि। तदिवसमारभ्यैव षट्पंचाशत्कुमारिका देव्यस्त्रिशालामाः शुभषा ाि निलका माताः । प्राभिः सर्वाभिर्यथामियोग गर्भावस्थायां तस्याः सुष्ठ्तया परिचर्या विहिताऽहमहमिकया। चिरकालेन नियुक्ता परिचिता प्रियंवदा त्रिशलाचेटी तत्सुखसुविधाविधौ स्वीयं पूर्णयोगं सावधाना सत्यवात् । अतः स्वस्वामिन्याः प्रभुमातुः किञ्चिपि शारीरिक मामसिकं च कृच्छनाऽभूत । तथा विविधर्मनोरंजकैरुपायैः सा तस्याः समाराधनतत्परा बभूव । अतस्तस्यै कश्चिदपि खेवलेशो नाजायत ।
उसके जन्मसमय के होनेवाले महोत्सव से हम लोग अपने जन्म को सफल मानेंगे ?
इन समस्त मांगलिक क्षणों में देवों ने मिलकर सिद्धार्थ राजा के राजभवन में बहुत बड़ा उत्सव किया । उस दिन से ही देवी त्रिशला की शुश्रूषा करने में छप्पन कुमारी देवियां नियुक्त हो गई । इन सब ने अपने अपने नियोग के अनुसार गर्भावस्था में उस त्रिशला माता की बहुत अच्छी तरह परिचर्या की। त्रिशला की एक चेटी थी जो बहुत पुरानी थी । उसका नाम प्रियंवदा था। यह त्रिशला की सुख-सुविधा का बहुत अधिक ध्यान रखती थी । इसकी वजह से प्रभु की माता को शारीरिक एवं मानसिक जरा सा भी कष्ट नहीं हो पाता था । यह विविध प्रकार के मनोरंजक साधनों से अपनी स्वामिनी की सेवा करने में सर्वदा कटिबद्ध रहा करती थी। अतः माता को किचित् मात्र खेद नहीं हो पाता था।
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वर्धमान चम्पुः
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सेवाधर्मः परमगहमः सत्यमेतसथापि,
वेग्यश्चकुर्मुदितमनसा तीर्थकृत्पुण्ययोगात् । मातुः सेवामतिसुखकरी वृत्तिरिक्तां स्वयोग्याम्,
धन्यस्तेषां भवति स भयो वेवसेव्यो भवेद् यः ॥ ३२ ॥
सा शारदीयाम्बरसुल्यकान्तिः,
वपुःप्रभान्यक्कृसराजहंसी। चकास राकेव च चन्द्रपूर्णा,
स्वमंदिरेऽलतकशोभिपादा ॥३३॥ बेहप्रभामण्डलमण्डनः सा,
विराजमाना विशला रराज । तपाल्पनिरशोकरा
संसिध्यमानाभिनषा धरित्री ॥ ३४ ॥
यह बात सत्य है कि. सेवाधर्म परम गहन है । फिर भी तीर्थकर पुण्य प्रकृति के प्रभाव से उन की माता की सेवा प्रसन्नचित्त होकर देवियों ने की। माता को उनकी सेवा से बहत सुख मिलता था । यह सेवा बिना वेतन की थी। वह जन्म धन्य है कि जो देवसेव्य होता है ॥ ३२ ॥
शरदकालीन मेघ के समान जिसके शरीर की प्रभा है और इस प्रभा के आगे राजहंसी भी तिरस्कृत हो जाती है ऐसी वह त्रिशला जिसके दोनों घरण अलक्तक-महावर–से सुशोभित होते रहते हैं अपने राजमन्दिर में पूर्णचन्द्रमण्डल वाली पूर्णिमा के जैसी शोभित होती थी ।। ३३ ।।
ग्रीष्मकाल के ध्यतीत होजाने पर निर्भरों के शीकरों से सिञ्चित हुई नवीन भूमि जिस प्रकार शोभित होती है, उसी प्रकार देह की प्रभारूप भण्डनों से विभूषित हुई वह कमलनयनी त्रिशला सुशोभित हुई ॥ ३४ ॥
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वर्धमानघम्पू:
प्रभामहत्या शिखयेव दीपः,
रत्नत्रयेणाथ च भुक्तिमार्गः । अनभ्यहारावलिमिश्च कंठो,
गर्भेण सा स्वस्तिमती रराज ।। ३५ ॥
लावण्यमंगे स्फुरितं तदीये,
__ मणिप्रभाभं द्विगुणं रराज । सार्धं विभूत्या महतां प्रभावो,
वाया न बाच्यः खलु कोप्यपूर्वः ।। ३६ ॥
सा संस्थिता यौवनमंदिरेन्सः,
सौभाग्यभूतेः परिवद्धनार्थम् । धर्मोक्तविद्यां सततं बयस्या
मिवाङ्गसंगोमुररीचकार ॥३७॥
वह स्वस्तिमती त्रिशला जिस प्रकार प्रकृष्ट प्रभावाली शिखा से दीपक शोभित होता है, रत्नत्रय से मुक्तिमार्ग शोभित होता है एवं अनर्थ्य हारावलि से कण्ठशोभित होता है उसी प्रकार गर्भ से शोभित हुई ॥ ३५ ॥
त्रिशला की रगरग में लावण्य मणि में प्रभा के जैसा द्विगुणित होकर चमक रहा था । गर्भ के प्रभाव से विभूति भी उसकी असाधारण हो चली । सच तो यह है कि महापुरुषों का प्रभाव कोई अपूर्व ही होता है । वह शब्दों द्वारा प्रकट करने में नहीं आता ।। ३६ ।।
यौवनरूप मन्दिर के अन्दर स्थित हुई त्रिशला ने अपने सौभाग्यरूप वैभव के परिवर्द्धन निमित्त सखी के समान धार्मिक ज्ञान को अपना साथी बनाया ।। ३७ ।।
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वर्धमानचम्पूः
तस्याः
क्रियाचार विशुद्धबुद्ध:,
बभूव सौन्दर्यमणेः करण्शम् । पवित्रं युसङ्गनाभिः, सुरक्षितत्वा
गात्रं पवित्रं
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वंशासाऽपि महोतसांसा कर्णावतंसाऽजनि सा स्वभर्तुः I सत्यं हि सौभाग्यनिधिर्जनेन नवाप्यते पुण्यविभूत्यभावे ॥ ३६ ॥
अथ सा त्रिशला राशी गर्भं दधाना गभीरमर्थं भारतीय, शार्दूलपोतं गिरिगुहेव, सूर्यगर्भा पौरंदरों डिगिव मणिमण्डलाढ्या वाधिवेलेय, च रराज | नाभवत्तस्या उदरं वृद्धिमत् । नाभूतां स्तनौ कृष्णास्य युतौ । त्रिवल्य भंगुरं तनूबरं तथैवास्थात् । वदतेऽपि नागच्छत्पाण्डुरता । नास्थात्
क्रियारूप आचरण से जिसकी बुद्धि विशुद्ध बनी हुई है ऐसी उस त्रिशला महारानी का पवित्र शरीर सौन्दर्यरूप मणि का पिटारा थाखजाना था । उसकी रक्षा भिन्न-भिन्न उपायों द्वारा देवाङ्गनाएँ करती रहती थीं ।। ३८ ।।
उन्नत स्कन्धवाली वह त्रिशला महारानी राजा सिद्धार्थ के वंश की मण्डन स्वरूप थी; पर फिर भी नरेश उसे अपने कर्ण का प्राभूषण जैसर मानता था । सत्य तो यही है कि पुण्यरूप विभूति के प्रभाव में मानव को सौभाग्यरूप निधि की प्राप्ति नहीं हुआ करती है ।। ३६ ।।
गर्भ को धारण करती हुई वह त्रिशला गम्भीर अर्थ को धारण करनेवाली भारती की तरह, शार्दूल के बच्चे को धारण करनेवाली गिरि की गुफा की तरह, सूर्य को धारण करनेवाली पूर्व दिशा की तरह और मणिमण्डल को धारण करनेवाली समुद्र की वेला की तरह सुशोभित हुई । उस श्रवस्था में भी उसका उदर वृद्धिगत नहीं हुआ। दोनों स्तन कठिन अग्रभागवाले एवं कृष्णमुखवाले नहीं हुए । पेट की विली विनष्ट नहीं हुई । पेट ज्यों का त्यों पतला का पतला ही बना रहा । मुख पर पाण्डुरक्षा
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वर्धमानबम्पू क्षणमपि बालस्यं चित्तेऽपि च कश्चितप्युद्धगो नाजनि । सर्वेषामसुमतास्याच्छ यः, कश्चिदपिवुःखभाग्न भवेदखिलानामनिशं नितरां सुखशान्तिवृद्धिर्भूयात् । समृध्यभावो न कस्यचिदपि मवेत् । पश्यन्तु सर्वे भद्राणि, भवन्तु सर्वे निरामयाः न जायतां स्वप्नेऽपि कस्यचिदिष्टविप्रयोगोऽनिष्ट संयोगो या । मनस्येवंविधा तस्या भावनाऽभवत् । सर्वकल्याणकामनाशालिन्या अस्था मृगाक्ष्या मुखं कदाधिवप्यपशग्दैः कच्चलं न जातम् । गर्मस्थाकप्रभावास्या अक्षणोविल्यमपि नागतम् ।
अस्या वतसे स्म हृदयेऽनुरागः, सर्वप्राणिनः प्रति मैत्रीमानः, गुणिजनेषु प्रमोदश्च । अन्तर्धत्नी यंन काचिदपि तदवस्थायामपि स्वीयधर्मकुत्येशिथिलावरा जाता। तदानी तहणेन्दुगौरवर्णा तामतान्सां मुहर्मुहनिरीक्ष्य संजातसुखो जज्ञे । अमन्यत च पुण्येन लब्धं स्वगृहस्थधर्मम् । शिरोषपुष्पावपि कोमलांग्यास्तस्याः स्फाटिकाश्मकान्त्याः कपोलपाल्या
नहीं आयी। आलस्य सदा दूर रहा 1 चित्त में किसी भी प्रकार का उद्वेग उत्पन्न नहीं हुआ । सदा उसके मन में यही भावना रहती कि संसार के सब प्राणी कल्याणभाजन बनें । कोई भी जीव दुःखी न रहे । समस्त जीवों में सुख, शान्ति एवं समृद्धि की वृद्धि होती रहे। किसी भी जीव को स्वप्न में भी इष्ट का वियोग और मनिष्ट का संयोग न हो | समस्त प्राणी निरामय रहें। इस प्रकार सम्पूर्ण जीवों के कल्याण की कामनावाली त्रिशला का नेत्रयुग मृमके नेत्रयुग जैसा था, मुख अपशब्दों से कभी भी मलिन नहीं हमा । गर्भस्थ अभक बालक के प्रभाव से नयनों में उसके चपलता भी नहीं पायो । उसके हृदय में जीवों के प्रति अनुराग भरा रहा । मन में मंत्रीभाव एवं गुणिजनों को देखकर प्रमोदभाव जमा रहा । गर्भगत अर्भक के प्रभाव से ही वह कभी भी अपने धार्मिक कृत्यों के प्रति प्रमादपतित नहीं हुई । पूर्णिमा के चन्द्र जैसी गौरवर्णवाली उस त्रिशला महारानी को अमलिन चित्त देखकर हर्षित हुमा नरेमा सिद्धार्थ ऐसा मानता था कि मेरा यह पुण्यलभ्य गृहस्थ धर्म धन्य है । शिरीषपुष्प के सी कोमल अंगवाली उस त्रिशला की कपोलपाली में जो कि स्फटिकमणि के समान कान्तिवाली
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वर्धमान चम्मूः
प्रतिविम्बिताङ्गोऽनङ्गबन्धुः कुरङ्गालक्ष्मेन्दुधूम्रवर्णोपेत इव रात्री प्रतिभाति स्म । इत्थं नारीत्वेऽपि सर्वोत्कृष्ट सौभाग्यसुखमनुभूयमानायास्तस्या गर्भार्भकसंरक्षणतत्पराभिर्देवीभिः समुपास्यमानायाः समुधितलभ्यमानकृतप्रश्नोत्तराभिः समं सुखं सुखेनाबाधगत्या दिवसा निन्ति स्म ।
धन्या सा जननी पिताऽपि सूकृतो गेहं च तत्पावनम्, धन्या सा घटिका रसाऽपि सफला साऽनेन याऽलंकृता । स्थोत्पस्या, दिवसोऽपि सोऽपि महितो वोरेण मोक्षार्थिना, जात्या संविहितो नमामि नितरां तं सन्मति सन्मतिम् ।। ४० ।।
थी प्रतिविम्बित हुमा अनङ्गबन्धु चन्द्र रात्रि में कुरङ्गलाञ्छनवाला होने के कारण धूमिलवर्णोपेत जैसा प्रतीत होता था- झलकता था । गर्भावस्था में वर्तमान विमला रानी से देवियां विविध प्रकार के प्रश्नों को पूछा करतीं और समुचित उत्तर प्राप्त करती थीं । इस तरह देवियां माता का मनोरंजन किया करती । स्त्रीपना होने पर भी सर्वोत्कृष्ट सौभाग्य का अनुभव करती हुई त्रिशला माता के गर्भ के संरक्षण करने में दत्तावधान बनी हुई वे देवियां माता की सेवा से एक क्षण भी विमुख नहीं होती थीं । इस प्रकार बड़ी शान्ति और प्रानन्द के साथ अबाधगति से त्रिशला माता का समय निकलने लगा।
वह मासा धन्य है, वह पिता भी धन्य है, वह धरा भी पवित्र है, वह घड़ी भी प्रशंसनीय है, वह भूमि भी भाग्यवती है और वह दिवस भी अत्यन्त पूजनीय है जिसको इस मोक्षगामी श्री वीर प्रभु ने अपने शुभजन्म से पवित्र किया है—अलंकृत किया है । अतः मैं परमोत्कृष्ट भक्तिपूर्वक उन सन्मतिशाली सन्मति वीर प्रभु को नमस्कार करता हूं ॥ ४० ॥
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वर्धमानः
पुण्यं यः समुपाजितं परमये ते प्राप्नुवन्ति श्रियम्, जायन्ते जगतीह तेऽमरनिर्मः पुंभिश्व सेव्याः सदा । श्रीमतोर्यकृतां भवन्ति मुवि ते जन्मप्रदाः प्राणिनः, तस्माल्लब्धमनुष्यजन्म हितकृरपुष्ये मतिर्धीयताम् ॥ ४१ ॥
वृष्टा मयाऽनेकविधा मनाढ्या केचिन्मदान्धाः सरलाइ केचित्, केचिद्दयाहीनहृवः कठोरा परापवौनापि सदाशया हा ! केचिच्च शैवालयुताश्मतुझ्या वाचैव रम्या, न च शारदायाः पुत्रांश्च रिक्तान्प्रति केऽपि दृष्टा क्यालयः सन्तु तथाऽऽशयो मे ॥ ४२ ॥
इत्थं नरेशजनकेन विनिर्मितेऽस्मिन् श्रीमूलचन्द्र विदुषामन बावरेण । तीयकः स्तबक एष गती सुवे स्थात् स्वर्गं गतस्य जननीजनकस्य साथत् द्वितीयः स्तबकः समाप्तः
॥ ४३ ॥
जिन्होंने पूर्वभव में पुण्य उपार्जित किया है वे लक्ष्मी के भोक्ता होते हैं, देवता तुल्य मनुष्य उनकी सेवा में निरन्तर निरत रहते हैं, ऐसे जीव हो तीर्थंकर जैसी महान विभूतियों के जन्मदाता होते हैं । इसलिये पुण्यलभ्य इस मनुष्य जन्म में हितविधायक पुण्यकर्म में है सज्जनो ! अपनी बुद्धि को लगाओ ।। ४१ ॥
पूर्व पुण्यकर्म के उदय से जिन्हें बाह्य विभूति प्राप्त हो जाती है। उनमें से कितने ही व्यक्ति तो उसके मद से अन्धे हो जाते हैं- हेय और उपादेय के ज्ञान से रहित हो जाते हैं, कितने ही जन सरल - कषाय की उत्कटता से रहित हो जाते हैं, कितने ही जन दयाविहीन हृदयवाले हो जाते हैं, कितने ही धनिकजन इतने अधिक कठोर हो जाते हैं कि वे दूसरों की प्रापत्ति तक में सहायक नहीं होते। कितने ही धनाढ्यजन काई से आच्छादित हुए पाषाण की तरह ऊपर से मीठी-मीठी बातें करते हैं । ऐसे ऐसे धनाढ्यों को मैंने देखा है परन्तु ऐसे धनाढ्यों को ग्राजतक नहीं देखा जो गरीब अधिकारी विद्वानों के प्रति अपनी दयालुता का प्रदर्शन करते हों । अतः मेरा यही सदाशय है कि धनिकवर्ग विद्वानों के प्रति सदाशयवाले बनें ॥ ४२ ॥
—
द्वितीयपुत्र नरेशकुमार के जनक एवं मनवा के पति मूलचन्द्र पण्डित के द्वारा रचित इस वर्धमानचम्पू काव्य में यह द्वितीय स्तवक समाप्त हुआ। यह दिवंगत पूज्य जननीजनक को हर्ष प्रदाता हो ।। ४३ ।।
हा
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तृतीयः स्तबक:
वर्धमानं महाबीरं वीरं सन्मतिदायकम् । स्याद्वादन्यायवक्तारमतिवीरं नमाम्यहम् ॥ १ ॥
नमामि तं वीरमहं यदीयमजय्यशक्ति प्रविलोक्य भीतः । यः संगमस्त्रासयितुं यमागाद् अनूष सच्छिष्यनिभः स तस्य ॥ २ ॥
श्रम द्वादशटरधिकसप्त दिवसोपेता नवमासा यदा व्यतीयुस्तदा चैत्रशुक्लायां त्रयोदश्यां तिथावर्यमायोगे श्रीसिद्धार्थम्पतिबल्लभा त्रिशला जगद्वस्तमं प्राचोवार्क सर्वांङ्गरम्यं मनोजकाररूपं माहगुणमरिण द्वीपं बाबूषभनाराचसंहननोपेतं समचतुरस्त्रसंस्थानसमलंकृतं चादम्यशक्तिमेकमप्रतिमम मंकररनं प्रसूत । विशि दिशि विसरद्भिः पुत्रतेजोबिलासस्तवा तमःस्तोमोsस्तंगतः क्वान्तहितो न जाने । वैद्युतप्रकाश इव सर्वत्र
सन्मतिदायक ऐसे वर्धमान महावीर वीर प्रभु को जो स्याद्वादन्याय के उपदेशक होने के कारण प्रतिवीर कहलाये मैं नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥
मैं उस वीर प्रभु की शत शत बार वंदना करता हूं जिनकी शक्ति को अजेय मानकर भयभीत करने के लिए आया हुआ संगमदेव स्वयं भयभीत होगया और उनका विनीत शिष्य जैसा हो गया ।। २ ।।
जब गर्भ के नौ माह सात दिन और बारह घण्टे समाप्त हो गये--- पूर्ण हो गये तब चैत्र सुदी १३ की तिथि को सूर्य के योग में उस सिद्धार्थ नृपति की वल्लभा त्रिशला ने पूर्व दिशा जैसे सूर्य को जन्म देती है वैसे हो सर्वाङ्ग सुन्दर पुत्ररत्न को जन्म दिया । पुत्र का रूप कामदेवके समान सुहावना था । उत्कृष्ट गुणरूपमणियों का वह द्वीप के जंसा था- खजाना था । वष्यवृषभनाराचसंहननवाला था । समचतुरस्रसंस्थान से वह शोभित या । उसके जैसा और कोई शरीर न होने से वह अप्रतिम था 1 उसके शरीर से निर्गत तेज के प्रभाव से जो कि प्रत्येक दिशा में व्याप्त हो रहा था पता नहीं पड़ा कि अंधकार का समूह कहां अन्तहित हो गया। बिजली
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वर्धमानचम्पू
जगति शान्तितरङ्गमाला प्रासरत् । अधोलोकीकसा नारकारणामपि निरन्तरमसझदुःवायाग्निपतितानां भणमेकं यावन् नारकीययन्त्रणा विनिर्मक्तत्वाच्छान्तिर्जाता । आनन्दमेरोणां निनावेन तदा समस्तमपि तत्कुण्डलपुरमेकालयमिव प्रपूरितमभवत् । सर्वत्र तत्र महान्तोऽन्तःकरणविमोहिनः प्रमोदोत्सवाः प्रचुरमात्रयाऽभवन् । प्रकर्षहर्षभराकान्तं तनगरं समुद्वेलितसमुद्र यत् क्षुधं बभूव । पुत्रजन्मोत्सवं लक्ष्यीकृत्य राजा सिद्धार्थेन सिद्धार्थन सिंहासनमुझे च चामरे विमुच्य प्रभूतमात्रायां वानं याचकेभ्यो वितीर्णम्, महतोत्साहन च राज्योत्सवो विहितः ।
प्रभोर्जन्मप्रभावात् सौधर्मेन्द्रस्य हर्यासनं स्वयं यदा प्रकम्पितं तवा तत्प्रकम्पनतस्तेन कुण्डलपुरेऽवधिशानिना तीर्थंकरस्थान्त्यस्यजनितिति विज्ञातम् । सद्यः स समस्तनिलिम्पपरिवारेण परितः परिवृतः सामोवो विविधां लास्यक्रियां विवधानः कुण्डलपुरं समागच्छत् ।
के प्रकाश की तरह शान्तिरूप तरङ्गों की माला सर्वत्र फैल गई। अधोलोक में निवास करनेवाले नारकियों तक को भी जो कि निरन्तर असह्य दुःखरूपी दावाग्नि में जलते रहते हैं एक क्षण के लिए शान्ति मिल गई । अर्थात्--- उनकी नारकीय यन्त्रणा एक क्षण भर को शान्त हो गयी । उस समय आनन्दभेरी की गड़गड़ाहट से समस्त कुण्डलपुर एक घर के जैसा भर पया । नगर में सर्वत्र मन को मोहित करनेवाले प्रानन्दोत्सबों का प्रवाह उमड़ पड़ा। प्रकर्ष हर्ष के भार से विभोर हा वह नगर समुद्वेलित समुद्र की तरह क्षुब्ध हो उठा । राजा सिद्धार्थ ने पुत्रजन्म के उपलक्ष्य में सिंहासन और दो चामरों के सिवाय याचकजनों को प्रभूतमात्रा में दान दिया । बड़ी धूमधाम के साथ राज्य की ओर से उत्सव मनाया गया ।
प्रभु के जन्म के प्रभाव से सौधर्मेन्द्र का आसन स्वयं कम्पित हुआ। उसके प्रकम्पन से उसने अपने अवधिज्ञान से यह ज्ञात कर लिया कि कुण्डलपुर में अंतिम तीर्थकर का जन्म हया है। वह समस्त देवपरिवार से चारों ओर से घिरकर बड़े आमोद-प्रमोद के साथ विविध प्रकार के नर्तन करता हुमा कुण्डलपुर में पाया।
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वर्धमानचम्पू:
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राजभवन समेत्य तेनाने के मांगल्योत्सबास्तेनिरे। जातैस्तैर्देवविहित्सोत्सवः कुलपुरोय परमाणु संकृतः गुजरचाभवत् । मातुनिशलायाः स्तुति कुर्वाणेन शक्केण तेन तदा भणितम्-मातस्त्वमेव जगन्माताऽसि यतस्तथायं सुतो विश्वोद्धारको भविष्यति । अपारसंसारसंतमसान्धीकृतेऽस्मिन् जोवलोके सज्ञानप्रदायकत्वात् प्रकारापुञ्जनिमोऽयं ते सुपुत्रः सुपथप्रकाशको भूत्वा संसृतिस्थानां भ्रमं चाज्ञानं निरस्य तेषां विश्वेषां मंगलपथप्रदर्शकश्रादर्शनररत्नं दिनमणिरिव स्वगोभिश्चकासिष्यति, धन्या वर्मास, अधुना स्वादृशी सौभाग्यवती सुतवत्तो भामिनी काप्यन्या जगति नास्ति ।
राजभवन में आकर उसने अनेक मांगल्योत्सव किये । देवों द्वारा किये गये उन उत्सवों से कुण्डलपुर का एक एक परमाणु झंकृत और गुजित हो उठा । उस समय त्रिशला माता की स्तुति करते हुए इन्द्र ने कहा-हे माता ! तुम जगत् की माता हो, क्योंकि आपका यह पुत्र विश्व का उद्धारकर्ता होगा । अपार संसाररूपी गाढ़ अन्धकार से मंधीभूत इस जीवलोक में सम्यग्ज्ञान का प्रदाता होने के कारण वह प्रकाशपुञ्ज जैसा होगा और सुपथ का प्रदर्शक होकर वह संसारस्थ भ्रम और अज्ञान का निरसन करेगा तथा समस्त प्राणियों को उनके मंगलकारक मार्ग का प्रकाशक होगा । यह एक आदर्श नररत्न बनकर सूर्य के समान अपनी वाणी के द्वारा संसार में चमकेगा । माता ! तुम धन्य हो । इस समय तुम्हारी जैसी सौभाग्यवती एवं पुत्रवती माता इस जगत् में दूसरी कोई पौर नारी नहीं है।
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वर्धमानचम्पुः त्वं धन्याम्ब ! त्रिभुवनगुरोपवात्री पोसि, जन्माऽस्माकं सफलमभवदर्शनाते पवित्रात् । धन्यो जातस्तव सुतपरस्पर्शनान्मर्त्यलोकः, स्वर्गावासो नहि रुचिकरस्तं तृणायाक ! मन्ये ॥ ३ ॥
धन्या भारतभूरियं भगवतां तीर्थकराणां च या, जन्माः प्रथितमहोत्सवातः कल्याणक: पंचमिः । प्रता सा सुरवासतोऽपि नितरां पूज्या च मान्याउनणाम्, सिद्धिप्राप्तिपवित्रस्थलमियं न स्वर्गभूोंगभूः ॥४॥
सुरललनामीवक सौभाग्यं नास्ति तत्र सुरलोके । गर्भाधानामावाव् धन्याऽसि स्वमेकजननीत्वात् ॥५॥
हे माता! तुम धन्य हो, क्योंकि तुम तीनों लोकों के स्वामी प्रभु की जन्मदात्री जननी हो । अापके पवित्र दर्शन से हम लोगों का जन्म पवित्र हुमा । सफल हुआ । यह मर्त्यलोक अापके पुत्र के पदस्पर्शन से धन्य बन गया है । हम तो इसके प्रागे स्वर्ग के निवास को भी रुचिकर नहीं मानते हैं । हमें तो वह इसको महिमा के समक्ष तृण के जैसा लग रहा था ।। ३ ।।
यह भारत भूमि धन्य है जो भगवान तीर्थंकरों के प्रथित शतमहोत्सववाले पांच जन्म प्रादि कल्याणकों द्वारा पवित्र हुई है। यह तो स्वर्गरूपी निबासस्थान से भी अत्यन्त पूज्य है एवं मान्य है क्योंकि यही मुक्ति प्राप्त करने की सुन्दर स्थली है । स्वर्ग-स्थली और भोग-स्थली ऐसी नहीं
ऐसा परम सौभाग्य सुरललनात्रों को स्वर्ग में कहां प्राप्त है ? वहां तो वे गर्भाधान क्रिया से ही वंचित रहती हैं । अतः तुम ही प्रभु की जन्मदात्री माता होने के कारण धन्य हो ।। ५ ॥
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वर्धमानचम्पू:
___ इत्थंभूतः पद्यालापर्मातुः स्तुति विधाय सौधर्माधिपतिना तेन संक्रन्दनेन सिद्धार्थोऽपि संस्तुतः सत्कृतश्च । कथितं चायमभकः
बीमाणाष् िहर्षाधिई बुमुद्वेलितो भवति । यस्याङ्क कोडिष्यति का वार्ता तस्य पुण्यस्य ॥ ६ ॥
रूपातिशयं पिबतो मेंऽगानि खलु.पुलकितानि जातानि । सोऽतिसौभाग्यशाली स्प्रक्ष्यति विद्यानिशं चास्य ॥७॥
कोडे धृत्वा स्वाङ्ग रतिसुकमाराणि मनि रम्यारिण। संपेशलानि, देवरस्माभिर्वापि न लभ्यानि ॥८॥
(युग्मम्)
इस प्रकार के पद्यालापों द्वारा माता की स्तुति करने के बाद उस सौधर्माधिपति इन्द्र ने सिद्धार्थ नरेश की स्तुति की और सत्कार किया । बाद में फिर उसने कहा- यह बालक जिसे देख कर मेरा हर्षरूपी समुद्र मर्यादातिक्रान्त हो रहा है, हे नरेश ! जिस भाग्यशाली की गोद में खेलेगा, उस पुण्यात्मा के पुण्य की महिमा क्या कही जाय ? ।। ६ ।।
इस बालक के रूपातिशय को देखकर जब मेरा अंग-अंग पुलकित हो रहा है तब वह तो बड़ा ही भाग्यशाली होगा जो हम इन्द्रों को एवं देवों को भी अलभ्य ऐसे इसके सुकुमार, मृदु और सुरम्य अंगों को अपनी गोद में रखकर रात-दिन अपने अंगों से लड़ायगा॥ ७-८ ॥
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वर्धमान चम्पू- तदनन्तर्र शाज्ञापालनतत्परां शची मातुः सकाशं गर्भगहप्रसूति -निलयं समेत्य सप्रश्रयं तत्पावें कृत्रिम शिशुमेकं निधाय नवनालाभकं स्वा संस्थाप्य प्रसूतिगृहाबहिरानीय स्वस्वामिने शक्राय ददौ । प्रमादानन्यस्मरमुखः सुराधिपोऽपि स स्त्रोत्संगे तं समारोप्यरावताभिधानं गजराज थारुह्य सुमेरुगिरि प्रति प्रतस्थे । वायुवेगवल्लीलयव तत्र समेत्य सेन प्रथमतः संस्थापिते सिंहासने पूर्वाभिमुखें तं बालाभिं बालतीर्थकर संस्थाप्य तस्य महोत्सवपूर्वक महाभिषेको विहितः । अभिषेकानन्तरं यदा शचौ तस्य पवित्रं गात्रं प्रोञ्छति तदा प्रोग्छिता अपि तत्कपोलपालीप्रदेशरया जलबिन्धयो यदा शुल्का नाभवन, प्रत्युत मुहहवस्त्रेण प्रोज्छनाते विशेषरूपतश्चाकचिक्योपेता एव संजातास्तमा सा बहुविस्मयभावापन्नेन सूक्ष्मेक्षिकया निरीक्षकनावलोकिता, तदा परिहास.
इसके बाद शची जो कि इन्द्र की प्राज्ञा पालन की प्रतीक्षा में थी, माता के समीप गयी । वहां जाकर उसने माता के पास एक माया-मयीकृत्रिम-बालक रख दिया और नवजात शिशू को उठाकर वह प्रसूति-गह से बाहर ने प्रायो, आकर उसने उसी समय उसे अपने स्वामी इन्द्र को दिया। अमन्द-अानन्द से मुसकाते हुए इन्द्र ने उसे गोद में लेकर और ऐरावत हाथी पर सवार होकर सुमेरु पर्वत की ओर प्रस्थान किया । देखते ही देखते वह सुमेरु पर्वत पर पहुँच गया। वहां प्रथमतः स्थापित सिंहासन पर प्रमु को जिनकी नाभा बालसूर्य के जैसी थी उनका मुख पूर्व दिशा की ओर करके बैठा दिया । पश्चात् बहुत भारी उत्सव-पूर्वक उसने प्रभु का महाभिषेक किया । जब अभिषेक विधि समाप्त हो चुकी तब शची ने प्रभु के शरीर को पोछना प्रारम्भ किया। पोंछते-पोंछते जब वह उनके शरीर के पानी को पूरा पोंछ की तो उसे यह भान हया कि अभी उनके गाल की जल बिन्दुएँ पूंछने से बाकी रह गई हैं । अतः उसने वस्त्र से रगड़-रगड़ कर उन्हें पोंछना प्रारम्भ किया । परन्तु वे जल बिन्दुएँ जब साफ नहीं हुई तो उन्हें चमकते हए देखकर उसे आश्चर्य हग्रा। उसे पाश्चर्यचकित देखकर अचम्भे में पड़े हुए इन्द्र ने जब सूक्ष्म रष्टि से निहारा तो उसका
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वर्धमान चम्पूर्ण
पूर्वकं शक्रेण निगदितम् । मुग्धे ! नेमे कपोलस्था जलबिन्दवः, किन्तु तीर्थंकरस्य निसर्गत एवाप्रतिम सौन्दर्यशालित्वा प्रेमल्योपेते गण्डप्रदेशे स्वद्धुतनासिकाभर संलग्ननां मुक्ताफलानामेवा कृतयः प्रतिविम्बिता इमाः सन्ति । एवं सम्बोधितया तया तद्देहो वस्त्राभूषणैरनयें सुसज्जीकृतः । हर्षोत्सवोऽपि विशेषतस्तत्र जातः । नन्द्यावर्ताभिधानस्य राजभवनस्योपरि समारोपिलो वजस्तथासिक बजीकान्त्यस्यतोर्थकस्य चिह्नस्वरूपः सिंहस्तेन संस्थापितः । तत्र तावदिदमेव प्रधानकारणम क्लोकयामः - तिरश्चां मध्ये यथा भवति केशरी विजनबिहारिस्वात् निर्भयतागुणोक्तत्वात् समविषमभूमिसमदृष्टिस्यात्, "विशिष्टशक्तिसम्पन्नत्वात् निजलक्ष्यसंपादने व तन्मयत्वात् खल्बसाधारणस्वायमपि सामसम इति हरिलाञ्छनाङ्कनव्याजेन त्रिलोकोदरवतिनां प्राणिनां प्रशोधनाचा विसर्गमस्य वैशिष्ट्यं प्रस्थापितम् ।
परिहास करते हुए इन्द्र ने मुसका कर उससे कहा – मुग्धे ! ये जल-बिन्दुएँ नहीं हैं जिन्हें तू रगड़-रगड़ कर पोंछ रही है। ये तो तीर्थंकर है-प्रतः स्वभावतः ही इनका शरीर अप्रतिम सौन्दर्यशाली होता है । इसलिए अत्यन्त निर्मल कपोल प्रदेश में तेरी पहिरी हुई नथ के मोतियों के ये प्रतिबिम्ब हैं जो इस तरह यहां झलक रहे हैं। इस प्रकार अवगत होकर शची ने फिर प्रभु के शरीर पर वस्त्राभूषण पहिराये । इन्द्र ने वहां हर्षोत्सव भी विशेष रूप से किया । नन्द्यावर्त नाम के राजभवन के ऊपर जो ध्वजा समारोपित की गई थी वह सिंह के चिह्न से अलंकृत थी । अतः इस तीर्थंकर के श्री महावीर प्रभु के जो कि इस अवसर्पिणीकाल के अन्तिम तीर्थंकर थे चरणों में चिह्नस्वरूप इन्द्र ने सिंह स्थापित किया । इस चिह्न के स्थापित करने में मैं तो यही कारण समझता हूँ कि जैसे तिर्यञ्चों में सिंह प्रधान होता है और वह निर्जन अरण्य में विचरण करता है, उसे किसी का भय नहीं होता है । समविषम भूमि में वह समष्टि वाला रहता है, विशिष्ट शक्ति सम्पन्न होता है, और अपने लक्ष्य के सम्पादन में तन्मय होता है, उसी तरह यह पुत्र भी पुरुषों के बीच अनोखा हो मानव होगा । यही बात बिना कुछ कहे ही इन्द्र ने सिंह के चिह्न के ब्याज द्वारा समस्त त्रिलोकवत प्राणियों के समक्ष प्रकट की है ।
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वर्धमान चम्पू:
प्रमोभ्मत एवं नृपालमौलेः सिद्धार्थस्य विभयो यशः प्रतापः पराक्रमश्च विशेषतोऽवर्धतातोऽस्य बालकस्य नयनानन्यजनकस्याभिधानं वर्धमान इति सार्थक संस्थापितम् ।
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श्रभिषेकोत्सव वसानान्तरं शक्रो हरि गजमैरावताख्यं समारा राजमार्गेण संचरंस्ततः कुण्डनपुरं समाजगाम । पश्चाज्जिनजनन्याः समीपं समेत्य शची तं बालतीर्थंकरं तदभ्यर्णोऽह्नाय स्थापयामास । निखिलो निलिम्पपरिवारः स्वस्थानं प्रस्थितः ।
दिशः प्रसेदुश्च नमो बभूव विनिर्मलं तारकितं तदानीम् । खाता बबुमंद सुगंधीताः मार्गः समाः पंकविहीनाः ॥ ६ ॥
प्रभु के जन्म के प्रताप से नृपमीलि सिद्धार्थ का त्रिभव, यश, प्रताप, और पराक्रम दिन दूना और रात चौगुना बढ़ा । श्रतः नयनानन्दजनक इस बालक का नाम इन्द्र ने "वर्धमान" ऐसा सार्थक स्थापित किया ।
जब अभिषेक विधि समाप्त हो चुकी तब वापिस आने के लिए इन्द्र ऐरावत गजराज पर सवार होकर राजमार्ग से चलता हुआ कुण्डनपुर नगर में आया । शची जिनेन्द्र की माता के पास गयी और वहां जाकर उसने शीघ्र ही उस बाल तीर्थंकर को उनके पास रख दिया । इसके अनन्तर सब देवपरिवार अपने-अपने स्थान पर चला गया ।
प्रभु के जन्म के प्रताप से समस्त दिशाएं निर्मल थीं, प्रकाश भी निर्मल था। तारे उसमें दिखाई नहीं पड़ते थे । मंद शीतल सुगंधित वायु चल रही थी । समस्त पथ कीचड़ कंटक आदि से विहीन थे और सम थे ।। ६ ।।
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वर्धमानचम्पूः
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प्रभातवाताहतिफम्पमाना लता च पुष्पाणि ववर्ष मोदात् । मनल केकाध्वनि लाञ्छनेन गीति जगे, वायरवो बभूव ॥ १०॥
धनस्तनेभ्यः पयसां प्रवाहो,
विनिर्गतस्तम्अनिहर्ष भावात् । शशाम तस्मिन् समये विरोधो,
विरोधिनां गोपरि जायमाने ॥११॥
अयोधिशतितमपार्श्वनाथस्य तीर्थंकरस्य पश्चात् पंचाशवधिक द्विशतवर्षेषु व्यतोतेषु सत्सु शिष्टामस प्राईम बार मानहाधिक पंचशत संवत्सरेषु बोरजन्मनोऽयं काल पासीत् ।
प्रातः काल की वायु से हिलती हुई लतानों ने हर्ष के भावेग से ही मानो नाच-नाच कर पुष्पों की वर्षा प्रारम्भ कर दी; एवं मयूर की ध्वनि के बहाने से ही मानो उन्होंने मंगल गीत गाये । वादित्रों ने भी अपनी ध्वनि सुनायी ॥ १०॥
गायों के स्तनों से दुग्ध का प्रवाह झरने लगा । प्रभु के जन्मजन्य हर्ष के कारण उस समय परस्पर विरोधी जीवों का विरोध भी शान्त हो गया ।।११।।
२३वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के बाद इन वीर-वर्धमानभगवान् का जन्म हुआ । पार्श्वनाथ के मोक्ष चले जाने पर २५० वर्ष का इनके जन्मकाल में विरहकाल रहा । अर्थात् २५० बर्ष जब निकल गये तब भगवान् वर्धमान का जन्म हुआ । उस समय ईस्वी सन्-संवत्सर-प्रारम्भ नहीं हुआ था। यह संवत्सर तो वीर भगवान् के जन्म के बाद प्रारम्भ हुआ है । अर्थात् वीर भगवान् के जन्म के बाद जब ५६६ वर्ष व्यतीत हो
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वर्धमानचम्पू:
द्वितीयेन्दु कलायवर्धमानोऽसौ वर्धमानकुमारो बालोचितामिविविधाभिः स्वलीलभिजनननीजनको निखिलं च राजपरिवारं संत्रीणयन् सर्वेषां प्रीतेरास्पदं बभूव । जन्मत एवास्य वपुष्यप्रतिम सौन्दर्येण मुले राकासुधादीधितिना, नयनयुग्मे सरोजन नासिकायां यवनालका कणयुगले कीतिध्वजपटेन पाणावसाधारणबलेन पादारविन्दयोश्च पवित्र संक्रमणेन संस्थानमकारि। विग्रहोद्भुतनिखिलाङ्गोपाङ्गगणोऽस्थान्यूनोऽनतिरिक्तः पूर्णः प्रमाणोपेतश्चासीत् । नासीत्कुत्रापि कस्यचिपि किञ्चिदप्यल्पत्वं हीनत्वमधिकत्वं वा, सहजालिशयतोऽस्य देहः स्वाभाविक सुगन्ध सहितत्वात् गंधतिकालय इवाभवत्, नाभवतत्राल्पीयानपि प्रस्वेदलेशो परिमितबलस्य तत्राधिष्ठानात् । पाचनशक्तेरसाधारणत्वान्मलमूत्रादीनामप्यभावोऽभवत्तत्र । जातं च तस्य शुभ्रवर्णोपेतं शोणितं वेहे । मधुरा चास्य वाणी द्राक्षाया माधुर्यमपाकरोति स्म । विग्रहोऽप्यस्य कम्बु-चक्र
गये-तब से प्रारम्भ हुआ है । वर्धमान कुमार द्वितीया के चन्द्रमा की कला की तरह वृद्धिगत होने लगे । वे अपनी नाना प्रकार की बालोचित क्रीड़ानों द्वारा माता-पिता के एवं अपने समस्त पारिवारिक जन के मन को मुदित करते हुए उन सबकी परमप्रीति के पात्र बन गथे । जन्म से ही इनके शरीर में अनुपम सौन्दर्य था। मुख इनका पुणिमा के चन्द्र जैसा खिला हुआ था। दोनों नेत्र इनके कमल के जैसे सुहावने थे। नासिका इनकी यवनाली के समान मनोरम थी । कर्णयुगल इनका कीतिध्वज के वस्त्र जसा विस्तृत था । इनके बाहुयुगल असाधारण बल के भण्डार थे । पादार बिन्द इनके पवित्र चंक्रमण से सनाथ थे। इनका समस्त शारीरिक अंगोपाङ्ग पूर्णता से भरा हुआ था और अपने-अपने प्रमाण के अनुरूप था । वह न अधिक था न कम था। शरीर इनका स्वभावत: सुगन्धित था। अतः वह ऐसा प्रतीत होता था कि मानो धूपबत्ती का एक विशिष्ट घर ही हो । प्रभुके शरीर में पसीना नहीं पाता था, क्योंकि वह अपरिमित बलशाली था । मलमूत्र का भी वहां अभाव था—कारण कि प्रभु की पाचनशक्ति असाधारण थी । उनके शरीर का रक्त भी दुग्ध के जैसा शुभ्र वर्ण का था। प्रभु की वाणी इतनी मिष्ट थी कि उसके समक्षद्राक्षाका माधुर्य भी कुछ
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वर्धमानबम्पूः कंज-यव-चापाविप्रशस्तचिन्है रूपेतो देवरप्यलधनीयश्वासीत् । मासोदयं अन्मत एव ज्ञानत्रयेण समन्वितः ।
श्रीमत्पूज्य पुरुषाणां देवेषां चरमाङ्गिनाम् । पापूर लौकिका पनि निराहा ! १२ ॥
यथाऽयं बाह्यपदार्थावबोधनक्षमेण विज्ञानेनाद्वितीयो जज्ञे तर्थव स्वानुभूतिविधानदक्षेणाध्यास्मिकज्योतिषाऽप्यसम्बानुपम एव, यतः पूर्वमवे समुवितं क्षायिकाश्यं सम्यक्त्वमस्यात्मनि प्रकाशितमासीत् । एतादृशा विशिष्टानां महिम्नां सोऽयं तीर्थकरः साक्षात् पुज इवासीत् ।
नहीं था। उनका शरीर शंख, चक्र, कमल, यव और धनुष आदि के चिह्नोंवाला था । देवों का बल भी प्रभु के बल के समक्ष हेच था । प्रभु जन्म से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के धारी थे।
श्रीमान् पूज्य पुरुष्वों के, देवों के स्वामी इन्द्रों के और चरम शरीरवालों के प्राचार आश्चर्यकारक, अपूर्व एवं अलौकिक हुअा करते हैं ।।१२।।
जिस प्रकार प्रभु बाह्य पदार्थों के ज्ञान कराने में समर्थ विज्ञान से अद्वितीय थे, उसी प्रकार वे स्वानुभूति कराने में दक्ष ऐसी प्राध्यात्मिक ज्योति से भी असाधारण थे । क्योंकि पूर्वभत्र में समुदित हुआ क्षायिक नामका सम्यक्त्व इनकी आत्मा में प्रकाशित था । ऐसी विशिष्ट महिमानों के पुञ्ज वे तीर्थकर थे।
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वर्धमान चम्पूः
यदाज्यं नंद्यावर्तनाम्नि राजभवने जानुभ्यां संचरति स्म तवर मरिणनिर्मितायां भित्तौ प्रतिविम्बितं स्वात्मानं समुनीक्ष्य तद्विम्बं यवा गृह्णाति तदा संप्रेक्षकानां मनसि आयते स्मारेकेत्थम् यतीर्थंकरद्वयं किंस्वमिथो मिलति ।
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या कदाsसौ मरिपनिर्मितायां, भित्तौ समुद्वीक्ष्य चरन् सबीरः । रूपं स्वकीयं प्रतिबिम्बितं तज्जग्राह, चित्ते समभूज्जनानाम् ॥ १३ ॥
संप्रेक्षकानां नतु तीर्थंकर्तृद्वयं मिथो नो मिलतीति शास्त्रे, यदुक्ततत्तदिहास्त्य सत्यं यतश्च तौ द्वौ मिलतो ऽधुना ॥ १४ ॥
वायं जातोऽष्टवर्षायुष्क स्तदाऽनेन विनोपरोधादात्मशोधनाभिप्रायेण, स्वत एव पंचाणुव्रतानि महता ऽबरेगांगीकृतानि । हिंसानृतस्तेथाब्रह्मपरिग्रहेभ्यः पंचपापेभ्यो बिरतिरांशिकाऽणुव्रतस्वरूपा निगद्यते ।
जब ये नन्द्यावर्त नामक राजभवन में घुटनों के बल चला करते सब मणिनिर्मित दीवाल पर जब इनका प्रतिबिम्ब पड़ता तो उसे देखकर ये प्रभु उसे पकड़ने लगते, तब देखनेवालों के मन में ऐसी शंका होने लग जाती कि क्या ये दो तीर्थंकर आपस में मिल रहे हैं ?
यही बात इस श्लोक युग्म से प्रकट की है कि शास्त्र में तो ऐसा लिखा है— कहा गया है कि दो तीर्थकर आपस में कभी नहीं मिलते हैं सो यह बात सत्य प्रतीत होती हैं क्योंकि यहां तो ये दो तीर्थंकर मिल रहे हैं ।। १३-१४ ।।
जब वर्धमानकुमार ठीक ८ वर्ष के हुए तब इन्होंने बिना किसी के कहे ही अपने आप ही श्रात्मशोधन के अभिप्राय से पांच अणुव्रतों को बड़े आदरभाव से अंगीकार किया । इन पांच अणुव्रतों में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का प्रांशिकरूप से परित्याग हो जाता
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वर्धमानचम्पू: अतो हिसायाः प्रमत्तयोगात् प्राणज्यपरोपणरूपाया आंशिक परित्यागल्या विरतिहिसाणुव्रतम् । धनृतस्यांशिक परिवर्जन रूपा विनिवृत्तिः सत्याणअतम् । स्तेयस्यांशिकविरमणरूपा विरतिरचौर्याणुव्रतम् । अब्रह्मास्यस्य कुशीलस्यांशिक बिमोचनरूपा विरतिमह्मचर्याणुक्तम् । धनधान्याविरूपपरिग्रहस्यांशिकपरित्यागरूपं परिमाण विधानं परिग्रहपरिमाणाणुव्रतम् ।
एकदा श्रीवर्धमानकुमारस्यानुफ्म जानमहिमानं निशम्य समुद्भूतां तत्त्वविपिणी स्वीयामारेका परिमाष्ट्र संजयन्त-विजयनामानौ वौ चारणद्धि धारको मुविदरों यदा तस्याभ्यशं समागतौ तवा तयोस्तदर्शनमात्रत एव सा स्वीयारेका प्रशान्ता । चकितयोस्तयोर्मनसीदमेव तायभूव यवस्यैव स्वामिनो माहात्म्यमिदम् यदावयोस्तास्विकारेकान्दोलित हवयमस्य दर्शनमारत एव निश्शंकं जातम् । प्रतो विहितं ताभ्यामस्य नामधेयं सन्मतिरिति द्वितीयम् ।
तत्त्वार्थ निर्णयात्प्राप्य सन्मतित्वं सुबोधवाक् । पूज्यो देवायमाद्भूत्वाऽत्राकलको धमूविथ ॥
(उ. पु. ७३/२)
है । हिंसा की अांशिक निवृत्ति से अहिंसाणुनत होता है । झूठ की प्रांशिक निवृत्ति से सत्याणुव्रत होता है । चोरी की प्रांशिक निवृत्ति से प्रचौर्याणुव्रत होता है । कुशील की प्रांशिक निवृत्ति से ब्रह्मचर्याणुव्रत होता है । एवं धनधान्यादिरूप परिग्रह की मांशिक निवृत्ति से परिग्रह प्रमाण अणुनत होता है।
एक दिन की घटना है कि बर्धमानकुमार की अनुपम ज्ञान महिमा को सुनकर दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज जिनका नाम संजय और विजय था अपनी तत्त्व विषयक शंका को दूर करने के लिए उनके पास प्राये । ज्यों ही उन्होंने वर्धमानकुमार को देखा तो उनकी शंका दूर हो गयी। इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हना । चकित मन हुए उन्होंने यही सोचा कि यह सब कुछ माहात्म्य इसी का है कि इसे देखते ही हमारा शंका से अान्दोलित मन शंका-विहीन हो गया । इसलिए उन्होंने इनका दूसरा नाम 'सन्मति' रख दिया।
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बधमानचम्पूः । एकस्मिन् दिवसे: कुण्डलपुरे दृप्तो गजराज पालानस्तम्भमुस्पाट्य गलशालातो बहिनिर्गतो हाहाकार परान विरचयन् प्रजाजनान् धेगा
भ्रामेसस्ततः प्रतोलीषु, रथ्यासु, च हट्टेषु । हाटकस्थानां पण्यानां राशि मस्तव्यस्तं विदधानोऽसौ करेणुराजो जनानां घेतांसि विशिष्ट विभीषकया समन्वितानि कुर्वन् यथेचछंचिकोड । संत्रस्ता भयविह्वला जनता स्वप्राणान् संरक्षित कन्दुकवादितस्ततो बभ्राम । जातं निखिलनगरे सदाभयस्याखाएं साम्राज्यं । एवं प्रजाजनान् पिलान् कुर्वन् परिणतो मदान्धः सगजस्तत्राभिमुखीभूय जगामयत्र श्रीवर्धमानकुमारोऽन्य डिम्भः सह पांसुक्रोडारत पासीत् । समवत्तिनमिव विकरालं तं गजेन्द्र स्वाभिमुखीभूयसमायान्तं संवीक्ष्य क्रीडारतास्तेऽपरे बालका मयभीताः सन्तस्तवा पलायन्ते स्म । परन्त्वचलितधेर्यो बलिष्ठानां धुरीणो वर्धमानकुमारोऽत्रस्तस्तं द्विपेन्द्र स्वनादध्वनित दिक्तरः केशरीव हेलयैव स भयंकरमपि
दूसरी घटना यह है कि एक दिन कुण्डलपुर नगर में अालान स्तम्भ को उखाड़कर एक मदोन्मत्त गजराज गजशाला से बाहर निकालकर उपद्रव करने लगा । गलियों में, बाजारों में उस समय हाहाकार मच गया। लोगों को भयभीत करता हुना वह हप्त गजराज बड़े बेग से इधर उधर फिरने लगा और बाजारों की दुकानों में जो विक्रेय वस्तुएँ रखी हुई थीं उन्हें अस्तव्यस्त करता हा वह मनुष्यों के चित्त को विशिष्ट रूप से भयभीत करने लगा और अपनी इच्छा के अनुसार क्रीडा करने में लीन हो गया। संत्रस्त जनता अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए गेंद की तरह इधर उधर भागने लगी। उस समय समस्त नगर में भय का अखण्ड साम्राज्य छा गया। इस प्रकार प्रजाजनों में भय का द्रतगति से संचार करता वह परिणत गजराज उस तरफ बढ़ा जहां वर्धमान अपने हमजोली बालकों के साथ क्रीडा करने में रत थे । यमराज के समान विकराल उस गजराज को अपनी मोर पाते देखकर क्रीडारत वे बालक तो भयभीत होकर वहां से इधर उधर भाग गये परन्तु प्रचलित धैर्यधारी वर्धमानकुमार निडर होकर वहीं पर डटे रहे। उन्होंने उसी समय ऐसी ध्वनि की जिससे समस्त दिगन्तराल वाचालित हो उठे। देखते देखते ही उन्होंने उस भयंकर
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वर्धमानचम्पूः
अभयंकरं विधाय तर्जयन् भर्त्सयति स्म । पंचानन गर्जनामिव तद्गर्जना निशम्य मावलिप्तकपोलपालिः सः करेणुराजो बिलज्जितः संस्तत्रय भयाच्छुल्कमदो बभूव । विनीतान्तेवासिनमिव तस्थिवांसं सं संवीक्ष्य स कुमारी मार इव रम्याकारः शालमिव विशालं तत्स्कन्धं समारा वनमुष्टिप्रहारस्तं संताडयन् सर्वथा बिगसमदंविधाय स्ववशं निनाय ।
एतद्दन्तं समधिगम्य लुण्डलपुर निवासिनो निखिला जना महत्या श्रिया वर्धमानस्य तस्य वर्धमानकुमारस्य निभंयत्वं शौर्यत्वं च सुरम्यः प्रशंसायाधि संबोधनरलंकृत्य शंसन्ति स्म ।
एकदा संगमास्यः कश्चिद्देवस्तदीयां धैर्यसमज्ञां सौधर्मेन्द्रणामराणां परिषदि प्रगीतां निशम्य स्थविकियाबलेनदप्तो धूतसर्पराज स्वरूपो महावीरकुमारस्य निर्भयस्वं शौयं च परीक्षितुं तत्रागाद् यत्रासौ वृक्षस्मैक
गजराज को अभयंकर बना दिया । शेर की गर्जना की जैसी वर्धमानकुमार की बलिष्ठ गर्जना को सुनकर वह मदोन्मत्त गजराज लज्जित होता हया शुष्क मदवाला हो गया है । विनीत शिष्य के समान अपने समक्ष उसे खड़ा हमा देखकर कामदेव जैसे सुन्दर वे वर्धमानकुमार शाल-कोट-के जैसे विशाल उसके स्कन्ध पर सवार हो गये । सवार होकर उन्होंने वन के जैसे मष्टि प्रहारों से उसे ताड़ित किया । इस तरह निर्मद करके उसे बधेय-बेवकूफ के समान अपने वश में कर लिया । इस वृत्तान्त को मुनकर समस्त कुण्डलपुर की जनता ने बड़ी भारी विभूति के साथ उस वर्धमानकुमार की निर्भयता एवं शूरवीरता को प्रशंसावाचक संबोधनोंसे अभिनंदना--प्रशंसा की।
एक समय ऐसी एक घटना और घटी कि सौधर्मेन्द्र देवों की सभा में बैठकर वीर के शौर्य की कीर्ति का बखान कर रहा था, उसमें संगम नाम के देव को इन्द्र के कथन पर विश्वास नहीं हुआ, अतः उस अभिमानी ने उसी समय विक्रिया ऋद्धि के द्वारा सर्पराज का रूप बनाया और प्रभु की शूरवीरता एवं निर्भयता की परीक्षा लेने के लिए वह वहां लाया जहां कि वर्धमानकुमार अन्य समवयस्क बालकों के साथ क्रीडा करने में रत थे। उनकी यह क्रीडा वृक्ष के प्रधो भाग में हो रही थी। इस क्रीडा का नाम
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वर्धमानचम्पूः
स्पाधीमागे समवयस्क बालकः सत्रा क्रीडारत श्रासीत् । फणस्टोपं विदधानोः सौ परिवेष्टितवान् महाभयंकरो नागराजो विभीषिका जनयन् मकीड़ापरायणं भास्कराकारं कुमारं विभीषयितुं तस्यानो फूहस्य स्कन्धम् तं करालकालमिव विकरालं वीक्ष्याखिला क्रीडाकरणे तल्लीनाः कुमारा विटपाद् धरित्री निपत्य भयविह्वलाः स्वप्राणान् रक्षितुमिच्छन्तस्तेषु केचिद् यथामार्गमितस्ततस्ततः प्रपलायन्ते स्म चीत्कार ध्वनि कुर्वन्तः । केचिच्च संत्रस्ता धरिश्यामेद मूच्छिता मृता इषा भवन् । परन्तु कुमारो ऽसौ वास्तमहिनादी शिष्याएं बोध्यायाः संस्तेनैव सह क्रीडयामास । क्रीडाकरणानन्तरं तमाकृष्य तस्मादनोकहाद् दूरी चकार । राजकुमारस्य
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आमलकी क्रीडा है । इसे बुन्देलखण्ड में "अंडा डायरी" कहते हैं । वृक्ष पर चढ़कर अन्य बालक पहिले से वृक्ष पर चढ़े हुए अन्य बालक को पकड़ते हैं । यह उनके द्वारा न पकड़ा जाये, इसके लिये वह वृक्ष से नीचे कूद पड़ता है । इस तरह से यह कीडा बालक जन खेलते हैं | अपने फण को फैलाकर वह नागराज उस वृक्ष से लिपट गया । नागराज महाभयंकर था । भास्वराकार वाले कुमार को भयभीत करने का उसका अभिप्राय था । विकराल काल के समान उस भयंकर नागराज को देखकर कितने ही बालक तो जो कि खेलने में निमग्न थे डर के मारे वृक्ष से नीचे गिर पड़े और कितने ही उनके साथ अपने प्राणों की रक्षा करने के निमित्त इधर उधर चिल्लाते हुए भाग गये। कितने ही बालक जमीन पर मूच्छित होकर मृतक के जैसे हो गये । परन्तु वर्धमानकुमार उस ग्रहराज को देखकर अस्त नहीं हुए, प्रत्युत वे उस सर्पराज के साथ ही क्रीडा करने लगे । जब वे उससे क्रीडा कर चुके तब इसके बाद उन कुमार ने उसे वृक्ष से खेंच कर दूर फेंक दिया । सर्पराज ने जब राजकुमार वर्धमान की ऐसी निर्भयता
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यह कीड़ा में ने भी की है। इसके फलस्वरूप मेरा वांया हाथ टूटा, जो अभी तक टूटा का टूटा | ठीक नहीं हुआ ।
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वर्धमानचम्पूः
निर्भयतां बलाढ्यतां च संवीक्ष्य दिजुम्भमाणहषोत्कर्षः स नागराजो नुत्वा नवा व स्वमसि सत्यं महायोर इत्यभिधाय स्वस्कंधे च महामोदात्तमारोप्य यथेच्छं ललिस लास्यं संविधाय प्रसन्नमुद्रयोपेतो निजस्थानं निर्जगाम 1 तस्मिन् समये कुमारातिरिक्तास्तत्रापरे चक्रघर - कालघर - पक्षधराख्या इमे त्रयः कुमारा श्रासन् 1
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संगमेन विहिता तस्य नुतिस्थम्
तीर्थंकरप्रकृतिपुष्यजुषोजनस्य नैवास्ति किञ्चिदपि कार्यमाध्यमत्र । देवादयोऽपि ननु यत्प्रभवप्रभावाद् वश्या भवन्ति गणमान्यजनस्य का वा ।। १५ ।।
तीर्थकर्तत्वभूत्या ये भूषयन्ति जगत्रयम् । धन्या घरा गुहं तेषां पवित्रं जन्मना सत्ताम ।। १६ ॥
देखी और बलाढ्यता का विचार किया तो वह मारे हर्षोत्कर्ष के भूम उठा । अन्त में वह उनकी स्तुति एवं नमस्कार करके अपने कंधे पर उन्हें चढ़ाकर खूब नाचा एवं मोदमग्न होता हुआ "आप सच्चे महावीर हो" ऐसा सम्बोधित कर अपने स्थान पर वापिस चला गया। उस समय कुमार के अतिरिक्त वहां पर चक्रधर, कालधर एवं पक्षधर ये तीन कुमार थे ।
जिसने "तीर्थंकर" नाम कर्म की प्रकृति का बन्ध किया है, उसके लिये संसार में कोई भी मार्ग प्रसाध्य नहीं है । देवादिक भी जब उसके वश में हो जाते हैं तो अन्य साधारण जन की तो क्या गिनती है ।। १५ ।।
जो तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृतिरूप विभूति से जगत्रय को पवित्र करते हैं - विभूषित करते हैं ऐसे उन सन्तजनों के जन्म से वह गृह धन्य है और वह धरा भी धन्य है ।। १६ ।।
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बर्धमानचम्पू:
इक्ष्वाकुवंसवनचन्वन ! वंद्ययद्यपादारविन्द ! नसमौलिसुरेन्द्र सेच्य ! श्रीवर्धमान ! मह्नीय ! नमोस्तु तु तुभ्यं नमोस्तु जितकाममहारिमल्ल!
॥१७॥ चडामणे ! मनुकुलस्य बधावतंस ! नाथाहयान्वयसरोवर मंजकज ! है लिच्छवीयवरमंडन ! पुण्यमूतं ! श्रामण्यधर्मानलक्षक सुरलदीप !
॥१५॥ वीरातिधीर ! भवभोति विनाशकांघ्री मन्मानसे निवसतां सततं स्वदीयो। संसारसिन्धुतरणे तरणीयमानौ तौ मंगलं च कुरुतां नितरां अनानाम् ।
॥१६॥ इत्थं सुरेशजनकेन विनिर्मितेऽस्मिन्,
श्रीमूलचन्द्र विदुषा मनवावरेण । तार्तीयकः स्तवक एष गतो मुदे स्यात्,
स्वर्ग गतस्य जननीजनकस्य तावत् ॥
बाल्यकाल में ही कामदेव जैसे महामल्ल को पछाड देनेवाले है वर्धमान ! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार हो । प्राप इक्ष्वाकुवंशरूपी वन के चन्दन हो । बन्दीय जनों द्वारा आप सदा बन्दनीय हो । इन्द्रमुकुट झुकाकर आपके चरणकमलों की सेवा में निरन्तर तत्पर उपस्थित रहता है ।। १७ ।।
ग्राप मनुकुल के चूडामणि हो । विबुधजनों के मुकुट हो । नाथवंशरूपी सरोवर के सुन्दर कमल हो । लिच्छवि गणतन्त्र के मण्डन हो एवं धमण धर्मरूप निलय के आप रत्नदीपक हो ।। १८ ।।
हे बौरातिवीर श्री वर्धमान ! आपके भवभीतिविनाशक दोनों चरण मेरे हृदय में सदा विराजमान रहें क्योंकि जीवों को संसार रूपी समुद्र के पार करने में ये नौका के जैसे अवलम्बन स्वरूप हैं । अत: मेरी अन्तिम मनोकामना यही है कि प्रत्येक संसारी जीव इनकी छत्र छाया में रहकर अपनी दुखपरम्परा का विघात कर सत्यसुख का भोक्ता बने ।
तृतीय पुत्र सुरेशकुमार के जनक एवं मनवादेवी के पति मूलचन्द्र पण्डित के द्वारा निर्मित वर्धमानचम्पू काव्य में यह तृतीय स्तबक समाप्त ।
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चतुर्थ स्तबक'
विवाहोपक्रमः
येनाsधारि महामहाव्रतमयः शोलोऽपवर्गप्रदः,
स्वर्गश्रीललनाकटाक्षकलितामनपेक्ष्य लावण्यताम् । तारुण्यं विगणय्य गण्यकृतिमाऽरण्यापगाम्भः समम्,
आयुष्यं जललोलबिन्दुचपतं संचिन्त्य तस्मै नमः ॥
तारुण्ये जयिना स्मरं विजयिनं जित्वाऽथ भोगाई, वधे येन महौजसाऽतितरसा तीर्थंकरैरादृता । वीक्षा, Sक्षाश्वबलप्रसारशमने सुप्रप्रह्मोपमा, सोऽयं वस्त्रिशलात्मजो विभुवरो भूयान्ममव्याधिदः ॥ २ ॥
विवाहोपक्रम
जिसने जवानी को नदी के जल के समान अस्थिर समझकर और आयु को प्रोस की सलिल बिन्दु के जैसी मानकर महान् कठिन ब्रह्मचर्य महाव्रत का, जो कि श्रपवर्ग-मुक्ति का साधक हे धारण किया - पालन किया, तथा जिसने स्वर्गीय श्रीरूपललना के द्वारा अभिलषित अपने सौन्दर्य की जरा भी परवाह नहीं की ऐसे उस वर्धमानकुमार को मैं नमस्कार करता हूं ।। १ ।।
भोगों को भोगने के योग्य भर जवानी में जिस विजयी वीर ने जगज्जयी कामदेव को जीतकर बड़े भारी पराक्रम के साथ बहुत ही जल्दी तीर्थंकरों द्वारा श्राहत देगम्बरी दीक्षा धारण की कि जो इन्द्रियरूपी घोड़ों के स्वच्छंद गमन रूपी बल के थामने में लगाम के जैसी मानी गई है ऐसा यह त्रिशला का इकलौता लाल आप सबकी व मेरी व्याधि का विनाश करनेवाला हो ॥ २ ॥
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वर्धमानचापूः
स्वात्मानंद प्रकाशानिजहदि समसावल्लरीतिजुष्टास्तुष्टाः शिष्टाभिराध्या विधृतरामरमार्गुणः सद्विशिष्टाः। हष्टाचारित्रलरध्या विमलगुणगणाम निष्ठयाराधयन्तः, सन्तः सन्तु प्रसन्ना बदतु मम शुभां सिमालामनन्ताम् ॥३॥
पूर्वीयसंस्कारवशंगतो यो पुषापि दीक्षां धृतवान् मनस्वी। सिद्धार्थसाम्राज्यमवेत्यकारी संशलेयं प्रममामि नित्यम ॥४॥
अपासीरकंठीरवाकृतिरयं जन्मत एव सर्वाङ्गसुन्दरः साक्षात पंचशर इब पश्यतां वृष्टौ तथापि युवावस्थया यराज्यमाश्लिष्टस्तदा
वे सन्तजन सद्गुरुदेन—जो कि अपने हृदय में स्वात्मानन्द के प्रकाश से समस्तजीवों पर समतारूपी यल्लरी-बेल-की वृद्धि से परिपुष्ट होते रहते हैं, सन्तोषामृत के पान से जो सदा तुष्ट बने रहते हैं, शिष्टजन जिनकी आराधना में अनिश लगे रहते हैं, जिनकी निर्मल प्रात्मा में शमदम प्रादि जो कर्मों की निर्बरा के कारण हैं सदा अठखेलियां किया करते हैं और इसी कारण जो सज्जनोत्तम रूप से मान्य हो जाते हैं, चारित्र की निर्दोष माराधना से ही जो प्रसन्न चित्त रहते हैं एवं निष्ठापूर्वक और भी अनेक सद्गुणों की सेवा में जो अपने आपको समर्पण कर चुके होते हैं ऐसे थे महामहिमशाली सन्तजन मुझे प्रसन्न होकर ऐसी शुद्धबुद्धि रूप मासा प्रदान करें जो कभी भी मुरझावे नहीं ॥ ३ ॥
पूर्व भव के संस्कार के वशवर्ती हए जिस युवा महाबीर ने-वर्धमान ने-अल्पकाल में-वर्ष की अवस्था में विचारपूर्वक अणुव्रतरूप देशचारित्र को धारण किया और वंश परम्परा से चले आये हुए सिद्धार्थ नरेश के साम्राज्य का परित्याग कर दिया ऐसे त्रिशला के लाडले लाल को मैं सदा नमस्कार करता हूं ।। ४ ।।
सिंह के समान बलिष्ठ प्राकृतियाले वे वर्धमानकुमार यद्यपि जन्म से ही सर्वाङ्ग सुन्दर थे, अतः देखनेवालों की दृष्टि में वे साक्षात् कामदेव के
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पर्वमानबम्पूः ग्राणोल्लिखितवचमिव निखिलाङ्गोपाङ्गषु सौन्दर्यमुद्रोपेतो विशेषतो जानिष्ट । प्रत्यासाधारणशान-बल-वीर्य-पराक्रम-सेजस्तारमगरिमहिमा यत्र तत्र परितः प्रसृतः । प्रसोऽनेकेषां क्षितिभुमा स्वीय स्वीय सुताभिरनङ्गनाभिरिव कमनीयरूपाभिः साधं परिणयप्रस्तावास्तपितुः सिद्धार्पभूपतेः सविधे समागच्छन् । स्तेषु कलिङ्गदेशाधिपतिरेको जितमा विजितानेकशत्रुरप्यासीत् । पासोपस्मालयालारस्वरूपा अयोधिपसौन्दरास्ट्रिा लागुणालानांया विधाना विनिमितरूपा मास्वराकारोपेता यशोदेति नाम्ना विख्याता सुता त्रिशला सुतोद्वाह योग्येति राज्ञा सिद्धार्थन त्रिशलया महिन्या चैकमत्या स्वपुत्रस्य परिणय
जमे प्रतीत होते थे परन्तु फिर भी शाणोल्लिखित मणि के समान वे समस्त मंगोपागों में सौर मधिक विशेष रूप से तब चमके जब वे युवावस्थापन बने । उनके असाधारण ज्ञान, बल, वीर्य, पराक्रम, तेज और तरुणाई के गौरव की महिमा अब इधर उधर चारों ओर फैल गई थी, इसलिए अनेक राजा अपनी-अपनी पुत्रियों के साथ वर्धमान कुमार का वैवाहिक सम्बन्ध निश्चित करने के लिए उनके पित्ताश्री के पास प्रस्ताव लेकर आने लगे। इनमें एक कलिङ्ग देश के अधिपति जितशत्रु ने भी अपनी पुत्री के साथ वर्धमान का वैवाहिक सम्बन्ध निश्चित करने का प्रस्ताव सिद्धार्थ नरेश के पास भेजा । कन्या का नाम यशोदा था । यशोदा जितशत्रु के राजभवन की शोभारूप-अलंकार स्वरूप थी । इसके अंग-अंग से सौन्दर्य की प्राभा ऐसे चमकती थी मानो विधाता ने सद्गुणों को लेकर ही इसका रूप रचा हो । यह भास्वर प्राकारवाली, बड़ी सुहावनी एवं लुभावनी थी । वर्धमानकुमार के यह योग्य है ऐसा विचारकर राजा सिद्धार्थ और त्रिशलारानी दोनों ने मिलकर यह निश्चय कर लिया था कि वर्धमानकुमार का विवाह
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वर्धमानम्पूः
संबंधस्तवामा निर्णयोपेतो विहितः । तदनन्तरं सिद्धार्थः प्रभूतोत्साह - पूर्वकं तद्वैवाहिक समारम्भे संलग्नोऽभवत् । यतस्तच्चेतसीयमेव बलिष्ठोस्कंsssसीद् यवहं महोत्साहपूर्वकं पुत्रोद्वाहं विधास्य इति ।
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वैवाहिकसमारंभानवलोकयता वर्धमानकुमारेण
पृष्टस्तातः
तात ! किमर्थं भवद्भिरेते समारंभा प्रतन्यन्ते - तदोक्त' पित्रा प्रियपुत्र ! स्वविवाह कृते । निशम्य तज्जनकस्य वचो वर्धमानोभाणि - तात ! विवाहमहं नैव करिष्यामि । किमर्थ पुत्र ! परमसौभाग्यशालिना त्वयैव मुच्यते ।
यशोदा के साथ ही किया जाये । इस निश्चय के बाद सिद्धार्थ नरेश प्रबल उत्साह के साथ उनके विवाह की साधन सामग्री के जुटाने में व्यस्त रहने लगे क्योंकि उनके मन में यही एक प्रबल उत्कंठा थी कि वे बड़े ठाट-बाट के साथ ही अपने पुत्र वर्धमान का विवाह करेंगे ।
एक दिन की बात है कि वर्धमान कुमार ने वैवाहिक समारम्भ को जब देखा तो पिताश्री से पूछा- तात ! आप किसलिए इन समारम्भों में व्यस्त हो रहे हो ? पिता ने प्रत्युत्तर में कहा -- प्रियपुत्र ! तुम्हारा विवाह होना है ना- इसलिए उनकी साधन सामग्री के जुटाने में में व्यस्त हो रहा हूं। पिता के ऐसे वचन सुनकर वर्धमान ने कहा - पिताजी -- मैं विवाह नहीं करूँगा । पिता ने कहा- बेटा ! यह क्या कहते हो - विवाह नहीं करोगे - ऐसा क्यों ? तुम तो परम सौभाग्यशाली हो अतः तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिये ।
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वर्धमाननभ्यूः
अत्र समुचितं स्वोत्तरं प्रकाशयता कमारेण विनम्रमायेन निजाभिप्रायः सुस्पृष्ट शब्दः सवितारं प्रति प्रकटीकृतः । स्तुतपिचारधारयाऽवगतोऽपि पिता मोहात् सगद्गवकंठीभूय पात्रमेयमुवाच, नन्दन ! चिरमाणलषितेन स्बोद्वाहेनास्मान् नन्वय । सफलयास्मदीयां घिरपोषिताशां सद्भावनां च । सेवस्व सांसारिक सुखं, राज्यहर्यासनं चाध्यास्य प्रजाः पालय । यथाभिलषितं पश्चाद्धर्मचर । नाहं प्रतिपन्यो भविष्यामि ।
किञ्चित्काल निवस · निलये पालयोपासकास्यम्, धर्म पश्चाद् यतिवरवषं साधय स्वं प्रमोवात् । मुक्तवा सर्वान् प्रियसुत ! मदीयाभिलाषामपूर्णा, पूर्णा कृत्वा सुखय निखलान् दुःखदग्धान् स्वन्धन ।। ५ ।।
तव बर्मनि वर्ततां शिवं सततं से भवतात्त सुदर्शनम् ।
इस सम्बन्ध में समुचित उत्तर देते हुए कुमार ने बड़े विनम्र शब्दों में अपना अभिप्राय पिताजी को कह सुनाया। पुत्र की विचारधारा से अवगत हो जाने पर भी ममता के वशवर्ती होकर पिता ने गद्गदकंठ होकर पुत्र से कहा-बेटा ! चिरकाल से हमारी तो यही अभिलाषा थी कि हम तुम्हारा विवाह कर तुम्हें राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त कर । तुम प्रानन्दपूर्वक प्रजा का पालन करो । पश्चात् रुचि के अनुरूप धर्म का सेवन करो । में इस कार्य में तुम्हारा बाधक नहीं बनूंगा।
अतः तुम कुछ समय तक घर पर रहकर गृहस्थ धर्म का पालन करो । बाद में परिपक्व अवस्था हो जाने पर मुनिवर धर्म का सकल संयम का पालन करना । अभी तक पुत्र के प्रति जो पिता का कर्तव्य होता है उसे में पूर्णरूप से निभा नहीं पाया हूँ । अतः इस अपने कर्तव्य को मैं निभा तूं ऐसी जो मेरी अभिलाषा है उसे तुम पूर्ण करो–अपूर्ण मत रहने दो। ये जो तुम्हारे और भी बन्धुजन हैं उन्हें भी सुखी करो।।। ५॥
मैं तो यही चाहता हूं कि तुम्हारा अभिलषित मार्ग कल्याणकारी हो और हमें तुम्हारे पवित्र दर्शन निरन्तर होते रहें।
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वर्धमान वम्पूः इत्पर्धोक्तं सत्यागतमोहावेशेम निरुद्ध कंठः सजलनयनो नपोऽग्ने वक्तुं न शशाक । एवं विधां मोहबन्तुरितां पिसुर्यचनरचना समाकर्म पारावारगंभीरो बर्धमानकमारो मन्दस्मित कपटेन पीयूषषं विकिरनिवेस्थं मोहप्रध्वंसिनी मुवाच वाचम् । सात ! निखिलाः संसारिणोऽसुभृतः कर्मबंधन निगडिता विस्मृत्य स्वकीय स्वरूपं विविर्धा व्यसनपरंपरा भुजते, कथमेते वुःखगर्लभ्य उस्थिता भवेयुः, कथमिव वा वितय सांसारिक सुख मान्यतोद्भुत विविध विधि बन्धेभ्यश्चैते विरहिता मुक्ता वापुरीदृशं सन्मार्ग तान् बोधयितुममत्र वर्तमानपर्यायेऽवतीर्णोऽस्मि । अतः कथमहं तात ! स्वयं गृहस्थागधन निबसीगा सासर्ग हां कतुं सक्षमो भविष्यामि । किञ्च-हिंसामानविभ्रमदुराधारात्याचारा येऽधुना प्रसरिता प्रचलिताश्च सन्ति तेर्षा निराकरणरूपं महत्कार्य
इसके बाद सिद्धार्थ अपना अभिप्राय प्रकट नहीं कर सके—क्योंकि बीच ही में प्रागतमोह के आवेग ने उनके कंठ को अवरुद्ध कर लिया । पाखें उनकी डबडबा पायौं । इस प्रकार की मोह से सनी हुई पिता की वाणी को सुनकर समुद्र के सुल्य गम्भीर वधंमानकुमार ने मन्द मुसकान के बहाने मानो पीयूषरस को विकीर्ण करते हुए ही इस प्रकार से गम्भीर वाणी द्वारा अपना अभिप्राय पिताश्री से प्रकट किया हे तात ! संसार के जितने भी प्राणी हैं वे सब कर्मरूप बन्धन से बन्धे हुए हैं तथा निजस्वरूप को भूलकर · अनेकविध कष्टों को सहन कर रहे हैं । ये दुःखरूपी गों से बाहर कैसे निकलें, कैसे ये झूठे सांसारिक सुखों को सच्चे सुखों की मान्यता में फंसानेवाले कर्मों के बन्धन से रहित हों-मुक्त हों ऐसे सन्मार्ग का उन्हें बोध कराने के लिए तात ! मैं इस वर्तमान पर्याय में अवतरित हुअा है। अतः हे जनक ! मैं कैसे अपने प्रापको गृहस्थाश्रमरूप बन्धन से जकड़ कर उनके सभा सन्मार्ग की प्ररूपणा करने के लिए समर्थ हो सकूँगा । किश्च-इस समय हिंसा, अज्ञान, विभ्रम, दुराचार और अत्याचार फैल चुके हैं और इनका प्रचार भी हो रहा है, अत: इनके निराकरण करने का बहुत बड़ा
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वर्धमानः
मत्संमुखे समुपस्थितं समस्ति । अतः कथय कथमहं तात ! कम्मराजस्य मंगीकृत्य स्वदाज्ञावशवर्ती स्याम् । नाहं निरर्थकव्यापारेण स्वशक्तेरपव्ययं कर्तुमीहे । भोगान् भुक्त्वा भोमाभिलाषा प्रशाम्यति मान्यतया जगज्जनानां तात ! वह्नः प्रशमनाय घृताहुतिरिवानर्थावहा ।
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रक्तेन ब्रूषितं वस्त्रं यथा तात ! रक्तेन नहि शुध्यति तथेय विषयेविषयाभिलाषा नेव प्रशान्ता भवति - प्रत्युत विवर्धते । सा तु तस्यागेनंय । प्रतोऽहं न कांक्षे राज्यं न संध्यारागसमप्रभं भोगं न विविधकृच्छपरम्परा विवर्धकदक्ष मापातमनोहरं चोद्वाहमिति सुस्पृष्टमुक्तवतः, स्वध्येयसिद्ध्यर्थं स्वयम सिधारा वबुधूत ब्रह्मचर्यव्रतस्य स्वसुतस्य ज्ञान
कार्य मेरे समक्ष उपस्थित है । इसलिए आप ही मुझे समझा कि मैं कैसे कामराज की दासता स्वीकार कर श्रापकी श्राज्ञा की प्राराधना करूं। मैं निरर्थक व्यापार के द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करना चाहता हूं । भोगों को भोग करके भोगाभिलाषा मान्त हो जाती है ऐसी जो जगत्वर्ती जीवों की मान्यता है वह है जनक ! वह्नि - प्रग्नि को शान्त करने के लिए उस पर प्रक्षिप्त की गई घृत की श्राहुति के समान अनर्थकारी ही है ।
अरे ! रक्त से लथपथ हुआ वस्त्र क्या कहीं रक्त से साफ होता है ? यदि नहीं होता है, तो इसी तरह विषयों के सेवन से विषयाभिलाषा भी शान्त नहीं होती है । उसकी शांति का उपाय तो उसका परित्याग करना ही है | अतः हे तात ! मैं न राज्य चाहता हूं, न संध्याराग के समान भोगों को चाहता हूं और न दुःखों की परम्परा बढ़ानेवाले इस आपात मनोहर वैवाहिक सम्बन्ध को ही चाहता हूं। इस प्रकर स्पष्ट वक्ता ब्रह्मचर्यं व्रतधारी वर्धमान कुमार को अपने ध्येय की सिद्धि में अडिग देखकर मौर
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बर्धमानचम्पूः
गभिता वाचमित्थमुक्तां परिपीय पितृभ्यां विनिश्चतं यदयं परिणयबन्धनेन बद्ध न शक्यते कथमपि । अतो यवस्मं रोचते तदेवायं कुर्यादिति । तदनन्तरं न तौ पितरौ तद्वियोगकातरौ विवाहकते तं चोदयामासतुः। परं तूष्णीभावमास्थायव संस्थितौ।
प्रेष्मतरणिवदुदिता तरुणावस्था यदा संजायते सदा सर्वेऽपि मोहिनो जीवाः स्मराशावशतिनो जायन्ते । कालेऽस्मिन् कामवासना प्रबलवेगशालिनी स्रोतस्विनीव तरितुमशक्योभयकूलंकषा, तद्वशंगताः केचित्तु स्वजीवितुमपि मुचंति, वैभवं पाक विवेकमपि परित्यजन्ति, शालीनता विस्मरन्ति । मवोन्मत्तकरिण इव स्वास्मानं नानाविधव्यसनगर्तेषु
उनकी ज्ञानगमित वाणी को अच्छी तरह विचारकर माता-पिता ने यह निश्चय कर लिया कि अब यह विवाहरूप बन्धन से जकड़ा नहीं जा सकता । इसलिए जो इसको रुच रहा है वही इसे करने दिया जावे और इससे अब कुछ न कहा जावे । ऐसा समझकर उन्होंने वैवाहिक सम्बन्ध के लिए उन्हें फिर प्रेरित नहीं किया । दोनों शान्त होकर बैठ गये ।
जब ग्रीष्मावकाश के सूर्य के समान युवावस्था प्रकट होती है तब समस्त मोही जीव कामदेव की प्राज्ञा के आधीन हो जाया करते हैं । इस समय कामवासना प्रबल वेगवती हो जाया करती है और वह प्रबल प्रवाहवाली नदी के जैसी पार करने के योग्य हो जाती है 1 प्रबल प्रवाहवाली नदी जिस प्रकार अपने दोनों तटों को गिराती हुई बहती है उसी प्रकार कामी जन भी काम के प्रबल दाह से जब संतप्त हो जाता है तब वह भी अपनी आन-बान को, कुलपरम्परा को विसार देता है। कामरूपी वंचक की प्रपंचरचना से ठगाये हए कितने ही जन अपने जीवन की भी परवाह नहीं करते, न बे वैभव की परवाह करते हैं और न भोजन की और न शालीनता की ही । मदोन्मत्त हाथी की तरह वे कामी जीव अपने पापको नाना
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वर्धमानचम्पू:
निपातयन्ति । काम कुर्वन्तु साधारणजीवा मदनावेशनिरोधनेऽशत्ताः सन्तः सदाचारविवजिता निषिद्धमपि कृत्यं विधाय स्वासूत्यजीवनमपि विगर्हितमज्ञानाच्छादितमतित्वानात्र चित्रं भवन्तु वाले भ्रष्टा इतस्ततः । परन्तु पश्यन्तु स्वप्रबल पराक्रमेणादम्योत्साहेन च योऽजय्यशक्तिशालिन कान्तारैकान्तविहारिणं केशरिणं मदोद्धतं व भौतिकरं द्विरदं विजित्य स्ववशमानयन्ति बलिष्ठानामपि सुभटानां संभ्यं यः पराजित्य विजयश्रियं वृणोति सोऽपि कामराजस्थ प्रकृष्यमाणरागेण निजितस्तं विजेतुं सर्वथाशक्तो जायते । विहितमपि कृत्यं कर्तुं न लज्जते । यद्यपि संसारस्थाः सर्वेपि नरनारी- पशुपक्षिगोऽस्यैव कैंकर्यं कुर्वन्ति । अस्याज्ञातो बहिर्भूतो नास्ति खलु कोऽपि जीवः । प्रस्मादेव कारणाद् यावज्जीवं कामपीडापनोदनार्थं नरनारीमिथुनं मिथो मिलित्वा मैथुनं कर्माचरति । यद्यपि
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प्रकार के दुःखरूप गड्ढे में धकेल दिया करते हैं। भले ही चाहे ऐसे वे साधारण जीव मदन के वेग को रोकने में असमर्थ हों - अर्थात् ऐसे जीव भले ही आचार-विचार से रहित होकर निषिद्ध कार्य करके स्वकीय अमुल्य जीवन को गहित बनालें तो इसमें कोई अचरज जैसी बात नहीं है, कारण कि उनकी वृद्धि पर अज्ञान का परदा पड़ा रहता है, परन्तु जो प्रबल पराक्रमशाली हैं, अदम्य उत्साह के धनी हैं एवं प्रदम्य शक्तिशाली सिंह को जो कि एकान्त गहन वन में विचरण करता है तथा मदोन्मत्त भयंकर गजराज को परास्त कर अपने वश में कर लेता है तथा बलिष्ठ सुभटों की सेना को जीतकर जो विजयश्री का सवरण करते हैं, ऐसे वीर नररत्न भी कामराज के बढ़े हुए राग के आगे नतमस्तक - परास्त - हो जाते हैं - उसे वे परास्त नहीं कर पाते हैं। यद्यपि ये समस्त संसारी जीव – नरनारी, पशुपक्षी - इसी कामदेव की आराधना करने में मग्न रहते हैं । इसकी प्रज्ञा के बाहर रहनेवाला कोई भी संसारस्य प्राणी नहीं है । इसी कारण जीवन - पर्यन्त काम पीड़ा को शान्त करने के लिए नर-नारी का जोड़ा परस्पर में मिलकर मैथुन कर्म का सेवन करते हैं । यद्यपि जगत के
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वर्धमानचम्मूः जगजीवानामोशी यौवने सम्प्राप्ते सति वैषयिकवासना प्रबलयेगादुःस्थितिभवति । तथापि यूनोऽसाधारणपुंसो वर्धमानस्य चेतस्यास्या अदम्यायाः कामवासनायाः प्रभावोंऽशतोऽपि नाजायत, कारणं चामेवाह मन्ये
साझा बन्धुकुटुसङ्गिनिकरा नो शक्तिमन्तोऽभवन्,
ध्येयाच्चालयितुं स्थिरावपि जवात् स्यान्तं यदीयम् । वीरस्यास्य विचालने, कथमहं शक्तो भवेयं हहा:--
नङ्गत्वादिति वीक्ष्य तं विजयिनं स कामिस्थितः ॥ ६ ॥
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जीवों की यौवन अबस्था के आने पर वैषयिक बासना के प्रबल आवेग से दुःस्थिति होती रहती हैं फिर भी जवानी में आये हुए असाधारण पुरुष वर्धमान कुमार के चित्त में इस अदम्य काम वासना का जो प्रभाव अंशतः भी नहीं हुआ मैं इसका यह कारण मानता हूं
कामदेव ने ऐसा विचार किया होगा कि जब साक्षात् शरीरधारी बन्धुजन, माता-पिता प्रादि समस्त पारिवारिक जन भी जिसे अपने निश्चित ध्येय से विचलित नहीं कर सके तो मैं तो अनङ्ग हूं-बिना शरीर का हूं तब मेरी क्या हस्ती है जो विजयी वर्धमान कुमार को अपनी मोर बैंच सकूँ । ऐसा विचार कर ही मानो वह वहां न जाकर अन्य प्राणियों में कामोजनों में स्थित हो गया ।। ६ ॥
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वर्धमानचम्पूः
अथवा---
येनापूर्वमहौजसाऽतितरसा रागे प्रहारः कृतः, 'चित्रं वाऽपि किमन मे च भवताद् यद्दुर्दशाऽपीवृशी । इत्येवं सहसा विचिन्त्य भवतो निवेदिनो वेदिनो, वीराद् रागसखी व्यवाहमुखताभस्माद् तमिषु ॥ ७ ॥ श्रीवर्धमान कुमारेण तातं प्रतीवमप्युक्तम् - यथा—
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दृष्ट्वा रुद्धान् हरिरानिवहान् जातवंशग्यरङ्गः, प्राक्यं राज्यं परिणयविधि चोग्रसेनात्मजरं च । त्यक्त्वा स्वीयां जनकअननों, मुक्तिकामस्तपस्यां,
नेमिश्चक्रेऽहमपि च तथा तां करिष्यामि तात ॥ ८ ॥ द्रव्यात्मना नास्ति च कोऽपि कस्य संबंधबन्धेन जनो निबद्धः । पर्यायदृष्ट्यैव च तात- पुत्राः संबंधिनोऽमोह भवन्ति जीवाः ॥ ६ ॥
अथवा पूर्वज के धनी जिस वर्धमानकुमार ने मेरे प्रियसखा राग की ही जब दुर्दशा कर डाली है तो इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि मेरी भी उसी प्रकार से बे दुर्दशा कर डालेंगे । सो ऐसे ही विचार से वह कामदेव भव से विरक्त हुए श्रात्मवेदी उन वर्धमानकुमार के पास फटका तक नहीं, किन्तु रागियों के पास ही रह गया ॥ ७ ॥
श्रीवर्धमान ने पिताश्री से यह भी कहा
—
जिस प्रकार नेमिनाथ भगवान् ने बाड़े में रोके गये हरिणों की करुण पुकार सुनकर अपना वैवाहिक सम्बन्ध छोड़ दिया, राज्यसिहासन का परित्याग कर दिया, उग्रसेन नरेश की लाड़ली बेटी राजीमती का और माता-पिता श्रादि इष्ट पारिवारिकजनों का मोह छोड़ दिया एवं दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली, उसी तरह हे तात! मैं भी दीक्षा ङ्गीकार करूंगा || ८ ||
जब द्रव्य दृष्टि से विचार किया जाता है तो ये पिता-पुत्र आदि सम्बन्ध बनते ही नहीं हैं । ये तो सब पर्याय दृष्टि का ही विलास है-तमाशा है ।। ६ ।।
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वर्धमानचम्पूः
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I
इत्थं वर्धमानकुमारेण निगदितां वाणीं निशम्य पितृभ्यां विचारितंवर्धमानोऽयं सुकुमारः कुमारो यद्यप्यस्त्यस्मदीयः पुत्रः अस्मदपेक्षया च वयसि लघीयान् तथापि स्वाचारविचारे ज्ञाने चावामतिशेते । अतोऽस्मै हिताहितयोः कर्तव्या कर्तव्योरुपदेशनिर्देशो न शोभते । सूर्याय प्रदीपप्रदर्शनमिव । रविर्यथा स्वयं प्रकाशशीलस्तथैवायमपि विवेकसुपुब्जः । प्रतोऽस्मै शिक्षाकरणं जलेसलिलवर्षणमिव व्यर्थम् । श्रयं तु स्वयमेव farars शिक्षको नास्य कश्चिदपि शिक्षाप्रदाता । श्रतो धमुद्देशमुद्दिम्यायं जगति समवतीर्णस्तमुद्देश्य मेवायं सुखेन साधयतु । श्रावाभ्यामस्मिन् पवित्रतमेऽस्य सुकायें प्रतिपन्थिभ्यां न शव्यम् । एवं संप्रधार्यं ताभ्यां स्वपरात्मकल्याण विधायिन्या दीक्षाया श्राज्ञा दत्ता । उक्तं च- _fa! साध्य साधयेप्सितं न वयं स्मस्तव मार्गरोधकाः " । तदनन्तरं कलिङ्गदेशनरेशस्थ जितशत्रोर्वर्धमानकुमारेण सत्रा यशोदाया वैवाहिक प्रस्तावोsaोकारोक्तया निषिद्धः ।
I
—
वर्धमान कुमार ने जब ऐसा कहा तो सुनकर माता-पिता ने सोचा कि यद्यपि यह वर्धमानकुमार सुकुमार है और लौकिक दृष्टि से मेरा पुत्र है अतः इस दृष्टि से तो हम लोगों की अपेक्षा वय में लघु है, किन्तु अपने प्राचार-विचार से एवं ज्ञान से हम सब से ज्येष्ठ है इसलिए इसे हिल और अहित का कर्तव्य और अकर्तव्य का उपदेश देना हम लोगों को शोभा नहीं देता । वह तो सूर्य को दीपक दिखाने जैसा होगा । सूर्य जिस प्रकार स्वयं प्रकाशशील हैं, उसी प्रकार यह भी विवेक का सुपुञ्ज है, अतः इसे शिक्षा देना जल में जल-वर्षण के जैसा निरर्थक ही है । यह तो स्वतः ही विश्व का शिक्षक है । इसे शिक्षा देनेवाला इस समय यहां कोई और दूसरा नहीं है । इसलिए जिस उद्देश्य को लेकर यह यहाँ अवतरित हुआ है उस उद्देश्य को यह सुखपूर्वक सिद्ध करे । इस विषय में हम किसी भी तरह से इनके विरोधी नहीं होना चाहते । ऐसा निश्चय करके उन्होंने वर्धमानकुमार को स्व-पर हितसाधक दीक्षा की अनुमति दे दी और ऐसा कहा" आप अपना अभिलपित सफल करें हम आपके मार्ग में बाधक नहीं हैं ।" इसके बाद उन्होंने कलिङ्ग देशाधिपति द्वारा भेजे गये वर्धमानकुमार के साथ यशोदा के विवाह का प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया ।.
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पमानचम्पूः
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तत्पश्चात् तु कुमारोऽसौ न पुनयिवाहकृते सङ्केतभाषयाऽपि ताभ्यामुक्तः प्रेरितश्चेति ।
तीर्थकरवर्धमानकुमारस्य जनक: सिद्धार्थः कुण्डनपुरस्य शासकस्सन्मातामहश्च चेटको नृपतिर्वैशालिगणतन्त्रस्य प्रमुखो नायकोऽनेकेषां क्षितीश्वराणामधिपतिश्चासीत् । अतः सर्वाणि राज्यसुखानि वर्धमानकुमारेण प्राप्तान्यासन्, न कस्यापि वस्तुनोऽल्पीयानप्यभावस्तस्मै कृते तत्रासीत् । शारीरिक-मानसिकव्यथा-कथापि तत्राल्यानतोऽपि श्रोतुं सुलभाऽऽसीत् । भवेद् यदि स विवाहार्थो, तवा देवदुर्लभाभिः क्षितिपत्यास्मजाभिः साकं परिणयप्रस्तायं स्वीकृत्य स्वोद्वाहं च कारयित्वा तत्सुखमनुभूय कुण्डनपुराधिपतित्वसिंहासनमालंकृत्य क्षितिपतिएवं लभेत ।
' इसके बाद फिर उन्होंने कुमार से किसी भी तरह की संकेत भाषा
संक के द्वारा भी पुनः विवाह के लिए नहीं कहा और न उन्हें मजबूर ही 1. किया।
तीर्थकर वर्धमानकुमार के पिता सिद्धार्थ कुण्डनपुर के शासक थे और उनके नाना राजा चेदक वैशाली गणतन्त्र के प्रमुख नायक थे एवं अनेक राजाओं के अधिपति भी थे । इस दृष्टि से वर्धमानकुमार को सब सुख प्राप्त थे । उनके पास किसी भी वस्तु को थोड़ी सी भी कमी नहीं थी । न कोई शारीरिक कष्ट था और न कोई चिन्ता । सब प्रकार से राजपुत्र होने के कारण बीसों अंगुलियां घृत में थीं । यदि वे विशह करना चाहते तो देवलोक में भी दुर्लभ रूपवाली राजकन्याओं के साथ परिणय का प्रस्ताव स्वीकार कर लेते और अपना विवाह करवाकर बैवाहिक सुख भोगकर एवं कुण्डनपुर के नरेश बनकर क्षितिपति पद को प्राप्त कर लेते । परन्तु इन
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वर्धमानवम्पू:
परन्त्येतेषु सांसारिक कृत्येष्वशरणेष्वशुभेष्वनियेष्वनात्मनौनेषु तस्य स्वभावत एवाभिरुचिर्नाऽभवत्, अतः स यथा सलिलस्थितं सरसिजं सलिलेनालिप्तं भवति तथैव मनसा वाचा कर्मणाऽपि ब्रह्मचर्यव्रतरतोऽसौ सर्वसुखसाधनसम्पन्नोऽपि समीहापूतिपूरकपदार्थसंभृते राजभवने निवसन्नपि सांसारिकमोहमायाभिनिलिप्तोऽभवत् ।
धन्या सा जननी पिताऽपि सुकृती गेह च तत्पावनम्, धन्या सा घटिका रसाऽपि महिता तवासरो वा महान् । धन्यः श्रेष्ठतमः क्षणः स विभुना यो जन्मनाऽलंकृतः, श्रीतीर्थकरनामकर्मदघता बीरेण कर्मारिणा ॥ १० ॥ धन्यास्ते जगतीतले नरवरा येऽन्यस्य दुःखेन बै, पायंत व्यथिता "समस्त मयि तद्" बुद्ध्वेति तद्धानये। स्वीयं सर्वसुखं विहाय नितरां चेष्टन्त इत्थं च ते, देवा एव च मानवतनौ सर्वत्र लब्धावरः ॥११॥
सांसारिक अशरणभूत, अशुभ, अनित्य और अनात्मनोन कार्यों में उनकी स्वभावतः रंचमात्र भी अभिरुचि नहीं थी। इसलिये वे जल में रहते हुए भी उससे अलिप्त कमल की तरह मन से, वचन से एवं काय से ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए सर्वसुख साधन सम्पन्न होते हुए प्रत्येक इच्छा की पूतिपरक राजमहल में निवास करते हुए भी वहां की किसी भी वस्तु से इन्हें माया-मोह नहीं था।
वह माता धन्य है, वह पिता भी भाग्यशाली है, वह घर भी पवित्र है, बह घड़ी भी सर्वोत्तम है, वह भूमि पूज्य है, वह दिवस भी महान् है, वह क्षण भी सबसे श्रेष्ठ है कि जो कर्म शत्रु के प्रवल बैरो भगवान् महावीर के जन्ममंगल से अलंकृत हुआ है मंगलमय हुआ है ।। १० ।।
संसार में उन नर रत्नों का जन्मधन्य है जो दूसरों के दुःखों को अपना ही दुःख मानते हैं एवं उनके दु:खों को दूर करने के लिए अपने सुखों को छोड़ देते हैं । ऐसे वे मानव-तिलक मानव शरीर में देवरूप ही होते हैं । संसार उनका स्वागत अपने पलक-पांवडे बिछाकर करता
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वर्धमान चम्पूः
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यथा सुवर्ण पुटपाकयोगाद्विनिर्मलं सल्लभते प्रतिष्ठाम् । तथैव कैवल्यकृतेऽयमात्मा तपोऽग्निना शुद्ध्यति तीव्रभासा ।। १२ ॥
मुमुक्षुभिस्तीव्रतमातपेन तपोऽग्निनात्मा परिशोधनीयः । इत्थं विश्व स बोरवीरो विहाय राज्यं सुतपांसि तेथे ॥ १३ ॥
अखण्ड ब्रह्मचर्यवतरेपगूहितोऽयं तत्र राज्यभवने द्वादशदिवसोपेताष्टमासाधिकाष्टाष्टाविंशतिवर्षाणि यावदवास ।
सम्यग्दर्शन-बोध- वृत्तमतुलं
संधारयश्वावरात्
स्वस्थानोचितसद्गुणैश्च विविधैः स्वं मोदतो वासयन् । वराग्योद्भवकारकहितव हैनित्यं वचोभिः श्रितः,
स श्रीमत्रिशलात्मजो भवतु मे मोहान्धकारापहः ।। १४ ।।
जैसे सुवर्ण पुटपाक के योग से निर्मल बनकर प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है, उसी प्रकार यह श्रात्मा भी तपरूपी श्रग्नि के द्वारा शुद्ध होकर कैवल्यरूप जो अपना स्वभाव है उसे प्राप्त कर लेता है ।। १२ ।।
"मुमुक्षुजीव का यह कर्तव्य है कि वह तीव्रतम श्रातापवाली तपस्यारूपी अग्नि के द्वारा अपने आपका संशोधन करे" ऐसा विचार करके ही वीराग्रणी वर्धमान कुमार ने राज्य का परित्याग कर अनेक तपों को तपादिगम्बरी दीक्षा अंगीकृत की ।। १३ ॥
श्रखण्डब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वर्धमानकुमार राजभवन में ८ माह १२ दिन अधिक २८ वर्ष तक रहे ।
निर्दोषरीति से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का श्रादरपूर्वक पालन करते हुए त्रिशला के लाल ने त्याग, तपस्या के लायक अनेक सद्गुणों से अपने आपको वासित किया एवं हितकारक ऐसी वैराग्यवर्धक दिव्यध्वनि से जिसने जीवों को सम्बोधित किया ऐसे वे त्रिशला के प्यारे पुत्र मेरे मोहान्धकार को नाश करनेवाले हों ॥। १४ ॥
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वर्षमानचम्पूः
ध्यथां स्वकीयां च तृणाय मत्वा मधंनेऽभून्महती विवग्धा । वयावती सा जननी मदीया दिवंगतां तां प्रणमामि नित्यम् ॥ १५ ॥
इत्यं महेशजनकेन विनिर्मितेऽस्मिन्,
श्रीमूलचन्द्रविदुषा मनवाषरेण । तुर्यों गतः स्तवन पथ मनोभु स्याल,
स्वर्ग गतस्य जननीजनकस्य तावत् ॥
चतुर्थः स्तवकः समाप्तः
जिस दयालु माता ने मेरा पालन-पोषण बड़ी सावधानी से किया उस दिवंगत माता को मैं सर्वदा नमस्कार करता हूं ।। १५ ॥
चतुर्थ पुत्र महेश के पिता एवं मनवादेवी के पति मूलचन्द्र पण्डित के द्वारा निर्मित इस वर्धमानचम्पू नामक प्रबन्ध में यह चतुर्थ स्तबक समाप्त हुआ।
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पंचमः स्तबकः
संसाराद्विरक्तिः
संसारे भ्रमता मया बहुविधा एकेन्द्रियरचा भवाः, प्राप्तास्तेषु न कुत्रचिन्ध समभूत् स्वोत्थानभावोद्गतिः । प्राप्तेऽस्मिश्च विमुक्तिदायकपदे में साऽधुनाऽजायत,
सेव्यस्तहि न जायते क्षणमपिं द्वेष्यः प्रमादोऽत्र मे ॥ १ ॥
संसारोऽयं विविधविधया संभृतो दृश्यतेऽत्र,
स्वष्टानां हा ! समयसमये दिप्रयोगः पुरस्तात् । संयोगश्च प्रतिपल मिहानिष्ट जीवेन सार्धम्, नैराकुत्थं कथमिव भवेत् संसुतौ मानवानाम् ॥ २ ॥
पंचम स्तबक
संसार से वैराग्य
संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने अनेक प्रकार की एकेन्द्रियादिक पर्यायों को धारण किया है। उन पर्यायों में से किसी भी पर्याय में "मैं अपना उद्धार करूँ" ऐसा भाव जागृत नहीं हुआ । अब मुझे पूर्णरूप से आत्मशोधन जिसमें हो सकता है ऐसी यह मानव पर्याय प्राप्त हुई है अतः आत्मसाधना करने में मुझे एक क्षण का भी शत्रु रूप प्रमाद नहीं करना चाहिए ।। १ ।।
यह संसार अनेक प्रकार की घटनाओं से भरा हुआ है। देखीवियोग और अनिष्ट का संयोग परिणति में निराकुलता कैसे
समय समय पर यहां देखते-देखते इष्ट का होता रहता है अतः संसारी मानवों की ा सकती है ? ।। २॥
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वर्धमानचम्मूः माता मृत्वा भवति भगिनी सापि पुत्री सुतापि,
मृत्वा पौत्री भवति भवने पर्यये न स्थिरत्वम् । नानायोनावहमपि तथाऽनादिकालाभ्रमन् सन्,
संप्राप्तोऽत्र प्रयलसुकृतान प्रमावो विधेयः ॥३॥
इत्थं देशावधिना विमश्य बोरो बभूव निविण्णः । संसृतिभोगतनुभ्यो वियरिने महोत्साहः ॥ ४ ॥
प्रथान्येधुर्वर्धमानस्य स्वभवने सुखासीनस्य सहसा स्वीयपूर्वभवस्य संस्मरणं संजातम् । तवाऽस्य चेतसि विज्ञानमीवृशं समुत्पन्नं, यवहं पूर्वभवे द्वाविंशत्यधिप्रमाणायुष्कोऽच्युतदेवलोकाधिपतिरिन्द्र प्रासम् । तत्र
यहां तो माला मरकर भगिनी, भगिनी मरकर पुत्री, और पुत्री मरकर पौत्री हो जाती है । इस तरह कोई भी सांसारिक पर्याय एक रूप में स्थिर नहीं रहती है । अनादिकाल से मैं भी नाना पर्यायों में जन्ममरण करता हुआ किसी प्रबल पुण्य के उदय से इस मानब पर्याय में पाया हूं अतः अात्मसाधना में प्रमाद करना श्रेयस्कर नहीं है ।।३।।
इस प्रकार जन्मजन्य देशावधि ज्ञान के द्वारा विचारकर वर्धमानकुमार संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गये तथा कर्मरूप शत्रुओं को विनष्ट करने के निमित्त उनमें प्रबल उत्साह बढ़ गया ॥ ४ ॥
एक दिन की बात है जबकि वे अपने भवन में सुखशान्ति में मग्न हुए विराजमान थे, सहसा उन्हें अपने पूर्वभव स्मृत हो पाये । उससे उन्हें यह जानने में देर नहीं लगी कि मैं पूर्वभव में २२ सागर की आयुवाला अच्युत स्वर्ग का इन्द्र था। वहां मैंने जीवन पर्यन्त दिव्य भोगोपभोगों को,
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वमानपम्पू:
109 मया यावज्जीव दिव्या नरभवदुर्लभा विविधा भोगोपमोगा मुक्ताः । इतः पूर्व संधमाराधनाया बलेन मया तीर्थकरनामकर्म निबद्धम् । अस्मिन्नुपात भवेऽस्योदयो भवितुमर्हः । अधुना विवेकबोधविश्लवा जना कुष्कृस्यामाममाचाराणां पुष्कलानां प्रचार प्रसार व कुर्वन्त इतस्ततो भ्रमन्सो दरोदृश्याते । अतस्तेषां निरसनं परमावश्यकम् । यावदहं संपमं न ग्रहीष्यामि तावन्मे न भविष्यात्मशोधनम् । अतस्तस्माइते कथमहं रागद्वेषविहीनः सन् ज्ञाता द्रष्टा स्यामस्मात्कारणात्पूर्णशुद्धत्व बुद्धत्वाप्य मया यसनीयमिति ।
विश्वकल्याणकामनया प्रेरितान्तःकरणेन मया मोहममतापङ्काउहिनिर्गत्यात्मस्वरूपो धर्मोनूनमाराधनीयस्तदेवात्मस्वरूपविकसितो मे कर्ममलापगमा भवेत् ।
जो इस मानव पर्याय में सर्वथा दुर्लभ हैं, भोगा है । इसके पहिले मैंने संयम की अाराधना की थी। उसके प्रभाव से मुझे तीर्थकर नामकम की प्रकृति का बंध हो गया था । अब इस वर्तमान भव में उसका उदय होनेवाला है। इस समय जो जन विवेक से विहीन होकर अपार दुष्कृत्यों एवं अनाचारों के प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं, उन्हें इन कुकृत्यों से रोकना परमावश्यक है । जब तक में संयम ग्रहण नहीं करूँगा, तब तक मेरी आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकेगी और उसके बिना राग-द्वेष विहीन नहीं हो सकेगा। इसके विना शाता-द्रष्टा नहीं हो सकता । अतः पूर्ण शुद्ध-बुद्ध अवस्था की प्राप्ति के लिए मुझे प्रयत्न करना चाहिये। . .
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बर्धमानबम्पूः - इस्थं विचिन्तयतो वर्धमानस्यान्तःकरणे राज्यादिको निखिला विमूर्ति तृणाय मन्यमानस्य सर्वथा मुक्तिकमनीयकान्ता दूतीभूतो वैराग्योजिनि । सत्यं--वैराग्यमन्तरेण कर्मणां प्रक्षयो नैव भवितुमर्हः । प्राबाधाकालमतिकम्योदयागतेषु कर्मसु जीवानामवस्थासु विविधं वैचित्र्यमित्थं जायमानं समवलोक्यते।
प्रातर्यत्र मृदंगनादनिवर्हनोंतो महानुत्सवः,
सायं तत्र हहामहारवयुतं संधूयते वन्दनम् । क्वाप्यास्से नयनाभिरामतरुणांनी गानभानन्दधम्,
क्वाप्यास्ते शवदर्शनं पितृवने वंदह्यमानं हहा ! ॥५॥
इस प्रकार विचारधारा में निमग्न बर्धमानकुमार के अन्तःकरण में जो कि बाह्य विभूति रूप राज्य प्रादि को तृण के समान निःसार मान रहे थे सर्व प्रकार से वैराग्य उत्पन्न हो गया। यह बैराग्य ही मुक्ति रूपी कमनीय कान्ता का स्वामी बनाने में दूती का काम करता है । यह सत्य है कि कर्मों का क्षय करानेवाला यदि कोई साधन है तो वह वैराग्य ही है। याबाधाकाल के बंधे हुए कर्म जब उदय में आते हैं तब जीवों की प्रवस्थाओं में विचित्र प्रकार का परिवर्तन इस प्रकार से होता हुआ देखा जाता है
प्रातःकाल जहां गाजेबाजों की गड़गड़ाहट के साथ अनेक उत्सव हुए थे, हम देखते हैं कि सायंकाल वहीं पर प्रातध्वनि के साथ रोना धोना मचा हुआ है। कहीं पर सौन्दर्य विभूषित ललनाओं के मधुर गीत सुनाई देते हैं, तो कहीं पर घमसान में जलते हुए मुर्दे देखने में आते हैं ।। ५ ।।
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वर्षमानवम्पूः
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श्वानः कुत्र च भक्षयन्ति विविधं मिष्ठान्नदुग्धाविकम्,
केचिद्दोनजनाः स्वपन्ति निशि चक्षुत्क्षामकंठोवराः । केचित्षड्रसभोजनानि मुवित्ता नित्यं लभन्ते नराः,
कृत्वाऽपोहपरिश्रमं न लभते पर्याप्तमन्नं जनः ॥६॥
हसासी महानि केऽपि वस्नेतर्याणि नित्यं जनाः,
जीर्णान्यऽप्यपरे न शीतसमये संप्राप्नुवन्त्यंगिनः । केचिच्छोलविभूषिता अपि सदा सीदन्ति वामे विधौ,
पापासक्तधियोऽपि केऽपि सततं देवप्रिया मोदिनः ॥७॥
यत्रासननिशं मुवंगनावनिबह ध्यानैरनेकोत्सवाः,
रम्यस्त्रीकरपल्लवमणिमयी रङ्गावलिः कल्पिता । वैवे हा! प्रतिकूलतामुपगते ध्वस्ता नभः स्पशिणः,
हस्तेि ऽपिमहीक्षितां शिवरवस्तत्रावनौ श्रूयते ॥ ८ ॥
कहीं पर कुत्तों को दूधमलाई के लड्डू खिलाये जाते हैं तो कहीं पर दीनहीन मानव भूखे पेट रहकर विकल होते रहते हैं । कहीं पर कितने ही मानव षडरसमिश्रित भोजन करते हैं तो कहीं पर पूर्ण परिश्रम करके भी कितने हो मानव पर्याप्त भोजन प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।। ६ ।।
कितने ही मानव यहां ऐसे भी हैं जो प्रतिदिन बेशकीमती नबीननवीन वस्त्र पहिनते हैं और कितने ही ऐसे भी हैं कि जिन्हें शीतकाल में भी जीर्ण-शीर्ण वस्त्र नहीं मिलते । कितने ही शीलशिरोमणि जन ऐसे भी देखने में पाते हैं जो रात-दिन दुःखित रहते हैं और कितने ही पापी जन देव की अनुकुलता से मौजमजा उड़ाते हुए देखे जाते हैं ।। ७ ।।
जिन राजमहलों में हमेशा चौघड़िया बजा करता था, मनोमुग्धकारिणी सुन्दरियां मणियों के चौक पूरा करती थीं, जब वहां देव की अकृपा बरसी तब वे नभस्तलस्पर्शी राजमहल जमींदोज हो ममे और अब उनमें केवल भूगालों की ध्वनियां ही सुनाई देती हैं ॥ ८ ॥
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वर्धमानपम्पूः लक्ष्मी व ललनेव पावयुगयोः संवाहन सादरम् ।
कृत्वा नृत्यति तस्य तस्य पुरतो यस्यानुकूलो विधिः । किचात्येवमोग्यसौख्यपतनं दोन संपले.
यस्योपर्य निशं सरोजसदृशो दृष्टिप्रसारो विधेः ॥ ९॥
विव्यस्त्रोनयनावलीभिरभिताः संबोक्षिता मुंजते,
सौख्यानीह सुदुल मानि कृतिनः केचिद् यथेच्छ नराः। केचिद्वामविधौ विनय वनिता तान्ताः सदा दुःखिनः,
वैक्लव्यं कलयन्ति हा ! पररमासंवीक्षणरात्मनि ॥ १० ॥
तल्पस्था नपि केऽपि देवदयया नित्यं प्रमोदान्तिाः ,
निद्रव्याश्च तदीयदृष्ट्यपथिका उद्योगिनो दुःस्थिताः । गुण्यप्राव अपि मानवा विधिदशानिर्वाह चिन्ताजिताः,
जायन्ते, ननु केऽपि निर्गुणजना मित्योत्सवा नंदिनः ।।११।।
भाग्य जिनके अनुकूल होता है उनके दोनों चरणों की सेवा ललना जैसी बनकर लक्ष्मी बड़े प्रादर के साथ करती है । वह उनके समक्ष नाचती रहती है। अधिक क्या कहा जावे-सांसारिक जितने भी सुख हैं वे उसी जीव को प्राप्त होते हैं जिसके ऊपर भाग्य की कमल जैसी कोमल दृष्टि है ।।
जिसके ऊपर देव की दया होती है, ऐसा भाग्यशाली मानव ही संसार के देव-दुर्लभ सुखों को इच्छानुसार भोगता है और जिसका देव अनुकूल नहीं होता वे धर्मपत्नी के बिना दुःखित होते रहते हैं और पर पत्नी को देखदेखकर अपने पाप में दुविचारों से विकल होते रहते हैं ।।१०।।
जिनके ऊपर देव की परम कृपा बरसती रहती है, वे बिना किसी परिश्रम के भी पलंग पर बैठे चैन की बंशी बजाया करते हैं । जो व्यक्ति इसकी कृपा से वञ्चित होते हैं वे परिश्रम करते हुए भी लाभ से विहीन रहते हैं । उनका जोवन दुःखमय बना रहता है । भले ही वे गुणियों में भी श्रेष्ठ हों पर उन्हें पेट भरने के भी लाले पड़े रहते हैं । देव की अनुकूलता में निर्गुण जन भी सदा निराले ठाट बाट वाले देखे जाते हैं ॥ ११ ॥
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वर्धमानखम्पूः
शिष्टायते यत्कृपया sध्यशिष्टः शिष्टोऽपि वा यत्प्रतिकूलतायाम् । श्रशिष्टवद्भाति विधेः प्रभावो ह्यचिन्तनीयोऽस्ति विचिन्तयन्तु ।। १२ ।।
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केचित्पुत्रविहीनाः संक्लिष्टाः सन्ति, केऽपि तत्सहिताः । मृस्यौ तस्य च केचित् केचिद्नुर्षु सितस्तस्य ॥ १३ ॥
वैराग्योद्भूत्यनन्तरमेव सकलश शिविम्यामवदना एकलवावतारिणो ब्रह्मलोकान्तनिवासिनो बालब्रह्मचारिणो निलिम्पा लौकान्तिकास्तनिकटे समावि भूताः । विततहर्षोत्कर्षनद्धान्तराः प्रोचुस्ते वर्धमानवंराग्यशालिनं वर्धमानं भगवन् !
पुण्यरूप देव की महरबानी से प्रशिष्ट भी शिष्ट और शिष्ट भी अशिष्ट बन जाया करता है । सच है विधि का प्रभाव अचिन्त्य है || १२ ||
संसार की गति ही बड़ी विचित्र है, देखो ! कोई पुत्र नहीं है तो दुःखी है, कोई पुत्र है तो दुःखी है। कोई होकर उसके कालकवलित हो जाने पर दुःखी है, कोई उसके दुर्व्यवहार से दुःखी है ।। १३ ।।
अतः सांसारिक मार्ग में पतित जितने भी प्राणी हैं वे सब प्राकुलित हैं । निराकुलता एक क्षण की भी नहीं है। बिना निराकुल हुए श्रात्म-सुखशान्ति मिल नहीं सकती । इस प्रकार वैराग्य की जब प्रभु को उद्भूति हुई तो उसी समय ब्रह्मलोक के अन्त में रहनेवाले लोकान्तिक देव जो कि बाल ब्रह्मचारी होते हैं और मनुष्य का एक भव लेकर मोक्षगामी होते हैं महावीर प्रभु के निकट आये। इनका मुख मण्डल पूर्णमासी के चन्द्रमा के जैसा था । हर्षो में मग्न हुए इन्होंने प्रभु से इस प्रकार कहा
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मधमानधापू
संसारिण इमै सवें मोहान्धतमसि स्थिताः । मानप्रकाशवानाय तेभ्यो दीक्षा समुह १४ ॥
भवता सांसारिकमोहममतायाः परित्यागविषयको विमों स्वचेतस्याचरितो, यश्च सफलसंयमाराधनस्य विनिश्चयो विहितः, सोऽधुना व्यक्षेत्रकालभावानुरूपः समीचीनो मार्ग एषः। एतस्मादेष मुक्ति सौधाधिपतित्वप्रयायको भवतो मनोरयः सेत्स्यति । एकान्ततः श्रेयस्तरोऽयं विमर्शो विनिश्चयश्चेति । श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिरस्येव प्रसादाने नूनं भविष्यति निष्प्रत्यूहा । भविष्यति च तपसा त्यागेन संयमेन पामराबरपरप्राप्तिस्तेऽचिरेण । विधास्थति भवान विश्वस्य कल्याणं नाता ब्रष्टा
भगवन् ! ये संसारी जीव मोहरूपी अन्धकार में डूबे हुए हैं । अतः आप इन्हें ज्ञानरूपी प्रकाश देने के लिए दीक्षा धारण करें ।। १४ ॥
आपने जो सांसारिक मोह-ममता के परित्याग का विचार किया तथा सकल संयम की आराधना करने का निश्चय किया है सो यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुरूप बहुत ही अच्छा अवसर है । इसी से प्रापका मनोरथ जो कि आपको मुक्ति में ले जाने के लिए रथ के समान है, सिद्ध होगा। आपका यह विचार और निश्चय एकान्ततः सर्वोसम है। श्रेयोमार्ग की संसिदि पापको इसी के प्रसाद से हो सकेगी । तप, त्याग एवं संयम से ही प्रापको अजर अमर पद का लाभ बहुत ही शीघ्र होने वाला है । आपके द्वारा विश्व का कल्याण भी ज्ञाता द्रष्टा होने पर ही होगा ।
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वर्धमानवम्पू:
115 छ संभूय । खंडिताखंडितशर्करास्वायां लोकान्तकानां मधुरां गिरमिमा निशम्य वर्धमानस्य वैराग्यं संबद्धितं सत् दृढ़तरं जातम् । अतस्तत्क्षणमेव कुण्डनपुरस्थं नंद्यावाभिधान राजभवनं विहाय यनं पाहिलेषपूर्वरूपेण विनिश्चयो व्यधायि । यतस्तत्रैवैकान्से ममैकान्ततो भविष्यत्यास्मसाधनेति प्रबुद्ध्यव । दीक्षोन्मुखं स्वसुतं संवीक्ष्य नृपतिना सिद्धार्थेन तवा द्विजेभ्यः किमिच्छकं दानं प्रवत्तम् । तस्मिन्नेव काले संक्रन्दनस्य सिंहासन सकाम्पं जातम् । तदा तेन स्वाषधिज्ञानेन विज्ञातं यत्तीर्थकरस्य वर्धमानस्य
राग्यभावना दीक्षासंमुखा संवृता । अतस्तरकालमेवासी बन्दारकपन्नः हरितः परिवृतः सन् राजभवनस्य प्राङ्गणं समागतः । तत्र समागसेन तेन ने महान हर्षोत्सवः । हर्षोत्कर्षसमाकुले तस्मिन् समयेऽसुलभक्तिभावावनतरंग: सेन्त्रादिभिरिस्थं स्वस्वान्ते भावनाऽकारि--
है जिसके समक्ष मिश्री की मधुरिमा भी फीकी हो जाती है ऐसी मौकान्तिक देवों की माधुर्य गुणोपेत वाणी को सुनकर वर्धमान कुमार का विगत वैराग्य बढ़तर हो गया । वे उसी क्षण कुण्डनपुरस्थ नंद्यावर्त नामक राषभवम से बाहर निकले और तपोवन की ओर जाने को उद्यत हुए । होंने चित्त में ऐसा विचार किया तपोवन ही प्रात्म साधना का एक एकान्ततः साधनास्थल है अतः वहीं पर बिना किसी विघ्नबाधा के भात्मबना हो सकेगी।
सिद्धार्थ नरेश ने जब अपने पुत्र को दीक्षा ग्रह्ण करने के लिए कटिंबर देखा तो उन्होंने द्विजों को किमिच्छक दान दिया।
इसी समय इन्द्र का आसन कम्पित हुमा । सिहासन के कंपित होते अभी इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान के द्वारा जान लिया कि वर्धमानकुमार की भावना दीक्षा धारण करने की ओर आकृष्ट हो चुकी है । तब वह चारों पार से देवमण्डली से घिरा हया राजमहल के प्रांगण में प्राकर उपस्थित
गया । वहां पाते ही उसने सर्वप्रथम हर्षोत्सव करना प्रारम्भ किया । TA उत्सव में सम्मिलित हुए देवादिकों ने अतुल भक्ति से भरकर-विभोर होकर-ऐसी भावना अपने-अपने चित्त में की
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स्वर्गस्थस्तै विषयनिचये नथ ! नश्चितवृत्तिः, प्रस्ता, सेव्यां विरर्तिमधुना सेवितुं ह्यक्षमाः स्मः । स्वरसनिष्पाद्वयमपि विभो ! स्वावृशाः संभवेम,
वर्धमानम्पूः
प्रच्युत्वाऽहमाम्मनसि महती काममेधाऽस्ति सम्यक् ॥ १५ ॥
केनचित् कृतंवा कामना
बलेस्तापो जिनवर ! यथा कच्चलं स्वर्णवर्णम्, अन्तर्भूत्वा मलविरहितं सर्वशुद्धं स्वामिमेवं यदि मम मनोगेहमन्तर्गतः स्याः,
करोति ।
नूनं वितं भवति विमलं स्वद्गुणोद्गीतितापात् ॥ १६ ॥
हे नाथ ! स्वर्गीय विषय-भोगों से हमारी चित्तवृत्ति ग्रस्त रहती है । सेवन करने योग्य संयम हम लोग इसीलिए धारण नहीं कर पाते । अतः ऐसी कामना है कि यहां से जब च्युत हों तो मानव पर्याय पाकर श्रापके चरण सान्निध्य में रहकर आप जैसे बनें ।। १५ ।।
किसी ने ऐसी भावना की --
जिस प्रकार अग्नि मलिन सुवर्ण को निर्मल कर देती है उसी प्रकार हे नाथ ! प्रापका यदि मेरे मनोमन्दिर में निवास हो जाता है तो में भी निर्मल हो सकता हूं ।। १६ ।।
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वर्धमानचम्पूः
संसारेऽस्मिन् विषमविषमे भोगवाञ्छाग्निदग्धो,
जीवो दुःखी भवति नितरां भोग्यधाताप्यनाध्याम् । योनावस्थामविरतियुताय करोवाङ कुशेन,
होमस्तावद् भ्रमति विषयेष्विन्द्रियाणां यथेष्टम् ॥ १७ ॥
अतः
लप्स्ये कवा तद्दिवसं पवित्रम्,
कमप्रणाशं
मुबश्यङ्गनाया नरजन्म लब्ध्या । विरतिप्रभावाद्,
विधाय पाणिग्रहणं करिष्ये ।। १८ ।।
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पुण्यकर्मकृतं सौख्यं स्वर्गीयं नात्रवंचना । तथापि नास्ति तस्यिमाधेरेव विवर्धकम् ।। १६ ।।
I
यह संसार प्रत्यन्त विषम है । भोग भोगने की इच्छारूप अग्नि से यह सदा जलता रहता है । संसारी जीव भोग्य वस्तु के बिनाश हो जाने पर अत्यन्त दुःखित होता रहता है । उसकी प्राप्ति के साधन जुटाने में, या उसकी प्राप्ति नहीं होने पर प्राकुल व्याकुल होता रहता है । जिस देवयोनि में मैं वर्तमान में हूं यह तो अविरति से युक्त है अतः यहां पर भी जीव निराकुल नहीं बन पाता है। यहां पर भी वह निरङ्कुश हाथी की तरह अपनी प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में इच्छानुसार चक्कर काटा करता है ।। १७ ।।
इसलिए ऐसा वह पवित्र दिन कब आवेगा जबकि मैं मनुष्य जन्म प्राप्त कर और उसमें विरति की भाराधना के प्रभाव से कर्मों को नाम करके मुक्तिरूपी अंगना का पाणिग्रहण करूंगा ? ॥ १८ ॥
यहां जो स्वर्गीय सुख मुझे प्राप्त हुआ है । वह पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त हुआ है यह सत्य है पर वह नित्य नहीं है, केवल मानसिक चिन्ता को ही बढ़ाने वाला है - एक दूसरे की विभूति को देखकर यहां भी देव क्रूरते रहते हैं ।। १६ ।।
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वर्धमानचम्पू:
प्रत्रत्यात्खलु सौख्यात् देवानां न जायते निराकुलता । सौख्यं नैराकुल्यं यथा भवेतया प्रयतितथ्यम् ॥ २० ॥
नरजन्मबद्धम्
ईदृविचारपरिपूरितमानसैस्तव व स्त्रिभागसमये केश्चिच्छ, सत्यमिदमस्ति भवेद्भवस्य प्रध्वंसिनी बलवती पलू भावनैषा
॥ २१ ॥
श्रथानन्तरमेतद्धसान्तेन परिचिता त्रिशला पुत्रस्नेहवशंगता विला जाता। विचारितं तथा-मदीयोऽयं सुकुमारोंगको राजभवने समुपस्तत्रैव संबद्धितस्तत्रैव लालितः पोषितश्च । हा! हन्त ! दिगम्बरो भूत्वा कथमयं शीतोष्णकालयोः शीतातपवाघां शक्ष्यति ? कथं asiafrat शिक्षा पततो नीहारबिन्दूत्करान् वक्ष्यति ? कथं वा
यहां के सुखों से देवों में निराकुलता नहीं था सकती, निराकुलता श्राये बिना सच्चा सुख होता नहीं है । इसलिए निराकुल सुख जैसे बने वैसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये || २० ॥
इस प्रकार के विचार कितने ही देवों के हुए। उन्होंने अपनी भुज्यमान श्रायु के विभाग में मनुष्य श्रायु का बंध कर लिया । यह बात हाच है- ऐसी बलवती भावना जीव के भव की जन्ममरणादि रूप संसार फ्री-माथ करनेवाली हो जाती है ।। २१ ॥
इसके बाद जब त्रिशला इस वृत्तान्त से परिचित हुई तब वह पुत्रस्नेह के अधीन होने के कारण विह्वल हो गई। उसने उस क्षण विचार कियामेरा यह पुत्र राजमहल में उत्पन्न हुआ है, अत्यन्त कोमल शरीरवाला है, राजमहल में ही पला- पुषा है, वहीं पर उसका लालन पालन हुआ हैं । हाय 1 नम होकर कैसे यह शीत, उष्ण की बाधा को सहन करेगा ? मस्तक पर वर्षा की बूंदों से रक्षा करने का कोई साधन इसके पास है नहीं । जब उपडी ठण्डी बर्फयुक्त प्रोले सहित बूँदें इसके मस्तक पर
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वर्धमानचम्मूः बनपर्वताना कंटकावलिसमाकोयो धरियो पादत्राणविहोनः पदन्यास विषास्यांत ! हा! हन्त ! हन्त ! क्वेर्द कठोरातिकठोरं सपश्चरम क्व चास्य मसणामिति चेतसि स्वकपोलकल्पनया जायमानों भावना विविधसंकल्पविकल्पस्वरूपा ममतापाशनिबद्धा संप्रधार्य मोहाधीता सती मूछिताऽभवत् । पाश्र्वयतिभिः पारिवारिकजनविहितशीतलोपचारावं यदा सुलब्धबोधा बभूव तदा पूर्वत एव समागतः सेन्द्ररिस्थमभाणि ।
चिन्ता कार्या जननि ! सुभगे ! न त्वया चास्य काचित् ।
अस्मिन् काले जगति न बली कोऽपि तुल्योऽस्त्यनेन । शकणासो सुरगिरिभुवि क्षीरपाथोधितोयः, सुस्नातोऽभूदचलिततिः सोऽत्र चिन्त्यं कथं स्यात् ।। २२ ॥
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पड़ेंगी तब उन्हें यह कैसे सहेगा ? पादचारी होने के कारण अब बिना उपानत् के यह चलेगा तन इसके पैरों में कांटे चुभेगे तो फिर यह वम पर्वत की कंडकाकीर्ष भूमि में कैसे चलेगा? हाय ! कहां लो मेरे लाल का अत्यन्त कोमल शरीर और कहां यह अति कठोर तपश्चरण ! इस प्रकार को अपनी ही कल्पना से उत्पन्न हुए मामा प्रकार के संकल्पों-विकल्पों को करती हुई वह त्रिशला माता मोहाधीन होकर उसी क्षण मूच्छित हो गई । उसे मुच्छित हुई देखकर पार्ववर्तीपारिवारिकजनों ने शीतलोपचारे करके उसे संचेत किया । सचेत होने पर पहिले से पाये हाए देवादिकों ने उसे यों समझाया
हे भाग्यशालिनी माता ! तुम इसे अपने पुत्र की दीक्षा के मांगलिक कार्य में चिन्तित मत बनी क्योंकि यह इस काल में बहत अधिक बलशाली है । इसके जैसा और कोई बली नहीं है । जब यह सुमेरु पर्वत पर शक के द्वारा किये गये क्षीरसागर के जल के अभिषेक के समय धैर्य गे विचलित नहीं हुया, तब यह प्रार्गत परीषहों एवं उपसर्गों से चलायमामै कैसे हों सकता है ? ।। २२ ।।
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वर्धमामथम्पूः
हर्षस्थाने महाशोकः किमर्थं सत्यते त्वया । मातस्त्वमेव धन्यासि ययेवपुत्र उद्गतः ॥ २३ ॥
धन्यस्तेऽयं
सुतोऽखुलः,
गणनामास्थितौ
सुतः सपूतो गदितः स एव यस्मिन् प्रजाते गणनां प्रयाति । वंशोऽयजननीजनhree लोके स्वान्योपकारे सततं सुचित्तः ।। २५ ।।
धन्या
प्रसूस्त्वमेकैथ
येन
जननीजनको
।। २४ ।।
यस्य कुर्वन्ति कंडूर्य सुरा मुदितमानसाः । वैराग्ये चरतस्तस्य बाधकः को भविष्यति ।। २६ ।।
हे माता ! तुम्हें तो बड़ी खुशी होनी चाहिये, फिर हर्ष के स्थान में यह शोक कैसा ? हे माता ! तू धन्य है जिसने ऐसे सुपुत्र को जन्म दिया ।। २३ ।।
और यह आपका पुत्र भी धन्य है जिसके समान और पुत्र नहीं । माता-पिता को जो गणनीय पद पर स्थापित कर देता है नही तो सपूत माना जाता है ।। २४ ॥
जिसके जन्म लेने पर वंश की उन्नति हो - ख्याति हो - माता पिता का नाम दुनिया में अमर हो और जो अपने हित के अलावा जगत् का हितकर्ता हो वहीं पुत्र सपूत कहा गया है। यह ग्रापका ऐसा ही पुत्र है ||२५||
जिसकी दासता करके देव अपना अहोभाग्य मानते हैं, भला - सोचो तो सही वैराग्यमार्ग में विचरण करनेवाले उसके रास्ते में कौन बाधा पहुंचा सकता है ? ।। २६ ।
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वर्धमानचम्पू:
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सवायमम्ब ! तनूजोऽपूर्वादम्यबलेन समाढ्यः धीराणां च धोरेयो बनवृषभनाराचसंहननसहितोऽतो नास्थ कापि क्यापि च चिन्ता चेससि त्वया विधेया । शोतातपबाधया नायं प्रधाधितो भविष्यति । न चायं भयंकरेभ्योऽपि परीषहेम्यश्चोपसर्गेभ्यः पतितेभ्यस्तत्रभवानचलितयों भेष्यति । यस्मावधिकं महोन्नतं या पदं किमप्यन्यन्नास्ति तत्पदं सर्वश्रेष्ठ लधुमयं गृहानिर्गतोऽतस्त्रिलोकपूजितचरणारबिन्दसताम्ब ! चिन्ताक्लान्तं स्थान्तं मा कुरु । नायं केवलं त्यवीयः सुतएकाक्येद संसारसागरमुत्तीर्य मुक्ति प्रयास्यति किन्त्वसंस्थानप्यसुमतो मुक्तिलामाश्रितान् विधास्यति । जननि ! मोहावरणं विघटय ।
हे माता! तुम्हारा यह सपूत अदम्य अपूर्व बल से परिपूर्ण है । धीरवीरों में यह अग्रगण्य है । वजवृषभनाराच संहनन का धारी है अतः तुम्हें इसकी किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये । शीत एवं प्राताप की बाधा इसका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकती है । यह कितनी भी भयंकर से भयंकर परीषह और उपसर्ग के प्राजाने पर भपने पद से रंचमात्र भी चलित नहीं होगा । यह जो गृह का परित्याग कर तपोवन में प्रविष्ट हो रहा है उसका कारण यह है कि यह उस पद को प्राप्त करना चाहता है जिससे कोई और पद श्रेष्ठ नहीं है । इसलिए हे त्रिलोक-पूजित चरणकमलवाले सूत की माँ ! तुम अपने मानस को चिन्ता से क्लान्त मत करो । हे माँ! तुम ऐसा मत समझो कि यह आपका बेटा ही केवल मुक्तिपथ का राही बनकर संसार-समुद्र से अपने आपको पार उतारेगा
और मुक्तिपद को प्राप्त करेगा किन्तु और भी जो असंख्य जीव ससार में निमग्न हैं उन्हें भी यह मुक्तिपथ का पथिक बनाकर मुक्ति प्राप्ति के लाभ से अन्वित करेगा। हे जननी ! मोह के प्रावरण को दूर करो।
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वर्धमान थम्पूः
निगोवराशेर्व्यवहारराशी निमित्तमासाद्य समागतेन । यथाकथंचिन्नर जन्मलब्धं व्यथा न जीवस्य तथाऽपि नष्टा ।। २७ ।।
विचार्यतां कारणमत्र किंवा यदस्य संसारकथाऽवशिष्टा । कथं न संसारभवोऽस्य मष्टो मनुष्यपर्यायमुपागतस्य ॥ २८ ॥
केनापराधेन जड़ीकृतोऽसौ जीवोऽप्रशस्तास्त्रषकारणं किम् । मुहुर्मुह प्रतिबोधितोऽपि कथं न सन्मार्गति वधाति ।। २६ ।।
इत्थं पृष्टा जननी यथा न किञ्चिज्जगाव तवा वर्धमानेन संबोधनार्थमिवमग्रे निगदितम् ---
हे माता ! यह जीव निगोद राशि से किसी निमित्त के बल पर व्यवहार राशि में ग्राकर बड़ी मुश्किल से मनुष्य जन्म प्राप्त करता है, फिर यह अपनी व्यथा की कथा को नष्ट नहीं कर पा रहा है ॥। २७ ॥
सो हे मां ! सोचो इसका कारण क्या है ? ऐसा इसके द्वारा कौनसा अपराध बन गया है कि जिसकी वजह से यह अज्ञानी बना हुआ है और रातदिन प्रशुभ कर्मों के प्रास्रव का कर्ता हो रहा है। इसका कारण क्या है ? इस सम्बन्ध में इसे बारम्बार समझाया भी जाता है तब भी यह सचेत नहीं होता और सन्मार्ग की योर नहीं भुकता है । माँ ! इन सब बातों का तुम स्वयं विचार करो ।। २= २६ ।।
इस प्रकार जब वर्धमान कुमार ने माता से पूछा तो उसने इन्हें जब कुछ भी उत्तर नहीं दिया, तब वर्धमान कुमार ने उसे पुनः सम्बोधनार्थ इस तरह से आगे और कहा
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वर्धमानचम्पूः
123 संयोगिनो ये परिणामभाजो भगवा ध्रुवास्तेन विनश्वरत्वात् । तथापि ताम् स्वान् परिकल्प्य मोहात् तेषां व्यये दुःखमुपैति जीवः
॥३०॥
मोहेन मृतिकवादस्य औपब सो आव न स्वभावौ । विभावभाधौ भवदुःखहेतू संसारसंवर्धकतायतोत्र ॥ ३१ ॥
एकत्र राग ह्यपरत्र कुर्वम् वर्ष भयं नाल्पमसौ करोति । मनुष्यपर्यायमुपागतस्य लाभो न कोप्यस्य बभूव तस्मात् ॥ ३२ ॥
मा ! जितने भी संयोगी पदार्थ हैं वे सब परिणमनशील हैं । कोई भी ध्रुव नहीं है क्योंकि द्रध्य की पर्यायें विनाशशील हैं । तब भी मोही जीव उन्हें अपनी मानता है और उनके परिवर्तन में मोह के कारण दुःखी होता है ॥ ३० ॥
___जीब की ऐसी स्थिति न होने का कारण मोह-उसके साथ जो लगाव है वह है-अनादिकाल से जीव के साथ लगा हुया जो मोह-रागहै वही पर पदार्थों की "ये मेरे हैं" ऐसी मान्यता करवाता है । राग और . द्वेष जीव के स्वभाव नहीं हैं—विभाव हैं और ये दोनों ही भवदुःख के कारण हैं ये जीव के संसार-वर्धक हैं ।। ३१ ।।
जीव को कहीं राग परिणति होती है, किसी के साथ द्वेष परिणति होती है । यही परिणति तो जीव के संसार की अल्पता नहीं होने देती है। मनुष्य पर्याय पाकर भी यदि जीव ने अपने संसार को अल्प नहीं किया तो मनुष्य पर्याय पाने का उसे क्या लाभ मिला ।। ३२ ।।
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वर्धमानधम्पू:
न कोऽपि कस्यास्ति सुतो न माता,
भ्राता पिता, मोहमपस्य लीला। बंधन निहिला इमेल,
भूतार्यदृष्ट्या स्वयमेक एव ।। ३३ ।। जोवो बिमोहेन परान् स्वभिन्नान,
संयोगिनः स्वान् परिकल्प्य, तेषाम् । योगे वियोगे सुखदुःखमारवाद
बध्नाति कर्माणि नवानि मातः ॥ ३४ ॥
मातस्त्वमेव परिचिन्तय कस्य कोऽत्र, संयोगिनां नियमतोऽस्ति वियोग इत्थं । चिसे विचिन्त्य शिथिली कुरु मोहजालं, मा ह्यनुज्ञां जननि प्रदेहि ॥३५॥
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इस संसार में न कोई किसी की माता है न कोई किसी का पिता, न कोई किसी का पुत्र है न कोई किसी का भाई, ये जितने भी सम्बन्ध हैं वे सब मोह की लीला--तमाशे-रूप ही हैं । यथार्थ दृष्टि से विचार करने पर तो यह प्रात्मा स्त्रयं अकेला ही है ।। ३३ ।।
मोह से विमोहित हुआ यह जीव अपने से सर्वथा भिन्न संयोगा पदार्थों को अपना मानकर उनके योग में हर्षित और वियोग में दुःखित होता रहता है और नवीन कर्मों का बंध करता रहता है ॥ ३४ ।।
हे माता ! तुम स्वयं इस बात का विचार करो, यहां कौन किसका है । जा ये सयोगो पदार्थ हैं उनका तो वियोग होना ही है । ऐसा सोचकर इस मोहजाल को तुम शिथिल करो और मुझे तपोवन में प्रवेश करने की यात्रा प्रदान करो ॥ ३५ ।।
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बर्धमानमः
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मुम्बप्रतारपसरणमोहशत्रु
जित्वा, निजात्म हिललीममना भवेयम् । प्राज्ञ प्रदेहि चननित्वमतश्च मा,
सोन, न मोहबशतोऽव निरोधिका स्याः ॥३६॥
चक्राधिपेपरनिशं सुखस्य--
दिनस्य राधरपि भेवभावः । नानायि, तेऽप्यायुषो हाऽचसामे.
गताः स्य कालेन विगिता स्याः ॥ ३७॥
विषत्कुलाङ्गार निभा भ्र वोश्च,
विकारतस्तजित वीरवारा। यमेन ते चरिणतमानशृङ्गाः,
गता! क्व कालेन विनीयमानाः ॥ ३८॥
हे माता ! मैं मुम्न जनों को प्रतारण करने में तत्पर ऐसे मोहरूपी शत्र को जीतकर अपनी आत्मा का हित करने में तत्पर होना चाहता है। इसलिए हे माता ! तुम मुझे तपोवन में प्रवेश करने की मीघ्र माझा प्रदान करो, मोह के वश होकर मूझे रोको मत ।। ३६ ॥
निरन्तर सुख में आपाद मग्न हए वे चक्रवर्ती भी जिन्हें सूर्य के उदय और अस्त होने का समय भी ज्ञात नहीं हो पाता पा, प्राय के समाप्त हो जाने पर काल के द्वारा चकनाचूर कर दिये गये, वे कहां गये इसका कोई पता नहीं ।। ३७ ॥
शत्रुओं के लिए जो धधकती हुई अग्नि के जैसे थे तथा जिनकी तिरछी भ्र को देखकर बड़े-बड़े वीर दहल जाते थे, जब यमराज ने उन्हें अपने वश में कर लिया तो उनका अभिमान शिखर धराशायी हो गया मोर वे काल-कवलित होकर कहां गये इसका पता भी नहीं है ।। ३६॥
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वर्षमानचम्पू
पेषां यशोभिर्धवलीकृताशा याम् बीक्य येवा अपि मोयिनःस्युः। अखर्वगर्वोनतमस्तकारले कामेन नीताः क्व गता न वेदिम ॥ ३९ ॥
माता पिता मित्र सुतात्माश्च भ्राता स्वपत्नी व मनस्विनस्ते । गता पक्ष कालेन विमिर्दयेन हता, पिचरस्थोऽत्र न कोऽपि भाषः।। ४० ॥
सना वयं पाशुरता प्रभूम यस्ते ममाग्रे ननु पश्यतो हा! गता ममद्वारमितो विमुच्य रमा ध रामा च सुता सवित्रीम् ॥४१॥
इत्थं विमोहं परिहत्य शत्रु विचार्य संसारपरिस्थिति स्यम् । दीक्षां समादित्सुममुं स्वपुत्रं मिलोस्म सामोदमना भवाम्न ।। ४२ ।।
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जिनके यश से चारों दिशाएँ धवलित हो रही थी और जिन्हें देखकर देव तक भी हधित हो उटते थे तथा जिनका मस्तक अखर्व गर्व उत्तंग बना रहता था उन्हें भी काल ने अपमा कलेवा बना लिया और वे कहाँ गये मैं नहीं जानता हूं ।। ३६ ।।
माता, पिता, मित्र, मृता, पुत्र, भ्राता, परनी और मनस्वी जन इन सबको अब निर्दयी काल ने नहीं छोडा तो इससे यही जानना चाहिये कि यहां कोई भी पदार्थ चिरस्थायी नहीं है ।। ४० ।।
जिनके साथ हम धूलि में खेले वे मेरे देखते-देखते ही रमा, रामा, पुत्री और माता को बिलखती छोड़कर यमराज के द्वार पर पहुंच चुके हैं ।। ४१ ।।
है माता ! इस प्रकार की सांसारिक परिस्थिति का विचार करके सुम्हें इस माह रूपी शत्रु को दूर कर देना चाहिये और दीक्षा ग्रहण करने की मेरी उत्कण्ठा आनकर तुम्हें हर्षित होना चाहिये । ४२ ।।
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बर्धमानचम्पूः
इत्थं स्वजननीं पितरं वंश्याम् प्रियजनांश्च प्रयोध्याश्वास्य च स्वभवनादहिरिय निर्मोकात् स बहिरागच्छत् । सबुबोधप्रदवाक्प्रीणितसबन्धुः सर्वः सरनन्यं विसिजितोऽसी जयघोषयं भू परिवर्तस्ततो विद्याधराधिस्ततश्वानिमिषाधीशेः स्वस्कंधमारोपितां चन्द्रप्रभाख्या शिक्षिकामधिरुह्य वैशालीतो मध्यमध्येन संवाद्यमानो जातृखण्डाभिधानं तपोवनं संप्राप । प्रासीत्तत्रत्या वनश्रीः प्रसूनौर्थः पहलवंश्च प्रफुल्लिता नरपि भूरिभिर्यत्र तत्रोद्गतेर्हरितांकुरैः श्यामला, निर्वाधगस्था प्रवहमानः शुद्धः शीतलः समीरः प्रशान्तिकररकस्य जनकोलाहलस्य, चेतसि विक्षेपविधायकस्य च पार्थसार्थस्याभावः । तस्मिन् शान्ते कान्ते च निर्जने कान्तारे सा शिविका तेरानीय स्वस्कंधादुत्सारिता नोर्याच धुता । वर्द्धमानमहोत्साहोऽसौ वर्धमानकुमारो महोत्साहपूर्वक सच्छिविकातो
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इस प्रकार अपने माता-पिता और प्रियजनों को समझा बुझाकर और उन्हें धैर्य बंधाकर वे वर्धमान कुमार काचली से जैसे सर्प बाहर निकल जाता है उसी तरह अपने भवन से बाहर आ गये । सबोधवाणी से जिन्हें संतुष्ट कर दिया गया है ऐसे बन्धुजनों ने इन्हें आनन्दपूर्वक तपोवन जाने की शुभ सहमति प्रदान की । वर्धमान उसो समय चन्द्रप्रभा पालकी पर आरूढ हो गये । सबसे पहिले उस पालकी को जयघोषपूर्वक नरपतियों में बाद में विद्याधरों ने और इसके अनन्तर देवों के स्वामियों ने अपने-अपने कंधों पर उठाया । वैशाली के ठीक बीचों-बीच मार्ग से होकर वे उस पालकी को लेकर ज्ञातृखण्ड नाम के सपोवन में पहुँच । चहां की शोभा ही निराली थी। वनश्री पुष्पों और पहलवों से प्रफुल्लित हो रही थी। भूमि भी इधर उधर के प्रदेशों में उत्पन्न हुए दर्जा के हरे-हरे अंकुरों से श्यामल बनी हुई थी। निर्बाध गति से शुद्ध बोतल मन्द समीर बह रहा था । प्रशांति का कारण जन - कोलाहल एवं चित में चञ्चलता उत्तपन्च कर देते वाला ऐसा कोई भी पदार्थ वहां नहीं था । उस शान्त सुहावने निर्जन बन में वह शिविका उन्होंने अपने कंधों से उतारकर नीषं रख दी। वर्धमान महोत्साहमंडित के वर्धमान कुमार बड़े भानन्द से उस शिविका से बाहिर
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वर्धमानचम्पूः बहिरवततार । प्रासीत्तत्र स्वच्छकारण्ये शिला । सघुपरि शज्या रत्नचूर्णन कलाकृतिसमन्धिनमेकं विरचितं स्वस्तिकं तदुपरि तीर्थकरो बर्द्धमानस्तस्थौ । तत्र तस्थुषा तेन स्वाङ्गाद् घृतानि सर्वाणि वस्त्राभूषणान्यनाण्युत्तारितानि । धृतं च कृत्रिमं वेषं परिहाय प्राकृतिक स्वतन्त्रं यथाजातरूपं श्रामण्यम् । कृष्णाः कुटिलाश्च केशाः क्लेशसमा मूलादुत्पाटिलाः पंचभिमुष्टिभिरेव । मुनिमार, केशोत्साहनक्रिया नियमाणा शारीरिकमोहमामलापरित्यागसूमिका भवति ।
___ सबनन्तरं तेन "नम: सिद्धेभ्यः” एवं विधं समुच्चार्य सिद्धान सकल कर्मकान्तार विदग्धान् प्रणम्य पंचमहाप्रतानि मयूरपिस्ट्रिका कमण्डलुश्च देख्ने । प्रत्यास्याय निखिल सायचं योग पनासनस्थेनात्मध्मानरूपसामायिके तल्लीनतांगीलता।
आये-उतरे । वहां वन में एक शिला थी। उस पर इन्द्राणी ने रत्नों के चूर्ण रो कलाकृति युक्त एक स्वस्तिक बनाया । उस पर तीर्थंकर वर्धमान विराजमान हो गये । वहां बैठकर उन्होंने अपने शरीर पर से पहिरे हुए वस्त्र और प्राभूषणों को उतारा और कृत्रिम वेष का परित्याग करके प्राकृतिक स्वतन्त्र यथाजात रूपवाली श्रामण्य अवस्था धारण कर ली। काले कुटिल--धुंधराने-केशों को उन्होंने क्लेश के समान जड़मूल से पांच मुट्ठियों से उखाड़ दिया । यह पंचमुट्टिकेशलोंचक्रिया शरीर के प्रति मोहममता के प्रभाव की सूचक होती है।
इसके अनन्तर उन्होंने 'नमः सिद्धेय : सिद्धों को नमस्कार करके पांच महावतों को, मयूरपिटिका को और कमण्डलु को धारण कर लिया एवं यावज्जीवन सर्व सावध योग का परित्याग कर प्रात्मध्यानरूप सामायिक में वे पद्मासन से विराजमान हो गये ।
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अर्धमानचम्पू:
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तान् समुत्पाटितान कचान् मघवा स्वकरफुशेशयस्थाने विधाय मरिणज्वलत्पटलपेटिकायां निधाय क्षीरवारिराशौ स्वयं प्राक्षिपत् ।
प्रमोरयं दीक्षाकालो मार्गशीर्षस्य कृष्णवशम्यां तियो हस्तोत्तरहृयोमध्यमायां शशिनि समाश्रिते सत्यजायत । इत्थं दीक्षोत्सवं महता संरंभेण सानन्दं विधाय सर्वे सुरेशा सेन्द्राश्च तथा नरा नरेशाश्च विद्याधराः स्वस्वाधिष्ठानं समाजग्मुः । यदाऽयं बाह्यपदार्थविचिन्तनप्रसक्तो मानसों वृत्ति निरळ्याचलासनेन संस्सित्य तीर्थक रो महावीर स्वात्मचिन्तने संमग्नोऽभूत्तदैवास्य चतुर्थो मनःपर्ययाख्यो बोधो समजनि केवलज्ञान सत्यनारस्वरूपः।
उन उत्पादित केशों को इन्द्र ने अपने हस्तकमल में लेकर मणियों के चमकते हुए पिटारे में रखा और क्षीरसागर में प्रक्षिप्त कर दिया ।
यह प्रभु की दीक्षा का समय मार्गशीर्ष माह के कृष्णपक्ष की दशमी तिथि का है । उस समय और उत्तरा नक्षत्र के मध्य भाग में चन्द्रमा का योग था । इस प्रकार दीक्षा के उत्सव को बड़े भारी उत्साह के साथ सुसम्पन्न करके समस्त सुरेश, देव, मनुष्य और विद्याधर अपने-अपने स्थान पर चले गये। जिस समय प्रभु वर्धमान बाह्य पदार्थ के चिन्तवन में प्रसक्त मानसिक वृत्ति का निरोध करके अचलासन से विराजमान होकर स्वात्मचिन्तवन में मग्न हुए तब उसी समय इन्हें चतुर्थ मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया । यह शान केवलज्ञान को साई रूप होता है । अर्थात् मन पर्ययज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर जीव को नियमतः केवलज्ञान की प्राप्ति होती है ।
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वर्धमानचम्पूः
इत्थं पूर्वभवस्मृतेः समभवज्ज्ञानप्रकर्षो हृदि, तस्माद्योऽजनि मुक्तिमार्गपथिको वैराग्यरागाच्युतः । हित्वा वैषयिकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् मुक्तिस्त्रीपदलिप्सया विजयतां सिद्धार्थभूपात्मजः ॥ ४३ ॥
दंगम्बरों विना
दीक्षामात्मशुद्धिर्न जायते ।
छुमन्तरा न
कर्मनाशी भवेचित् ॥ ४४ ॥
मुक्तिलाभो बिना नाशात् कर्मरणां नैव संभवेत् । इत्थं विचिनय वीरेन शीशा देवम्बी ३५
"सरस्वतीपुत्र" इति प्रसिद्ध्या विपश्चितां योऽत्र बभूय महत्यः, श्रम्बादिदासान्तवोऽपगूढो विद्यागुरुमें
अयताद्दयालुः || ४६ ॥
इस प्रकार पूर्वभव की स्मृति से जिन्हें ज्ञान का प्रकर्ष हुआ और इसी कारण जो मुक्तिमार्ग के पथिक बने एवं जिन्होंने वैषयिक सुखों को हेय और आत्मोत्थ सुख को उपादेय माना ऐसे वे सिद्धार्थ नरेश के प्रियपुत्र सदा जयवन्त रहें ।। ४३ ।।
दिगम्बर दीक्षा के बिना पूर्णरूप से श्रात्मशुद्धि नहीं होती है । इसके बिना कर्मों का नाश नहीं होता है । कर्मों का नाश हुए बिना मुक्ति का लाभ नहीं होता है। ऐसा विचार करके ही उन सिद्धार्थ के इकलौते लाल वीर वर्धमान कुमार ने वैगम्बरी दीक्षा धारण की ।। ४४-४५ ॥
ये सरस्वती के पुत्र हैं इस रूप से जिन्हें बिद्वानों ने सम्मान दियाऐसे वे मेरे विद्यागुरु पूज्य अम्बादास शास्त्री सदा जयवंत रहें ।। ४६ ।।
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वर्धमानचम्पूः
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माती - सुशीला - विक्षारोपणा--, ख्यानां सुतानां जनकेन दृश्धे । काव्ये गतः पंचम एष रम्यः, स्तयोऽस्तु विद्वज्जनश्चित्तहारी ॥४७॥
मातस्त्वया मम कृतोऽस्ति महोपकारः, तस्मै कृते प्रतिदिनं प्रणमामि तेऽध्रिम् । स्वर्गस्थिता स्वमधुनासि-तथापि पाणी, मोवाविमा कृतिमहं च समर्पयामि ॥ ४८ ।।
पंचमः स्तबक: समाप्तः
शान्ती, सुशीला, सविता और सरोज के पिता के द्वारा रचित इस काव्य में यह पंचम स्तबक समाप्त हुआ । यह विद्वज्जनों के चित्त को प्रमोददाता हो ।। ४७ ।।
हे मात: ! तुमने मेरा अनन्त उपकार किया है । अतः मैं प्रतिदिन अापके चरणों में प्रणाम करता हूं। श्राप इस समय स्वर्ग में विराजमान हैं। फिर भी मैं मापके हाथों में यह अपनी कृति समर्पण करता हूं ।। ४८ ।।
पंचम स्तबक समाप्त
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षष्ठः स्तबकः
तपस्या
नमामि तं वीरमहं यदीयं पावस्थितं धुलिगत सुचिह्नम् । निरीक्ष्य शंकाकुलचित्तवृत्तिर्बभूव दैवज्ञ इह प्रबुद्धः ।।१।।
समासेन मुनित्तिस्तावत्प्रस्तूयतेसांसारिकं सर्वसुखं विहाय,
जिनेन्द्रमा प्रतिपच ये ते । भवं स्वकीयं सफलं विधातं,
दीक्षां समादाय चरन्ति केऽपि ॥२॥
छठा स्तबक
तपस्या
मैं ऐसे उस बोर प्रभु को नमस्कार करता हूं जिनके चरण-चिह्नों को मार्ग को धूलि में अंकित देखकर शंकितवृत्ति युक्त कोई राजज्योतिषी शंकाविहीन हो गया ॥१॥
संक्षेप से मुनिचर्या का वर्णन
जो मनुष्य सांसारिक समस्त सुख-साधनों का परित्याग करके जिनेन्द्र-प्रतिपादित मार्ग को अंगीकार कर अपने जन्म को सफल करते हैंमुनिवृत्तिधारण करते हैं ऐसे मानव इस संसार में विरले ही होते हैं ।। २ ।।
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मानम्पू
धन्या जनास्ते विविधैस्तपोभिर्भीमसं स्वं परिशोधयन्ति । आदर्शरूपा जगतीह भूत्वा निविघ्नमायान्ति विमुक्तिसौधम् ॥ ३ ॥
कश्येऽपि यस्थां न बिमोहवृत्तिः,
संजायते साधुजनस्य तस्याम् ।
विवर्त्तमानस्य च तस्य वृत्तिः
कथं न सा पूज्यतमाऽमरैः स्यात् ॥ ४ ॥
उपद्रवा बाथ परीषहा च यत्र क्वचित्संचरलोऽपि साधोः । पायें समायान्ति, बिभेति नाथमालव्य साम्यं सहते प्रमोदात् ॥ ५ ॥
दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुबग,
योगे वियोगे भवते धने वा । समेव येषां सततं प्रवृत्तिः,
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नमोऽस्तु तेभ्यो वृषनायकेभ्यः ॥ ६ ॥
वे मानव धन्य हैं जो अनेक प्रकार की तपस्याओं द्वारा मलिन श्रात्मा का शोधन करते हैं और प्रादर्श रूप होकर अन्त में बिना किसी बाधा के मुक्तिरूपी महल में जाकर विराजमान हो जाते हैं ।। ३ ।।
मुनिजनों का ममत्व शरीर पर नहीं अपनी मुनिवृत्ति पर होता है । इसी कारण उनकी वह वृत्ति देवताओं द्वारा भी पूज्य होती है ॥ ४ ॥
साधुजनों को बिहारकाल में अनेक प्रकार के उपसर्गों को और परीषों को सहना पड़ता है, परन्तु वे उनसे घबड़ा कर अपने कर्तव्य - पथ से विचलित नहीं होते, प्रत्युत समता भाव से उन्हें सहन करते हैं ।। ५ ।
उन धर्म के नायक मुनिजनों को मेरा बारम्बार नमस्कार हो जो सुख में, दुःख में, वंरी में, बन्धुवर्ग में, योग में, वियोग में, भवन में और वन में एक सो वृत्तिवाले होते हैं ।। ६ ।।
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वर्धमानबम्पू
मोहाख्यशत्रु च विजेतुमेते भवन्ति वैगम्बरवृत्तिभाजः । विहाय संग परिवर्त्य भोग ज्ञात्वा च देहं खलु रोगगेहम् ॥ ७॥
अत्यन्तमुष्णा प्रवहन्ति वाताः,
सूर्यांशवो यत्र तपन्ति देहम् । क्षितिश्च धमध्वजबदध्यगम्या,
तपस्विनः पावविहारिणोऽमी ।। ८ ।।
पुष्पावलोभी रचितासु पूर्व शय्यासु सुप्तं भवने सुखेन । यस्तेऽधुना धूलिकणान्वितायां स्वपन्ति महा मुनिवृत्तिरेषा
गणे सादला
अखर्वगर्वावधना त एव । संवीक्ष्य संवीक्ष्य महीं चलन्ति, ।
जीवानुकं पाशयतो मुनित्वे ।। १० ॥
मोहरूपी शत्र पर विजय पाने के लिए ही दिमम्बर वत्ति अंगीकार की जाती है, इस दिगम्बर वृत्ति में वर्तमान मानव को २४ प्रकार के परिग्रह का, पंचेन्द्रियों के विपयों में रागद्वेष करने का एवं रोगों के घररूप समझ कर देह पर अनुराग रखने का परित्याग हो जाता है ।। ७ ।।
ये मुनिजन ज्येष्ठ के महिने में जबकि स्र्य अपनी प्रखर किरणों से पृथ्वी को अग्नि के समान अत्यन्त उष्ण कर देता है, शरीर गर्म-गर्म लयों से तपने लगता है, और जब जमीन पर नंगे पांव चलना मुश्किल हो जाता है. पैदल चलते हैं ।। ८ ।।
जो पहिले अपने भवन में पुष्पों की सेज पर सुख से सोते थे वे ही मुनि अवस्था में धूलि से भरी हुई भूमि पर सो जाते हैं ।। ६ ।।
पहिले जो बड़े ठाटबाट से हाथी पर बैठकर मूछों पर ताव देकर चला करते थे, वे ही मुनि अवस्था में जीवों की रक्षा करने के अभिप्राय से भूमि को देख-देखकर चलते हैं 11 १० ।।
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वर्धमानवम्पू:
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न क्षौरकर्माणि जलाभिषेक नाभ्यङ्गमङ्गस्य च संस्कारम् । न दन्तकाष्ठादिभिराचरन्ति शुद्धि रदानां च कदापि ते ॥ ११ ॥
कांस्तृणानीव करेण तावच -7
चोत्पाटयन्तोह सहर्षमेते । तपास्यनेकानि तपन्ति यावज्--,
जीवं जिनेन्द्राध्वनि वर्तमानः ॥ १२॥
निषिमाहारमिमे च धर्मध्यानस्य सिद्धयर्थमवन्त्यवृष्यम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राजः कथां न कुर्वन्ति कदापि कुत्र॥ १३ ॥
यतो
निरारंभपरिग्रहस्य,
साधोर्न चिन्ता परिबाधते स्म । तस्या गुरुत्वान्मनसो लघुत्वा,
तस्मान निवासी न भवेवमुष्याः ॥ १४ ॥
ये न बाल बनवाते हैं, न स्नान करते हैं, ने शरीर पर तेल की मालिश करते है और न दातों की शुद्धि के निमित्त दांतान प्रादि करते
जिस प्रकार तृणों को उखाड़ कर फेंक दिया जाता है उसी प्रकार ये अपने मस्तक के बालों को हाथ से उखाड़ कर फेंकते हैं। बड़े प्रानन्द के साथ ये जीवनपर्यन्त अनेकविध तप करने में रत रहते हैं । १२ ।।
ये मुनिजन निदोष अाहार लेते हैं । इन्द्रिय-विकार उत्पन्न करनेवाला पाहार ये ग्रहण नहीं करते । धर्मध्यान करने में जो साधक हो ऐसा ही पाहार ये लेते हैं । देशकथा, राजकथा, प्रादि विकथाओं को ये नहीं करते हैं ।। १३ ।।
ये सर्वदा प्रारम्भ और परिग्रह से दूर रहते हैं अत: किसी भी प्रकार की चिन्ता इन्हें बाधित नहीं करती है क्योंकि उसके भारी होने के कारण और इनका चित्त निर्मल-लघु-होने के कारण उसे वहां रहने को स्थान नहीं मिलता है ।। १४ ।।
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वर्धमानचम्पू:
ध्यानेन सायत्तपसा श्रुतेन वुर्भावत्ति ह्यशुभोपयोगम् । निरुध्य साधुश्च रणद्धि पश्चादुष्कर्मणामागमनं प्रयत्नात् ।। १५ ।। कथं च जीवस्य हितं भवेत्ते,
विवानिशं भावनयाऽनयाळपाः । भवन्त्यतो धर्नामहोपदेशे,
तदेव तत्त्वं प्रवदन्ति नान्यत् ॥ १६ ॥ अलौकिको वृत्तिरतोऽहामोषां वाचंयमानां भवतीति शास्त्रे। प्रोक्त मुनीनामभिवंद्यपावभवभेदं कुरुतेऽथ भक्तः ॥ १७ ॥ तदेव तीर्थ निपतन्ति पत्र,
तेषां गुरूणां गुरवोऽत्रयस्ते । त्रैलोक्यबंधा रजसां जनानां,
संहारकाः सर्वहितंकराणाम् ॥ १८ ।।
ध्यान से, तपस्या से और स्वाध्याय से ये अशुभ उपयोग एवं दुर्भाववृत्ति को दूर करते एवं दुष्कर्मों के प्रास्त्रव को रोकते रहते हैं ।। १५ ।।
जीवों का कल्याण कैसे हो रात-दिन ये इसी विचारधारा से सने हए रहते हैं और इसी विषय को वे अपने धार्मिक उपदेश में भी प्रकट करते रहते हैं ।। १६ ।।
इन मुनिराजों की प्रत्येक प्रवृत्ति अलौकिक ही होती है। इनके सहारे अन्य और भी भव्यजन अपने पापों को–अशुभ कर्मों को नष्ट करते रहते
वही स्थान' तीर्थस्वरूप हो जाता है जहां पर सर्वहितंकर इन गुरुदेवों के त्रिलोकवंद्य चरणकमल पड़ते हैं ।। १८ ॥
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वर्धमानचम्पू:
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"महता परिश्रमेण विना महत्कार्य न सम्पन्नं संजायते ।" इत्युक्त्यनुसारेण महतः कार्यस्य सिध्यर्थं तावन्महानेवायासः करणीयः कल्प्यते । प्रतः श्रीमता भगवता महाबोरेणानाधिकालतः संसक्तस्यैकलोलीभावेनात्मनि कर्मबन्धस्य, यशादनन्तशक्तिशालिन इमे जीयाः संसारकारागारे बन्दिन इव पिहिताः सन्तो प्रवं नानाविधं स्ससनं सहन्ते क्षयार्थ कठोरातिकठोर तपश्चरणं समारग्धम । यदाऽयमात्मसाधनायां निमग्मो भवति स्म तदा बहन दिवसान पाच देकेनैवासनेन विनिश्चलोऽनल इव तिष्ठति स्मोसिनो वा भवति स्म । यवा कदाचित साधकमासमपि निरात रमारमध्यानं कुर्वन्नास्ते स्म । तस्मिन् समये यधपि तस्याहार ग्रहणाभारतावस्थत एवाजायत नैतस्चित्रं, परं वित्रमेतदेव यवाहवातावरणस्यापि प्रभावस्तवयस्थायां तस्यानुभव विषयो न जायते स्म । अतएवासौ शीतती शिलोच्चशिखरे तटिनीतटे निरावरणप्रवेशेवात्मध्याननिरतोरवद
"महान् कार्यों की सिद्धि कठो रातिकठोर परिश्रमसाध्य ही होती है, उसके बिना नहीं होती है" ?स नीति के अनुसार महान कार्य को सुसम्पन्न करने के लिए महान् ही परिश्रम करणीय होता है, इसीलिए भगवान् महावीर ने अनादिकाल से क्षीर नीर की तरह एकलोली भाव से आत्मा में संसक्त हए वमों से धन वो जिसकी वजह से अनात शक्तिशाली ये जीवात्माएँ बन्दीजन की तरह इस संसाररूपी कारागार में बन्द हई नाना प्रकार के कष्टों को सहन करती आ रही हैं नष्ट करने के लिए कठोरातिकठोर दुर्धर तपश्च रण करना प्रारम्भ किया । जिस समय ये प्रात्म-साधना में निमग्न होते. उस समय अनेक दिनों तक एक ही ग्रासन से पर्वत की तरह अचल-स्थिर रहते । जब कभी ये एक माह तक भी निरन्तर अात्मध्यान में तल्लीन रहते उस समय यद्यपि इनके आहार ग्रहण करने का प्रभाव स्वतः ही रहता था-सो इसमें कोई अचरज जैसी बात नहीं है परन्तु आश्चर्य जैसी बात तो यह थी कि बाह्य वातावरण का भी प्रभाव उस अवस्था में इनके अनुभव में नहीं आता था । यही कारण है कि ये शीतकाल में पर्वत की चोटी पर, नदी के तट पर तथा प्रावरणविहीन स्थान पर प्रात्मध्यान में ऐसे तल्लीन हो जाते थे जैसे कोई अचल-पर्वत
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मानवभ्यूः
चलासन एव तिष्ठति स्म । नाजायत बलवतोऽपि प्रकम्पकारिणः शीतस्य लेशतोऽप्यनुभवोऽस्मै । ग्रीष्मता शिखरितुङ्ग शिखर मध्याभ्यासौ करोति स्म ध्यानम् । न भवति स्म शक्त उपरिष्टात्सूर्यातपोऽधस्ताच्चायोगोलक - वत्यन्तं संतप्तं पाषाणखण्डम् । उष्णः परितः प्रवमानस्तरस्वी समीरइच । निरम्बरं दिगम्बरं स्वाध्यासादिचालयितुमेनम् । न शक्नोति स्म वर्षतावपि चैतन्नग्न शरीरोपरि पतन् परितो भयाऽऽहत प्रसारोऽपि स्वात्मचिन्तने संमग्नमेनं ध्यानाद्दृष्टं विधातुम् यद्यप्यशरण्येऽरण्ये मदोन्मत्तानां गण्डस्थलात् स्त्रवद्दानोदकानां वनगजानां गर्जनाः, केशरिणां धर्यध्वंसिनः क्ष्वेडोध्वनयः वन्तशुकानां पुत्काराश्च भवन्ति तथाप्यस्य प्रमोरेतेषां मानमात्मचिन्तने निमग्नत्वात् किश्चिदपि नोऽजायत ।
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हो । शरीर में कंपकंपी श्री जावे ऐसी अधिक शीतलहर युक्त पवन चलने पर भी इन्हें जरा सी भी उण्ड का अनुभव नहीं होता था । जब ग्रीष्म ऋतु ग्राती उस समय पर्वत की ऊंची से ऊंची चोटी पर बैठकर ये ध्यान करते थे । ऊपर तपते हुए सूर्य के प्रखर प्रताप में और नीचे लोहे के गोले के समान अत्यन्त तप्त हुए पाषाणखण्ड में ऐसी शक्ति नहीं थी जो इन निरम्बर- वस्त्रविहीन दिगम्बर मुनिराज वर्धमान को आत्मध्यान से तनिक भी विचलित कर सके तथा वर्षा ऋतु में भी ऐसी सामर्थ्य नहीं थी जो उस काल में इनके नग्न शरीर पर चारों ओर से गिरती हुई मूसलाधार - वेगवती - वृष्टि स्वात्मचिन्तवन में निरत हुए इन्हें ध्यान से उचाट मनवाली बना सकती । यद्यपि उस प्रशरण्य अरण्य – बन—में मदोन्मत्त जंगली हाथियों की चिंघाड़ें होती रहती थीं, धेर्य को छुड़ा देनेवाली शेरों की दहाई भी होती रहती थीं, सर्पराज भी फुंकारते रहते थे तब इन प्रभु को प्रात्म- 1 म- चिन्तवन में निमग्न होने के कारण इनका समका कुछ भी भान नहीं होता था ।
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वर्धमानचम्पूः
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तपस्विनोऽस्य प्रथमा पारणा कूलनगरे दानतीर्थंकरस्य वकुलस्य राजप्रासादे सम्पन्नाऽभवत् । श्रात्मध्यामाद्विनिवृत्तस्य यवा भवति स्मास्य शरीरार्थमाहारादानसमीहा तथाऽसौ निस्पृह वृत्यंवाहरति हम ।
निकटस्थं ग्रामं पुरं पत्तन वा मुनिचर्यानुसारेण गत्वा विधिपूर्वकं निर्दोषमाहारम् । पश्चात्ततस्तपस्यां विधातुं वनं पर्वतं वा समेत्य कुत्रचिवसौ दिनद्वयं वचन चतुदिवसात् क्वचिच्च सप्तदिनानि वा तिष्ठति स्म । तदनन्तरमसौगच्छतिस्म ततो विहृत्यान्यत्र यस्मिन् कस्मिंश्चिदपि स्थानान्तरे निर्जनं प्रदेशम् | यदि कदाचिदसों निब्राकर्मयशंगतो भवेत्तथा पाकेनैव क्षणवायाः पश्चिमे भागे किञ्चित्कालं संभाज्यं भूमावेव स्वपिति स्म ।
इन तपस्वी का सर्वप्रथम पारणा कूल नगर में दानतीर्थ के प्रवर्त्तक बकुल नरेश के राजमहल में हुआ था। जब ये ग्रात्मध्यान से निवृत्त होते ये तत्र भी इनको श्राहार ग्रहण करने की इच्छा यद्यपि नहीं होती थी फिर भी ये निस्पृह वृत्ति से हो आहार ग्रहण करते थे, आहार को लोलुपता या गुद्धता से नहीं और न शरीर को पोषण करने के भाव से ही । धर्म का साधनभूत शरीर है इसी भाव से ये श्राहार ग्रहण करते थे ।
गोचरी के लिए ये निकट के ग्राम में, पुर में या पत्तन यादि में मुनिचर्या के अनुसार जाते। वहां प्रहार की विधि के अनुसार जो निर्दोष आहार इन्हें मिलता उसे ले लेते । पश्चात् तपस्या करने के लिए वहां से किसी वन में या पर्वत पर चले जाते । विहार करते समय कहीं दो दिन, कहीं चार दिन और कहीं सात दिन तक ठहरते । इसके बाद ये वहां से बिहार करके दूसरी जगह पहुँच जाते । यदि कभी इन्हें निद्रावरणी कर्म के उदय से निद्रा प्रती तो ये रात्रि के पिछले पहर में एक ही करवट से सोते सो भी अधिक समय तक नहीं, केवल थोड़े से ही समय तक ।
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वर्धमानचम्पूः
इस्थमसौ वापयति स्मात्मसाधनायामधिकं शारीरिकसाधनायां च न्यूनातिनूनं कालम् । श्रमुना प्रकारेण कठोरातिकठोरां तपसि चयाँ समाचरससौ विजहार देशाद्देशान्तरम् । भोजनार्थमेव केवलं ग्रामं पुरं घा समागच्छत् । श्रवशिष्टं वाडनेहसं विजने वने, पर्वते, दर्या, नद्यास्तदे, पितृवने, वोधाने च निर्गमयति स्म ।
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भयदा बन्या हिला, श्वापदा यदा समागच्छन् प्रभोस्तस्याम्यर्ण तदा तंप्रशान्तमूर्ति वीक्ष्यैव तेषां क्रूरा हिंसाश्मिका दुर्भावना जिघांसा व स्वतः एव प्रशान्ता जायते स्म । परस्परजातिविरोधिनोऽपि शार्दूला मृगा व्याला नकुला मार्जारा मूषकाश्चेत्यादयः प्राणिनां जन्मजातवैरं विरोधं द्वेषं च विहाय प्रेम्णा प्रशान्तवृत्या चाहिसा मूर्त्तस्तस्य स्वामिनः सविधे तिष्ठन्ति स्म मिथश्च प्रक्रीडन्ति स्म ।
इस तरह ये आत्मसाधना में अधिक से अधिक समय व्यतीत करते और शारीरिक साधना में कम से कम समय लगाते। इस प्रकार ले तप में कठोरातिकठोर चर्या करते हुए थे एक स्थान से दूसरे स्थान में विहार करते रहते | केवल भोजन - प्रहार के लिये ही ये ग्राम या नगर में आते और अपना अवशिष्ट समय या तो निर्जन वन में या पर्वत पर या गुफा में या नदी के तट पर या श्मशान में अथवा किसी बगीचे में समाधिस्थ होकर व्यतीत करते ।
जब भयप्रद जंगली जानवर प्रभु के समीप आते तो वे उन्हें देखकर ही अपनी क्रूर हिंसक दुर्भावना को और जिघांसा को छोड़ देते थे । परस्पर प्रति विरोधी शार्दूल - मृग, व्याल- नकुल, मार्जार और मूलक आदि जीव भी जन्मजात र विरोध-द्वेष का परित्याग कर बड़े प्रेम से हिलमिलकर शान्तिपूर्वक ग्रहिंसा की मूर्तिस्वरूप उन स्वामी के निकट बैठते थे और आपस में अमन चैन के साथ विविध प्रकार की खूब क्रीडाएं करते रहते थे ।
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वर्धमानचम्मूः
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दीपः स्वभावाद्धि यथा तमोघ्नः,
ज्ञानं यथाऽशान लियर्तकं वा। यथौषधं वास्ति गदापहारि,
वह्निर्यथा चेन्धनदाहकारी ॥ १६ ॥
तथैव जीवे खलु वर्तमानः,
रामाद्यभावः समतास्वरूपः । स्वभावतो वैरविरोधहन्ता,
संजायते नात्र विवादलेशः ।। २० ॥
यत्रास्त्यहिंसात्मकवृत्तिशाली, साधुः प्रभावात् सहसा तदीयात् । वृष्टया यथा शाम्यति वह्निरित्थं, शाम्यन्ति तत्रापि विरोधरोगाः ॥२१॥
चन्वनोद्धारः अमुना प्रकारेण विविधस्थलेषु विहरनसौ तीर्थकरो महावीरोऽन्येयुवत्सदेशान्तर्गतां कोशाम्बीनगरोमाहारार्थमायात् । प्रासीसत्रको
जिस प्रकार दीपक स्वभावतः अन्धकार का विनाशक होता है, ज्ञान अज्ञान का निवर्तक होता है, औषध रोग-निवारक होता है और अग्नि ईंधन को जलानेवाली होती है उसी प्रकार जीव में वर्तमान समतारूप रागादिक भावों का प्रभाव वैर-विरोध का नाशक होता है । जहां अहिसात्मकयुत्तिशाली साध रहता है वहां वष्टि से अग्नि की तरह बरविरोधादिरोग शान्त हो जाते हैं ।। १६-२१ ।।
चन्दना सती का उद्धार इस प्रकार अनेक स्थलों में विहार करते हए तीर्थकर महावीर एक दिन वत्सदेश के अन्तर्गत कौशाम्बी नगरी में प्राहार के निमित्त पधारे ।
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वर्धमान चम्पूः
धनपतिमान्यो धनिकस्तस्य हयधोवतिगृहे ( तलघरे) शृंखलानिगडित - हस्तपादामुकलितवदनारविन्दा चन्दना सती हृदयविदारकानेक कष्टं सहमाना वन्दिनीव महता दुःखेन स्वदिवसान् यापयति स्म । विधुरस्तयातयाsश्रावि यतीर्थंकरो विहरन् कोशाम्बीमायातः श्रीमहावीरः । एतच्छ्रवणमात्रेणैव पुलकितगात्रायाः कृतान्तकान्तस्थान्तायाः कान्ताचरणसंमग्नायास्तस्याः स्वाति तृणाय मन्यमानाया मनसीदृशी सुभावोद्रेकवती भावना समुद्भूता यद्यहं परमपुण्यसभ्य दर्शनीय श्रीमहावीराय संयमाराधनतत्पराय दद्यामाहारमिति । किन्तु सांप्रतमहमस्मि भूमिगृहाभ्यन्तर बसिनी शृङ्खला निगडितपादकश कथमिव मे वराकिन्या मनोरथो मनोराज्यादिविकल्पवत् सफलता सभेत । इत्थं दुर्दम्यसंकल्पपरायणा सा हताशा न
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वहां धनिकों में भी विशिष्ट एक धनिकजन रहते थे। उनके मकान के नीचं एक तलघर था । उसमें श्रृंखला से जिसके हाथ-पैर बन्धे हुए थे और मुख जिसका उदासीनता के भाव से मुकलित हो रहा था ऐसी सती चन्दना बन्दी की तरह अनेक हृदयविदारक कष्टों को सहन करती हुई बन्द थी | वह वहां श्रनेक प्रकार के दुःखों को भोगती हुई अपने दुदिनों को व्यतीत कर रही थी । विपत्ति को मारी हुई उसने जब ऐसा सुना कि तीर्थंकर महावीर कौशाम्बीनगरी में पधारे हैं तो सुनते ही सैद्धान्तिक मान्यता से सुहाबने मनवाली एवं निर्दोष आचरण से संपन्न उसका शरीर श्रानंदोत्कर्ष से फूला नहीं समाया अपने आपमें । वह अपनी व्यथा भूल गयीं । उसे तृण के जैसा नगण्य गिनती हुई उसने मन में ऐसी भावना भायी कि मैं पुण्यलभ्यदर्शनवाले इन संयम की आराधना में तत्पर बने हुए महावीर के लिए बाहार दूँ परन्तु में इस समय तलघर में बन्द हूँ, शृङ्खला से मेरे हाथ-पैर बन्धे हुए हैं । यह मुझ अभागिनी का मनोरथ मनोराज्यादि विकल्प की तरह कैसे सफलता को प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार की दुर्दम्य भावना में परायण यह हताश नहीं हुई । अपने
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वर्धमानवम्पू:
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जाता । स्वीयं दौर्भाग्यं दुर्दशा विनिन्दतोयं याववास्ते तावदेव तस्याः पवित्रास्तःकरणभावनारज्याकृष्ट इव संयोगवशतस्तीर्थकरो भगवान महावीरश्चन्दनाया गृहाभिमुखोऽजायत। तस्मिन्नेवायसरे चन्दना स्वीयसदमावनाबलेन विलितत्रुटितनिगडा सती भूमिगृहाबहिरायत्य द्वार्थतिष्ठत् । अनन्यमानसयेत्यं तत्र तया चिन्तितम्
सौभाग्यमेतत्परमं मदीय-, मागान्महावीर
इहाधुनष । कथं च तदर्शनतः पवित्रां,
कुर्यामहं स्वामिति तत्र वध्यौ ।। २२ ।।
धिङमामपुण्यवशत: करपावबद्धाम,
धिग्मा पवित्रविभुदर्शनरिक्तनेत्राम् । धिङ्मामपुण्यवसति युवतियधन्याम्,
धिग्मां प्रवानपरिबजित हस्तयुग्माम् ।। २३ ॥
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दृर्भाग्य की एवं दुर्दशा की इस तरह से निन्दा करने में वह संलग्न ही थी कि इतने में उसकी पवित्र अन्तःकरण की भावना-रूप रखज से ही मानो खिचे हए से वे तीर्थकर महाबीर संयोगवश ज्योंही चन्दना के घर की ओर अाये त्योहो चन्दना अपनी मानसिक सद्भावना के प्रभाव से बन्धनविहीन होकर तलघर से बाहर निकल पायी और पाकर वह द्वार पर बैठ गयो । एकाग्रचित्त होकर उसने वहां बैठे-बैठे इस प्रकार विचार किया
"यह मेरा सर्वोत्तम सौभाग्य है जो इस समय यहां महावीर पधारे हैं । अब मैं उनके दर्शन करके अपने पापको पवित्र करूंगी ।।२२।।
शृंखला में बद्ध हाथ-पैरवाली मुझ प्रभागिनी को धिक्कार है। प्रभु के पवित्र दर्शनों से बञ्चित पाप की खानिरूप और दानधर्म से वजित हस्तयुगलवाली मुझ प्रभागिनी को धिक्कार है ।। २३ ।।
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वर्धमानघम्पूः
इत्थं स्वां मनसि विनिन्दती बन्दना याबदास्ते ताबदेव तीर्थकरो महाबीरस्तव द्वारि समागत्यातिष्ठत् । नवधाभक्ति विधाय सा तस्मै वातगुणमंहिता भक्त्यतिरेकानुक्तिनसाऽऽहारमवात् ।
प्रभूयस्तस्मिन्नेव क्षणे देवः संपावितानि शुभकार्यतासूचकानि रत्नवृष्ट्यादीनि पंचाश्चर्यारिग । चन्दनाया जाता सतीत्वपरीक्षा । सतीत्वपरोक्षायां समुत्तीर्णायास्तस्या महत्वमपि जनतायाः समक्षमनायासेनानया प्रकटितं प्रथितं चेतस्तत सभोरणेन प्रसार्यमाणः कस्तूरिकाया प्रामोव इव झटिति ।
खंबनेयमासीद्राज्ञश्चेटक स्यंव तनुजा। एकदेयं यदोपवने दोलायां बोलयन्त्यासीत्तदा तत्रागतेन फेनापि विद्याधरेण तबीयरूपलावष्याकृष्टमानसेनेयमाहुता। संयोगवशात्तत्प्रपंचतो विनिर्मुक्तेयं विधे विपाकाहाशी
चन्दना इस प्रकार अपने मन में निंदा कर ही रही थी कि इतने में महावीर द्वार पर लाकर खड़े हो गये । चन्दना ने नवधा भक्ति की और उन्हें प्राहार दिया। उसी समय देवों ने शुभकार्यता के सूचक रत्नवृष्टि आदि के पांच आश्चर्य किये। इस तरह चन्दना के सतीत्व की परीक्षा हुई । सतीत्व की परीक्षा में उत्तीर्ण हुई उसका महत्त्व अनायास ही इसके द्वारा प्रकट हो गया और जसे हवा कस्तुरी की सूगध को चारों ओर फैला देती है उसी प्रकार इसके प्रभाव ने उसे चारों तरफ फैला दिया।
चन्दना राजा चेटक की पुत्री थी । एक दिन की बात है कि जब यह उद्यान में भला झल रही थी तब वहां आये किसी विद्याधर ने इसके अनुपम रूपलावण्य को देखा और उससे आकृष्ट होकर उसने इसत्रा हरण कर लिया । संयोगवश ऐसा हुआ कि यह उसके प्रपंच से छूटकर इस श्रेष्ठी के यहां अशुभकर्म के उदय में दासी बनकर रहने लगी ।
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वर्धमान सम्पू:
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भूयास्य श्रेष्ठिनो गृहं समाप । नवयौवनाध्यामिमां राकासुधादीधितिसमानवदनारधिन्दा सुन्दरागीं सुन्दराङ्गाकृत्या न्यकृत्तकामथामा समुद्रीक्ष्य श्रेष्ठिनः श्यामा वामा मनसि. पापाकान्त विचारधारा विचारयामास... कदाचियं मद्भर्तुरनुमता सती तदनुरागानुनद्धा न भूयादित्यारेकथा कलुषितहृदया सा तां वराकी चन्दना शृजलाभिनिगडितपाणिपादों संविधाय स्वभवनस्याधोगहाभ्यन्तरे चिक्षेप । प्रथाच्च तस्यै रूक्षं शुष्क पर्युषितं कशिपुमत्तम्। ____ इत्थं स्वीयदौर्माग्येन प्रपीडिता संव चन्दना सौभाग्योक्यालामहावीरस्य दर्शनं नानाविधपापमलापहारफं समुपलभ्य तस्मै चाहारकं प्रदाय दासताबंधन विनिर्मुक्ता जाता । इयमस्ति सतीति पश्चाविज्ञाय पश्चात्तापपरायणया श्रेष्ठिन्या "वेवि ! अज्ञानवशतो जायमानान् मदपराधान् भातुमनतम दया क्ष नरी संयोज्योक्त्वा साक्षमायाचनया मुहुर्मुहुः सत्कृता "विधिरहो बलवानिति" ययुक्त सत्यमेव ततवत्रसंजातम् ।
पूर्णिमा के चन्द्रमण्डल जैसे मुखवाली नवयौवनवती चन्दना को, जिसके समक्ष कामदेव की गृहिणी रति भी फीकी लगती थी, देखकर सेठ की धर्मपत्नी के मन में ऐसा विचार आया कि कहीं यह मेरे पतिदेव की प्रेमपात्र न बन जावे अत: उसने उसे अपने भवन के तलघर में शृङ्खला से हाथपैर बांधकर बन्द कर दिया और खाने-पीने के लिए वह उसे रूक्ष एव शुष्क बासी भोजन देने लगी।
इस प्रकार जो चन्दना अपने दुर्भाग्योदय से पहले पीडित थी वही चन्दना सौभाग्य के उदय से अब भगवान् महावीर के दर्शन पाकर और उन्हें आहार देकर दासता के बंधन से निर्मुक्त हो गई । जब सेठानी ने "यह सती है" ऐसा जाना तो वह अपने दुष्कृत्य पर बहुत अधिक शामिन्दा हुई और पछतायो । अन्त में उसने अपने दुर्व्यवहार की दोनों हाथ जोड़कर चन्दना से बार-बार क्षमा मांगी तथा उसका खूब सत्कार किया । "भाग्य बड़ा बलवान होता है" यह उक्ति यहां चरितार्थ होती है ।
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वर्धमान चम्पूः
दुःखं तावद्भवति निकषो यत्र नुः स्यात् परीक्षा, शिक्षा दीक्षा गुणिगणकथा तत्कृते न क्षमाऽस्ति । जाते कष्टेऽविगलितधियः कर्मठा ये भवन्ति, राजन्ते से दहनविमलस्वर्णतुल्याः पृथिव्याम् ॥ २४ ॥
सौख्ये सावद्वसति बहुलो दुर्गणानां समूहः,
स्वेच्छाचारोऽकरणकरणं च प्रमादः शुभेषु । सौख्ये मग्नो भवति पुरुषश्चेन्द्रियाधीनवृत्तिः, बह्वारंभी बहुतरपरिसक्तचित्तः ॥ २५ ॥
सुखावसाने ध्रुवमेव दुःखं दुःखावसाने ध्रुवमेव सौख्यम् । इत्थं समtria न दुःखकाले भेतव्यमस्माल सुखानेि ॥ २६ ॥
दुःख एक कसौटी है जिस पर मानव की परीक्षा होती है । शिक्षा, दीक्षा एवं गुणिजन के गुणों की कथा से मानव की परीक्षा नहीं होती । आपत्तिकाल में जो कर्मठ बने रहते हैं और धैर्यविहीन नहीं होते हैं वे अग्नि से तपकर शुद्ध हुए स्वर्ण के समान इस धराधाम पर चमकते रहते हैं ।। २४ ।।
सांसारिक सुखसंपत्र अवस्था में अनेक दुर्गुणों का जमघट्ट रहता है | मनुष्य उस अवस्था में स्वेच्छाचारों निरंकुश बन जाता है। नहीं करने योग्य काम भी करने लग जाता है और अच्छे कार्यों के करने में बह आलसी हो जाता है । उसको प्रत्येक प्रवृत्ति इन्द्रियों के अनुसार होती है वह बह्वारंभपरिग्रहवाला हो जाता है ।। २५ ।।
यह तो निश्चित है कि जब सुख के दिन गुजर जाते हैं तो मनुष्य दुःख के दिनों को भोगता है और जब दुःख के दिन कट जाते हैं तो वह सुख के समय को भांगता है। सुख और दुःख इस तरह शाश्वत नहीं हैंपरिवर्तनशील हैं । इस प्रकार विचार कर सुखार्थी को दुःख के समय दुःख से भयभीत नहीं होना चाहिये ।। २६ ।।
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वर्धमान चम्मूः
यथाsस्ति दुःखमस्थायि सुखं सांसारिकं तथा । शं दत्त्वा गच्छतो दुःखात्तेऽस्ति हा ! का विभीषिका ॥ २७ ॥
संध्यारागनि सौख्यं यदन्ते तपसश्चयः । श्राविर्भवति दुःखान्तं
ज्ञानेनाभान्तकृ
प्रातःकालीन संध्यामं दुःखं संजायते ध्रुवम् । यदन्ते स्फारसौख्यस्य प्रकरशः शान्तिदायकः ॥ २६ ॥
किञ्च - के वाऽस्मदीयाश्च भवन्ति के वा
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जनास्तथा नेलि विवन्ति यस्मात् ।
तत्साधनं श्रेष्ठमिदं हि नान्यत्,
तस्मान्न
दुःखाद्विभितात्कदाचित् ॥ ३० ॥
सांसारिक सुख जब अस्थायी है तो दुःख भी अस्थायी है । ऐसा सोच-समझ कर दुःख से डरने की आवश्यकता नहीं है । जब दुःख नष्ट होगा तो वह सुख देकर ही नष्ट होगा ।। २७ ।।
ज्ञानियों का कहना है कि सांसारिक सुख संध्याकालीन लालिमा के समान है जिसके अन्त में अंधकार का बवंडर श्राता है, वह बवंडर ही तो दुःखों का स्थानापन्न है। यह ज्ञान-ध्यान की प्रभा का नाशक होता है और अन्धकार प्रकाश का विनाशक होना है ।। २८ ।।
दुःख प्रातः काल की लालिमा के जैसा है जिसके बाद स्फार प्रकाशवाला सुखसाम्राज्य भोगने को मिलता है ।। २६॥
अपने और पराये की पहिचान करानेवाला एक दुख ही है अतः इससे घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है ।। ३० ।।
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वर्धमानचम्पू:
सांसारिक सुखं दुःखं कल्पनाशिल्पिनिमितम् । यस्मै यद्रोचते तस्मै तत्सुखं दुःखमन्यथा ॥ ३१ ॥
पाकुलिताविहीनं तु सुखमुक्तमतोऽन्यथा। दुखमेवेति विज्ञाय संसृतौ नास्ति तत्सुखम् ।। ३२ ॥
इत्थं विचिन्त्येव तया विसे हे. प्रबुद्ध्या चंदनयाऽय वुःखम् । प्रशान्तभावेन, ततश्च पश्चाच्छुमोदयात्सा सुखभाग्बभूव ॥३३॥
उपसर्गसहनम् निःसंगः समोरो यथाऽवाधगत्या सर्वत्र भ्राम्पति, न चकत्र कस्मिश्चिदपि स्थले स भवति निरुद्धस्तथैवासंगो निम्रन्थस्तीर्थकरो महावीरोऽपीतस्ततोऽप्रतिवद्धावहारण विजहार। एकवाऽसौ
यथार्थदृष्टि से विचार किया जावे तो सुख और दुःख ये तो कल्पनाशिल्पी के द्वारा निर्मित हुए हैं क्योंकि जो जिसको रुचता है वह उसमें सुख मान लेता है और जो नहीं रुचता वह उसमें दुःख मान लेता है ।।३।।
पाकुलता जहां नहीं है वही सच्चा सुख है और जहां पाकुलता है वहां दुःख है । इस दृष्टि मे संसार में सुख है ही नहीं ।। ३२ ।।।
इस प्रकार का विचार करके ही चन्दमा ने बड़ी समझदारी के साथ दुःखों को सहन किया और फिर शुभोदय के प्रभाव से वह सुखी हो गई ॥ ३३॥
प्रभु का उपसर्गसहन कथन जिस प्रकार निःसंगपवन अबाधगति से सर्वत्र चलता है, वह किसी स्थान में रुककर नहीं ठहरता है उसी प्रकार असंग तीर्थकर भगवान् महावीर ने भी तपश्चरण करने के निमित्त एक स्थान से दूसरे स्थान पर अप्रतिबद्ध विहार किया।
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वर्धमान चम्पूः
विहरन्नुज्जयिन्या नगर्या श्रभ्यर्णमागतः । नगर्यां महिर्तमानेऽतिमुक्तकास्ये पितृवने निर्जन मित्रमधिष्ठानं प्रशान्तवातावरणसनाढ्यं चेति विज्ञायात्मध्याने निमग्नोऽभूत् प्रभुः । यदा सूचीमुखाग्रदुर्भेदेन तमसाऽऽबुता विभावरी दिशोऽन्तरालमाच्छादयन्ती समागता तथा समागात्तत्रैकः कश्चित् स्थाणुनामको रुद्रो रुद्रपरिणामोपेतः । वृष्टस्तेन ध्यान निर्मग्नमनास्तपस्थी स महावीरः । संवीक्षणमात्रत एवासौ शेषान्धो ध्याननिरतं तं ध्यानाद्विचालयितुं विवेकविहीनो भूत्वा तस्योपरि विविधान् महोपसमरिचकारतथाहि सर्वप्रथमं हि तेन स्वसिद्धविचारलेन स्वकीयं स्वरूपं विरूपं घ विधाय भययं कर्णकुहरस्फोटनशीलो वाचालित बिमंडलोट्टहासो विहितः । पश्चानिर्गताग्निकिंजल्कजालं स्वलपनं दुर्बशनीयं विकुर्वन् ध्यानारूढं तं प्रत्याक्रमणं कर्तुमधावत् तदा तेन भूतप्रेतसत्कानि भीतिकराणि नृत्यानि वितेनिरे । करालव्याल केसरिकर्यादीनां विभीषिको पोका श्राखा
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एक दिन की बात है कि वे बिहार करते हुए उज्जयिनी नगरी के निकट आये और उस नगरी के बाहरवाले श्मशान में जिसका नाम प्रतिमुक्तक था, ध्यान करने योग्य शान्त स्थान मानकर आत्मध्यान में निरत हो गये । जब रात्रि का समय आया तो वहां के निवासी स्थाण नाम के एक रौद्र परिणामो रुद्र ने उन्हें ध्यान से निमग्न देखा | उन्हें ध्यान में निमग्न देखकर वह क्रोध से अन्धा बन गया । उसी क्षण उसने उन्हें ध्यान से विचलित करने के लिए उनके ऊपर अनेकविध उपसर्ग करने प्रारम्भ कर दिये 1 सबसे पहिले उसने अपनी सिद्ध हुई विद्या के बल से अपना निजरूप ऐसा विरूप बनाया जो भयप्रद था। उसके द्वारा किये गये अट्टहास ऐसे कठोरातिकठोर थे कि वे कानों की झिल्लियों को भी फोड़े डालते थे । उसने अपना मुख विक्रियाशक्ति से ऐसा बना लिया था कि जिसमें से अग्निज्वाला के केशर के जैसे लाल स्फुलिंगजाल निकल रहे थे। ऐसी विकुर्वणा करके वह ध्यानारूढ महावीर की ओर आक्रमण करने के लिए दौड़ा। उस समय उसने भूतप्रेत आदि के भयोत्पादक रूप बनाये और इन रूपों को बनाकर उसने ऐसे-ऐसे नृत्य किये कि जो शरीर में
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वर्धमानधम्पूः आने तिरूपेण समुच्चारिताः। रजोऽग्निवर्षाऽपि तस्योपरि विकराला प्रबलवेगवती विहिता। एवंविधा अनेके महीपसर्गास्तीर्थकर तं विभीषयितुमात्मध्यानातिचालयितुं च तेन धकिरे। परन्तु न लाधा तेन कापि सफलता । न खलु परमतपस्त्रो बर्षमान एभिर् मर्मन्तुदैरुपसर्गस्तदा किञ्चिवथ्यमैषीत् । न च तस्य वनवृषभनारायसंहननस्य चित्तं ध्यानान्मनागपि वलितम् ।
यया यथाऽनेनोपसस्सेिनिरे तथा तयाऽयं प्रबलवात्यायामचल इवाचलोऽतिष्ठत् । अवसाने रौद्ररूपश्चारी स रुनः स्थाणुः कृतेषूपसर्गज्वप्यसफलतामलभमानस्तूष्णीमास्थायव स्वस्थानं जगाम ।
कंपकंपी छुड़ा देते थे। भयंकर व्याल, सिंह, हाथी आदि जीवों की गर्जनाएँ की । धूलि एवं अग्नि की वर्षा की। इस प्रकार अनेक विकराल महोपसर्ग उसने महाबीर को भयभीत करने एवं आत्मध्यान से च्युत करने के लिए और आत्मध्यान से विचलित करने के लिए किये परन्तु उसे कुछ भी सफलता नहीं मिली क्योंकि भगवान महावीर उसके द्वारा किये गये उन मर्मभेदी उपसर्गों के आगे न तो ध्यान से विचलित हुए और न भयभीत ही हुए क्योंकि वे परमतपस्वी और बच्चवृषभनाराचसंहनन के धारी थे।
रुद्र के द्वारा ज्यों-ज्यों घोर उपसर्ग किये गये त्यों-त्यों वे वायु के निष्कंप पर्वत की तरह प्रात्म-ध्यान में अचल होते रहे । अन्त में वह रौद्ररूपधारी स्थाणु रुद्र के द्वारा किये गये उपसर्गों में सफलता प्राप्त न करने के कारण चुपचाप अपने स्थान पर चला गया ।
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वर्धमानमम्पूः
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यद्यपि सूर्यविरोधी तत्कार्यनिरोधीह शशी शत्रः । कृश्यं लथापि कुरुते स्वयं सूर्यो भपं मुक्त्वा ॥ ३४ ॥
सप्तभयविण्मुलः सम्यग्लानी च निर्भो भुत्वा । विहरति निखिलस्थाने पुर्यावरन्तरं मुक्त्वा ॥ ३५ ॥
समदृष्टियुतः साधुर्यतोऽस्ति सर्वत्र, नव कुत्रापि । शत्रौ मित्रे विषमो विषमे च तत्र न साधुत्वम् ॥ ३६ ॥
चन्द्रोदये यथा चन्द्रकान्तमणिवति तथंव शत्रौ मित्रे बने भुवने सुखे दुःखे च योगे बियोगे वा समष्टिसम्पन्नस्थ साधोर्गुणानां
यद्यपि सूर्य का विरोधी और उसके कार्य का निरोधी शत्रु चन्द्रमा है फिर भी सूर्य अपना कार्य तो निर्भय होकर करता ही है ।। ३४ ।।
इसी प्रकार सम्यग्ज्ञानी पुरुष सात प्रकार के भयों से निर्मुक्त होकर हर एक स्थल पर विहार करता है । उसके चित्त में ग्राम-नगर आदि का भेद नहीं होता ।। ३५ ।।
चाहे शत्रु हो चाहे मित्र हो, सुख हो या दुःख हो, किसी भी प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल संयोगों में समष्टिवाला साधु विषम दृष्टिवाला नहीं होता। जहां ऐसी दृष्टि नहीं है वहाँ साधुत्व नहीं है ।। ३६ ।।
जिस प्रकार चन्द्रमा के उदय होने पर चन्द्रकान्तमणि द्रवित होने लगता है उसी प्रकार शत्रु-मित्र में, वन में, भवन में, सुख में, दुःख में, योग में और वियोग में समष्टिसम्पन्न साधु के गुणों के चिन्तवन करने से
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बर्धमानचम्पूः
चिन्तनाच्चिन्तकस्य बुरितानि विगलितानि भवन्ति । नयनालगताजनमिव पापानि पापाग्यश्रुभिरिव तद्गुणर्मनोगहानिकास्यन्ते लोकेषणाहोनान्तःकररावृत्तयः साधवो दिगंगनालिङ्गितचारुकीर्तयो जायन्ते । वसन्तु ते मे हृदये मुनीन्त्रा भवोवधेः संतरणे पटिष्टाः । यसेवयान्येऽपि जनाः सुभक्ताः स्वं तारयन्त्याशु भवादमुष्मात् ॥ ३७॥
स्वात्मानं साधयन्त्याची पश्चादन्यस्य धारमानः । साध्वाचारप्रतिष्ठायां प्रोक्तास्त एष साधवः ॥ ३८ ॥
न निन्वया खिन्नमतिः प्रसन्नः स्तुस्या न यः स्थास्सुखितः कदापि । एवं विधा यस्य समस्ति वृत्तिर्मुनिः स मान्यो भवति प्रपूज्यः ।। ३६ ॥
चिन्तवनकर्ता के दरित वित होने लगते हैं-विगलित होने लग जाते हैं । जिस प्रकार आँखों में लगा हुआ अंजन प्रांसुओं द्वारा वहां से बाहर कर दिया जाता है उसी प्रकार संत-साधुओं के गुणों द्वारा मनोगृह में सेचिन्तवन कर्ता के चित्त में से पाप निकाल दिये जाते हैं । साधुजन लोषणा से विहीन चित्तवत्तिवाले होते हैं। इसी कारण उनकी सूहावनी कोति चारों दिशारूपी अंगनाओं से प्रालिंगत हो जाती है।
जो साधजन संसाररूपी समुद्र से पार होने में अत्यन्त पट हैं वे मेरे मनमन्दिर में सदा विराजमान रहें । जिनकी सेवा करके अन्य भक्तजन भी अपने आपको इस संसार से पार लगा लेते हैं ।। ३७ ।।
__ "सानोति प्रात्मानमिति साधुः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अपनी आत्मा के हित करने में कटिबद्ध रहता है, पश्चात् अन्य जीवों का हित करता है वही साधु की प्राचारसंहिता में साधुपद से विभूषित किया गया है ।। ३८ ॥
साधजन न तो अपनी निदा में खेद-खिन्न ही होते हैं और न अपनी प्रशंसा में प्रसन्न ही । साधुजनों की ऐसी वृत्ति होती है । ऐसी बृत्तिवाला पवित्र आत्मा ही मुनि-साधु होता है, वही जगत्पूज्य होता है और सम्प्रदायातीत होने से सर्वजनमान्य होता है ।। ३६ ।।
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वर्धमानम्पूः
हिता मिता यस्य भवेत्सुभाषा दिवंगताशास्तगता च भूषा । दमी तपस्वी स्वपरानुकम्पी मुनिर्मनस्वी भयहीन वृत्तिः ॥ ४० ॥
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साधुस्वरूपं प्रतिपद्य ये तु स्वेच्छानुरूपां प्रतिपालयन्ति । यतेः क्रियां हार्दिक भाव शून्यामाडंबरेस्तंबहुभिः सनाथाम् ॥ ४१ ॥
सिद्धान्तसिद्धामवमत्यमान्यामाशां स्वरुच्यं परं भजन्तः | जिनेन्द्र मागी बहिरेव लेन मचन्ति तन्मार्ग कलङ्क रूपाः ।। ४२ ।।
काerent रवेः किरणाः, केन्द्रिता वाहका यथा । तपोभिः केन्द्रिता श्रात्मशक्तयः कर्मदाहकाः ।। ४३ ।।
साधु-सन्तजन की भाषा हितकारक और परिमित होती है । साधु पंचेन्द्रियों के विषयों को चाहना से रिक्त रहता है । वेषभूषा से वह सर्वथा विहीन होता है । इन्द्रियविजयी होता है । तपस्या में रत रहता है । स्व और पर की दया के पालन करने में तत्पर रहता है। उसे किसी प्रकार का भय नहीं होता और वह बहुत ही विचारशील होता है ।। ४० ।।
जो साधु का रूप धारण करके भी अपनी इच्छा के अनुसार चलते हैं- मुनिक्रिया के पालन करने में हार्दिक भावना से शून्य होते हैं एवं बाह्य आडम्बरों में लथपथ बने रहते हैं ऐसे मुनिजन सिद्धान्तमान्य श्राज्ञा की अवहेलना करके अपनी रुचि के अनुरूप श्राचार-विचार में मग्न रहते हैं वे जिनेन्द्र के मार्ग से सर्वथा विपरीत हैं और भुनिमार्ग के कलस्वरूप हैं ।। ४१-४२ ।।
काच के अन्तर्गत हुई ज्येष्ठमास के सूर्य की किरणें केन्द्रित होकर जैसे नीचे रखे हुए तुल यादि को जला देती हैं, उसी प्रकार तपस्या से केन्द्रित हुई आत्मशक्तियां भी कर्मरूप शत्रुओं को नष्ट कर देती हैं ||४३||
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वर्धमानचम्पू:
इत्थं संचिन्त्य फर्मारिवहनार्थं मुमुक्षुभिः ।
तपसा सततं कुर्याद्वर्धमानेन वासिसम् ।। ४४ ।। ताख्यशास्त्राविधिलोडनेन्स स्कोमानमगाय क्षेत्र : अम्बाविदासान्तपदोपगूढो विद्यागुरुमें अयताद् वयालुः ॥ ४५ ॥
नन्त पौत्र पितामहेन रचिते काट्येऽध षष्ठो गतः, एषोऽत्र स्तबकस्तनोतु नितरां विद्वज्जनानां मुदम् । यावच्चन्द्रदिवाकरौ वितनुतः स्वीयां गति चाम्बरे,
स्थेयात्तावदियं मया विरचिता चम्पूर्जनरादूता ॥ ४६॥ श्री सटोले सुतेनेयं सल्लोमाद्भवेन च रचिता मूलचन्द्रेण मालथौननिवासिना।
षष्ठः स्तबकः समाप्त:
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इस प्रकार तपस्या की बलिष्ठता का विचार करके मोक्षाभिलाषी जीवों को बढ़ती हुई तपस्या से प्रात्मा को वासित करते रहना चाहिये ।। ४४ ॥
मेरे विद्यागुरु पूज्यपाद अम्बादास शास्त्री (बनारस निबासी) थे। उन्होंने तर्कशास्त्ररूपी समुद्र का मंचन करके सरस्वतीरूपी रत्न प्राप्त किया था । ऐसे वे मेरे विद्यादाता गुरुदेव सदा जयवंत रहें ।। ४५ ।।
नन्कू नामका मेरा पोता है। मैं उसके पिता का पिता है। मैंने इस चम्पूकाव्य की रचना की है। इसका यह छठवां स्तबक समाप्त हो चुका है । जब तक नभमण्डल में चन्द्र और सूर्य चमकते रहें तब तक यह स्थिर रहे और विद्वज्जनों को प्रानन्द प्रदान करता रहे ।। ४६ ॥
मेरा नाम मूलचन्द्र है । मैं मालीन नाम का निवासी हूं-अर्थात् वह मेरी जन्मभूमि है । पिताश्री का नाम श्री सटोलेलाल और माता का नाम सल्लोबाई है । इस ग्रन्थ की रचना मैंने की है।
छठा स्तबक समाप्त
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सप्तमः स्तबक:
कंवल्यप्राप्तिः
यथा, समिमिन्धनं प्रदह्यते ऽग्निना स्वयम्,
तथैव कर्म संचितं प्रदाले तपस्यया । मुमुक्षुभिः प्रकर्षतः शुभाशयेन सर्वया,
यथा यथा प्रसेप्यो प्रदह्यतेऽजितो विधिः ॥ १ ॥ यथा मलविहीनस्य पदार्थस्य विशुद्धता । यथा विधिविहीनस्य जोषस्यापि विशुद्धता ॥२॥
सातवां स्तबक
जिस प्रकार ईंधन का ढेर अग्नि के द्वारा जला दिया जाता है उसी प्रकार तपस्या के द्वारा आत्मा में संचित हुए कर्म जला दिये जाते हैं
आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध होने से पृथक् कर दिये जाते हैं । अतः मुमुक्षुजन का कर्तव्य है कि वह विशिष्ट पुरुषार्थ के साथ सद्भावों से सर्वदा तपस्या की आराधना करे । क्योंकि जैसे-जैसे तपस्या प्रकर्षवती होती जावेगी तैसे-तैसे संचित कर्म विघटित होते जायेंगे ।।१।।
जिस प्रकार मल-विहीन पदार्थ में विशुद्धता–चमक-निर्मलता प्रा जाती है, उसी प्रकार कर्मविहीन आत्मा में भी विशुद्धता-निर्मलताविशदता-या जाती है ।। २ ।।
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मधमानचम्पूः
स्वस्य त्रैकालिकी शूविक्तिः संव तबाप्तितः । भन्ममृत्वाविक्लेशेभ्यो निर्मुक्तो मुनिनायकः ॥३॥
चतुः कर्मक्षयेणेय जायते केवसाभिधम् । सुजान, सर्वलोकोऽयमणुवचत्र भासते ॥४॥
जगति विद्यमानेषु पदार्थेषु यस्मिन् कस्मिरिचदप्यर्थे पदबहमूल्यत्वं समावरणीयत्वं पाविर्भवति न तक्नोसेन जायमानं विलोक्यते तदर्थ प्रभूतप्रयत्नाः परिश्रमाश्च करणीया भवन्ति । यतस्तत्प्रबलाया स कष्टसाध्याविना मायेव तवभावे तस्यानुपपद्यमानस्यात् । यथा गहनोस्खननानन्तरं भ्रमितो मत्तिकापाषाणाद्याश्लिष्टं रत्नपाषाणशकलं मलिनमेव तावन्निगच्छति ।
आत्मा में जो अकालिक विशुद्धता का वास है वही मुक्ति है । जीव को जब इसको प्राप्ति हो जाती है तब वह मुक्तिकान्ता का नायक बन जाता है ।। ३ ।।
शानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय इन चार कर्मों के सर्वथा क्षय हो जाने पर केवल ज्ञानरूप विशुद्धता की प्राप्ति जीव को हो जाती है । इस ज्ञान में लोकालोक अणु के जैसा झलकता रहता है ।।४।।
जगत् में जितने भी चराचर पदार्थ विद्यमान है उनमें से जिस पदार्थ में जो बहुमूल्यता एवं समादरणीयता आविर्भूत होती है वह उसमें अनायासरूप से आयी हुई नहीं देखी जाती है । इसके लिए तो बहुत अधिक प्रयत्न एवं परिश्रम करना होता है क्योंकि वह उनमें प्रबल प्रायास - कठोर परिश्रम और कष्ट से साध्य होती है अर्थात् ऐसा किये बिना वह उनमें नहीं पा सकती है । जैसे कोई रत्नपाषाण का अर्थी हो तो वह सर्वप्रथम भूमि को खोदता है । खोदते-खोदते उसे भूमि में से जो रत्नपाषाण मिलता है वह मिट्टी से मलिन हुअा ही मिलता है परन्तु जब
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वर्धमानवम्पूः
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परन्तु सद् यथा टंकोल्कोणं धनधातितं सत् जायते शाणोल्लिखितं तवैव प्रकाशमानं रत्नं तस्माषाविर्भय सि । एवमेवाग्निपुटपाकाभ्यां मुहर्मतस्तापितं स्वर्ण सुवर्ण सच्चकास्ति तदेव च तत्र समावरणीयत्वं बहुमूल्योपेतत्वं च जायते । संसारोऽपि च तस्य बहुसमावरं विदधाति, सम्पूर्णमूल्येन बहूत्कंठया तत् क्रोणाति ।
प्रात्मास्त्यनंत ज्ञानादि वैभवजस्तत्समो नास्ति कोऽप्यभूल्यः पदार्थों जगत्त्रये । ररनधदात्मनो विभयोऽपि प्रनादिकालीनसंसक्तकर्ममलेनाहितरवादनाविर्भूतोवर्तते । तस्मिन् कर्ममलेऽन्तहिते तद्वभवं निखिलरूपेण शुद्धं विषाय प्रकटोकतुं महतः पुरुषास्यानेकविधापतितकष्ट सहनक्षमतायाश्चानिवार्यावश्यकताऽस्ति । तवैवारमात्मा परमविशुद्धः सन विश्वविविश्वबंधः परमात्मपवप्रतिष्ठितो भवति ।
उसकी सफाई करने के लिए उसे शाण पर घिसता है और छैनी से उसे काटता-छांटता है और हथोड़े की चोट उस पर देता है तो चमकता हा रत्न उसमें से प्रकट होता है। इसी प्रकार खान में से निकला हा स्वर्णपाषाण अग्निपुटपाक के द्वारा बार-बार तपाया जाता है तो वह निर्मल होकर चमकने लगता है । ऐसी स्थिति में आने पर हो जैसे उनमें बहमुल्यता और समादरणीयता आती है तथा संसार भी उनका बहुत मादर करता है एवं अधिक से अधिक कीमत देकर उन्हें खरीदता है।
यह प्रात्मा भी इसी तरह अनन्तज्ञानादिरूप वैभव का पुंजरूप है । इसके जैसा अमूल्य और कोई पदार्थ तीन लोक में नहीं है । रत्न के वैभव के समान इसका वैभव भी अनादिकालीन कर्ममल से अन्तहित हो रहा है। इस कारण वह प्रकट नहीं हो पा रहा है । अत: उस कर्ममल के भीतर छिपा हुआ प्रात्मा का वैभव सम्पूर्ण रूप से शुद्ध करने के निमित्त बहुत बड़े पुरुषार्थ की और इस कार्य में आये हुए कष्टों को सहन करने की क्षमता की अनिवार्य प्रावश्यकता है । तभी यह आत्मा परम विशुद्ध होता है एवं विश्ववेत्ता-सर्वज्ञ और विश्ववंद्य होकर परमात्मपद पर विराजमान होता है।
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बर्वमान चम्पूः , तीर्थकर महायोरेणापि स्वात्मनः परमविशुद्धिकृते कठोरातिकठोरतपसि चर्या कृता । तपस्येफलोलीभावेन संसक्तस्य तस्य पूर्वसंचितकमराशि प्रत्येकक्षणं निर्जीर्णो भवन्नासीत् । कर्मास्रवस्तबन्धश्चाल्पीयस्त्वं धत्ते स्म । प्रासीत्कर्ममलोऽपत्रीयमानोऽभवत् । एतेनात्मनः प्रच्छन्नं तेजस्तदोदीयमानं संभववासीत् । अतः कर्मभारेण स्वल्पशक्तिवता दुनिवारेणात्मनि प्रतिसमयं लघुत्वमागतम् । मुक्तिश्च प्रतिक्षणं तस्यातिनिकटाबस्थापन्नतां वधाति स्म ।
चारित्रधर्मेण विहीनधोधो कर्माणि बग्धं नहि शक्तिशाली । यथा, तथा बोधविहीन एषोऽपि तानि हन्तुं न ध हन्त ! शक्तः ॥ ५ ॥
तीर्थकर श्री महावीर ने अपने आपको विशुद्धि के लिए कठोरातिकठोर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। वे उस तपश्चरण में दूध में पानी की तरह एकलोलीभाव से विलीन हो गये। उनकी संचित कर्म राशि प्रतिसमय-क्षणक्षण में निर्जीर्ण होने लगी। नवीन कर्मों का आस्रव एवं बंध बिलकुल न्यून अवस्था में होने लगा । अतः आत्मा में छिपा तेज प्रकट-उदित अवस्था बाला बन गया। इस कारण कर्मभार कम होने से प्रात्मा में प्रतिसमय हल्कापन आने लगा और मुक्तिस्त्री भी प्नतिक्षण उनके निकट होने लगी।
जो प्रात्मा चारित्र धर्म से बिहीन होती है वह कर्मों को दग्ध करने मैं शक्तिशाली नहीं बन पाती है। इसी तरह जो आत्मा सम्यग्ज्ञान से रहित होती है वह भी कमों को नष्ट करने में असमर्थ रहती है ।। ५ ।।
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यथाहि कश्चित् प्लवनेक बोधविशिष्ट शिष्टोऽपि नरो न याति । क्रियां विना कूपनिमग्नकायस्तत्पारमत्रापि तथैव बोध्यम् ।। ६ ।।
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ज्ञानक्रियाभ्यां खलु मोक्ष एष महोपदेशो जिनधर्ममर्म । प्रमाणभूतो वितथो न बाधा-विवर्जितो भव्यजनैः प्रसेव्यः ॥ ७
कर्मारण्यं वहति नितरामेव चारित्रवह्नि ।
स्तस्मादन्यो भवति न परस्तत्प्रदुग्धुं समर्थः । गुप्त्याद्यैः प्रज्वलति तरसा वायुनेवाग्निवत्सः ।
कर्मारोधे भवति च पुनस्तत्क्षये वा परिष्ठः ॥ ८ ॥
जैसे कोई तैरना जाननेवाला व्यक्ति पानी में – जलाशय में - कुए में गिर जाने पर तैरने की क्रियारूप हाथ-पैर चलाना आदि किया न करे तो वह वहां से पार नहीं हो सकता इसी प्रकार ज्ञान यदि क्रिया से विहीन है तो वह ज्ञानी भी कर्मों को दग्ध करने में – प्रात्मा से उन्हें पृथक् करने में समर्थ नहीं हो सकता है ।। ६ ।।
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इसलिए ज्ञान और तदनुकूल क्रियारूप श्राचरण के योग से ही जीव श्रात्मशुद्धिरूप मोक्ष प्राप्त करता है ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है । यह सर्वथा प्रमाणभूत है क्योंकि इसमें प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है | अतः त्रितय न होने के कारण भव्यजनों को इसका पालन अच्छी तरह से करना चाहिये || ७ ||
चारित्र की महिमा इस कारण से है कि वह श्रग्नि की तरह कर्मरूपी वन को जड़मूल से नष्ट कर देता है । इसके सिवाय उसे और कोई भस्मसात् करने में समर्थ नहीं है । चारित्ररूपी अग्नि को धधकती बना देनेवाले साधन गुप्ति प्रादि हैं। वायु के वेग से जिस प्रकार श्रग्नि धधक मे लगती है उसी प्रकार इन गुप्ति आदि साधनों से चारित्ररूपी अग्नि वृद्धिगत होती जाती है । यही नवीन कर्मों के शास्रव - आगमन - को रोककर संचित कर्मों को जला देती है ॥ ८ ॥
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ईदृश्यवस्थासमुपेतस्तपस्थी योगी तीर्थकरो महावीरो विहरन् विहारप्रान्तस्थ मगधदेशान्तर्गतग्रामस्य सनिकटे वर्तमानाया ऋजुकलाया नद्यास्तदं ममासवत । तत्र संस्थितस्य विशालसालविटपिनोऽधोभागे निषद्य प्रतिमायोगोऽनेनाधारि । स्वारमध्याननिमानेमानेन सातिशयाप्रमत्तगुणमलामि । तदनन्तरं चारित्रमोहनीयस्य कर्मण एकायशक्ति प्रकृतीः समुन्मूलयितुं अपकश्रेण्या अष्टमं गुणस्थानं समुपलब्धम् । शुक्लध्यानस्यात्र प्रथमो भेद पृथमत्ववितख्येिः समुत्भूतः
उच्चस्तर भवनस्योपर्यारोहणाय यथा श्रेणीबद्धा निश्णय उपयुक्ता Hairi, तर पक्षनिवामस्य फयमूलकारणस्य दुद्धर्षस्य मोहनीयस्य झटिति क्षयार्थ क्षपकश्श्रेण्युपयुक्ता जायते । कर्मक्षय
ऐसी तप:साधनारूप अवस्था-सम्पन्न योगी वे तपस्वी महावीर विहार करते हुए विहार प्रान्तस्थ - मगध देशान्तर्गत जृम्भिका ग्राम के निकट वर्तमान ऋजुकुला नदी के तट पर आये । वहां वे एक विशाल साल वृक्ष के नीचे विराजमान हो गये । वहां उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया । स्वात्मध्यान में निमग्न हुए उन्होंने सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान पर पारोहण किया । बाद में चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों को क्षय करने के लिए क्षपक श्रेणी के प्रथम गुणस्थान अपूर्वकरण पर आरोहण कर शुक्लध्यान के प्रथम भेदरूप पृथक्त्ववितर्क को प्राप्त किया ।
जिस प्रकार किसी ऊंचे भवन पर चढ़ने के लिए श्रेणीबद्ध सोपान - पंक्ति उपयुक्त होती है, उसी प्रकार भव भ्रमण के कारणभूत कर्मबंध के मूलकारणरूप दुर्द्धर्ष मोहनीय कर्म को शीघ्र नष्ट करने के लिए क्षपक श्रेणी
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योग्यानामात्मपरिणामानां प्रतिक्षणमसंख्यातगुणोन्नतिरेव क्षपक श्रेणी । इयं च श्रेणी अष्टम, नवम, दशम, द्वादश गुणस्थानेषु भवति । विष्वाधेषु गुणस्थानेषु चारित्रमोहनीयकर्मणोऽवशिष्टानामेकविंशतिप्रकृतीनां शक्तेः क्रमशो हासो भवति । प्रासां पूर्णक्षयस्तु क्षीणमोहाख्ये गुणस्थान एवं जायते।
चारित्रमोहे विगलिते सति निखिलाः क्रोधमानमायालोभकामहेषादयः कषाया (विकृता भावाः) सर्वथरपुनर्भावेन विनष्टा भवन्ति । तवात्मापूर्णशुद्धवीतरागदशासंपन्नः समोहाविहीनः संजायते । तबनन्तरं द्वितीयं शुक्लथ्यानभेकत्ववितात्यं समुद्भूतं भवति । अस्मिन् जाते
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उपयुक्त होती है। कर्मक्षय के योग्य प्रात्मपरिणामों को जो प्रतिक्षण असंख्यात गुणी उन्नति है यही क्षपकश्रेणी है । यह आपकश्रेणी पाठवें, नवमें, दश और १२ गुणस्थानों में होती है। आदि के तीन गुणस्थानों में चारित्र मोहनीय कर्म की अवशिष्ट २१ प्रकृतियों की शक्ति का क्रमशः ह्रास होता जाता है । इनका पूर्णक्षय तो १२३ गुणस्थान में होता है । बारहवें गुणस्थान का नाम क्षीणमोह है ।
इस तरह जब चारित्र मोह विनष्ट हो जाता है तब क्रोध, मान, माया, लोभ, काम एवं द्वेष प्रादिरूप जो विकृत भाव हैं वे सब अपुनर्भाव से नष्ट हो जाते हैं । तब अात्मा पूर्ण शुद्ध वीतराग दशा से युक्त एवं समोहा-इच्छा से विहीन हो जाता है । इसके बाद शुक्ल ध्यान का द्वितीय पाया जो एकत्व-वितर्क है वह उत्पन्न होता है । इसके उत्पन्न होते ही
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सत्येव ज्ञानदर्शनावरणयोः कर्मणो शानदर्शनावारकयोस्तया वीर्यनिरोधकस्यान्तरायकर्मणश्च भयो जायते । एतेषु विनष्टेषु सत्सु पूर्णज्ञानस्य पूर्ण दर्शनस्य पूर्णबलस्य चात्मनि प्रादुर्भावो विकासो वा संजायते । एतेषां जातोऽयं पूर्णविकास एवैभिरनन्तज्ञानान्तदर्शनानन्तसुखानन्तबलाभिधानर्व्यवहृतो जायते । एतेषु सम्पूर्णगुणेषु पूर्णरूपेण विकसितेषु सत्स्वेवात्मा समस्तभावेन ज्ञाता द्रष्टा भवति ।
प्रात्मनि पूर्णज्ञातृत्वं पूर्णद्रष्टत्यं च त्रयोदशे गुणस्थाने चैव सम्पद्यते । अतः प्रात्मन ईदृशी शुद्धदर्शव त्रयोदशामिधं गुणस्थानं निगराते।
ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्त राय जो कि ज्ञान, दर्शन और वीर्य विशेष के निरोधक होते हैं, का क्षय होता है। इनके क्षय होते ही प्रात्मा में पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन एवं पूर्ण बल का विकास हो जाता है । यह इनका पूर्ण विकास ही अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल इन शब्दों द्वारा कहा जाता है । इन सम्पूर्ण गुणों के विकास हो जाने पर ही आत्मा समस्त भाव से ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव में जो कि इसका मौलिक स्वरूप है, स्थापित हो जाता है।
श्रात्मा में पूर्णरूप से ज्ञातृपना और दृष्टपना १३वे गुणस्थान में पहुँचने पर ही होता है । इनकी प्राप्ति होना ही अर्थात् ऐसी शुद्धदशा होना ही-१३वां गुणस्थान कहा जाता है ।
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163 क्षपकश्रेण्या यानि गुणस्थानानि सन्ति तेषां समयोऽन्तर्मुहर्तप्रमाणः । अस्मिन् काले योगी सर्वज्ञो जायते । बीतसर्वज्ञ पदावाप्तिरेवात्मनो जीवन्मुक्तावस्था। सैव परमात्मा (महन) एवंविधन शन्देनाख्यायते । एतत्पूर्णोन्नतिरूपस्याथवा तत्पूर्णशुद्धिस्वरूपस्यात्मन इयवृहत्कार्यसमुत्पत्तावियान् लधीयान् समयो लगति, तथापि तवय स!स्कृष्ट कार्य मिदं संपादितं भवति यदाऽऽत्मा तपश्चरणेन शुक्लध्यानाविवियोग्य सामग्र्या संकलितो जायते।
शुक्लध्यानस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामकस्तृतीयः पादोऽस्मिन् प्रयोदशे गुणव्याने समाविर्भूतो भवति ।
मालमोन्नतेरस पौराग सतनालीगन्मुक्तपरमात्मपदलाभस्वरूपाया अयं पंथास्तीर्थकर महावीरेणापि समुपात्तः । तरपवप्राप्तिप्रक्रियामन्तरेण तस्याभावात् । पंचदशदिवसाधिकपंचमासोपेतानि
क्षपक श्रेणी के जो गुणस्थान हैं उनका समय एक अन्तर्मुहूर्त का है, इस समय में ही योगी सर्वज्ञ हो जाता है । वीतराग एवं सर्वझपद की प्राप्ति ही आत्मा की जीवन्मुक्त अवस्था है । यह अवस्था ही परमात्मा अर्हन्त इन शब्दों से अभिहित होती है । यद्यपि इस पूर्ण उन्नतिरूप अथवा अपनी पूर्ण शुद्धिस्वरूप प्रात्मा के इतने बड़े कार्य की उत्पत्ति में इतना सबसे अल्प-कम-समय लगता है फिर भी सर्वोत्कृष्ट यह कार्य उसी समय सम्पादित होता है जब प्रात्मा तपश्चरण के द्वारा शुक्लघ्यान को प्रकट करने योग्य सामग्री से युक्त हो जाता है ।
इस १३वें गुणस्थान में सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नाम का तीसरे शुक्लध्यान का भेद प्रकट होता है।
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वीतराग सर्वज्ञ अहंत जीवन्मुक्त एवं परमात्मपद के लाभ होने रूप आत्मोन्नति या आत्मशुद्धि का यह मार्ग तीर्थकर श्री महावीर ने भी प्राप्त किया क्योंकि इस पद को प्राप्त करने की जो प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया के बिना उस पद की प्राप्ति नहीं होती है । महावीर ने १२ वर्ष ५ माह और
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द्वादशवर्षाणि यावत्' तपश्चर्यां विधाय सेन शुक्लध्यानस्यायो भेदोऽलाभि । तदनन्तरं पूर्वोक्तकथनानुसारेण तेन मोहनीय-ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाख्यानि चत्वारि कर्माणि धात्यभिधानि क्षपितानि । एकस्मिन्वान्तमोहत्तिके काले घातिकमं प्रक्षयानन्तरमेव सर्वज्ञा दिप विशिष्टा पावाप्तिस्तस्य जाता । श्रतः स पूर्णशुद्धस्त्रिकालज्ञाता श्लिोकज्ञः संवृतः । प्रसीदयं कालो बेसाखशुक्लाया दशम्या अपराह्नस्य ।
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तीर्थकर महाबीरेणेतः पूर्व तृतीये भवे यदर्थं तपस्याकारि, अस्मिश्च वर्तमाने भवे राजसुखस्य गृहपरिवारस्य च परित्यागः कृतस्तदुत्तमं कार्य तस्य सिद्धिसौधासीनं जातम् । यथेदं तीर्थंकरस्य महावीरस्य महत्सौभाग्य
१५ दिन तक तपश्चरण किया, तब उन्हें शुक्लध्यान का प्रथम भेदपृथक्त्ववितर्क प्राप्त हुया । पूर्वोक्त कथन के अनुसार उन्होंने मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों को समूल नष्ट किया । एक ही अन्तर्मुहूर्तकाल में घातिया कर्मों के विनष्ट होते ही वे सर्वज्ञपद से सुशोभित हुए प्रत: पूर्ण शुद्ध हुए वे त्रिकाल ज्ञाता और त्रिलोक के द्रष्टा बन गये । यह समय वैसाख शुक्लपक्ष १० मी तिथि के अपराह्न का था ।
तीर्थंकर महावीर ने इस भव से पूर्व तीसरे भव में जिसके निमित्त तपस्या की थी और इस वर्तमान भत्र में जिसके निमित्त राजसुख एवं गृह परिवार का परित्याग किया था उनका वह सर्वोत्तम कार्य अच्छी तरह सिद्ध हो गया। जिस प्रकार यह तीर्थंकर महावीर का बड़ा सौभाग्य था
1. गमय छदुमत्यन्तं बारमवाणिपंचमासेय चरमाणि दिणाणि यति रयणसुद्धो महावीरी ॥
खसितम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते
2.
—- जयधवला भाग १
चंद्र क्षपकश्रेण्यातस्योत्पन्नं
केवलज्ञानम् ॥
साहसुद्ध दहमी माहारिक्खम्म वीरणाद्स्स रिजूकूलनदीतीरे अपरान्हे haar ||
-तिलोयप०
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मासीत् तथैव समस्तसंसारस्य विशेषतो भारतवसुंधराया अपि परमं सौभाग्यमासीत् । यत्तया सत्यज्ञासा सत्पथप्रदर्शकस्तयाऽसाधारणप्रभावशालिवक्ता च समुपलब्धः । जातस्तस्यास्तीर्थकर महावीरेणी पातायास्तीर्थकृत्प्रकृतेरुवयस्य सुवर्णावसरः। श्री तीर्थकरनामकर्मशफलं बद्धाऽच्युते योऽभवत् ।
शक्रोदेवसमूहसंस्तुतभवः कल्पे विकल्पातिगः । दिव्यस्त्रीनयनाभिराममुकुरो दिव्याम्बरो भूषण ।
विव्यस्तैः समलंकृतोऽवधिगुतो दिव्यांधवृद्ध्यन्धितः ।।। भुक्त्वा स्वः सुकृतोदयेन विविधान् भोगोपभोगाम् परान् । तत्यान् गलितस्थिविः समभवसिद्धार्थभूपात्मजः । स्यक्त्वा राज्यसुखं विहाय जननीसातं मुनियोऽभवत् । हुत्वा कर्मरिपून प्रबोध्य भविकानन्तेऽय मुक्ति गतः ॥ १० ॥
...-..उसी प्रकार समस्त संसार का एवं विशेषतः भारत वसुंधरा का भी यह परम सौभाग्य था जो उसे ऐसा सत्यज्ञाता एवं सत्पथप्रदर्शक असाधारण प्रभावशाली वक्ता प्राप्त हुग्रा । भगवान महावीर ने जो तीर्थकर नामकर्म की प्रकृति का बन्ध किया श्वा उसके उदयकाल का स्वर्ण अवसर अब उन्हें प्राप्त हुआ।
श्री तीर्थकर नामकर्म की प्रकृति का बंध करके जो अच्युत कल्प में इन्द्र की पर्याय से उत्पन्न हुए, देवों ने वहां जिनके भव की बारम्वार स्तुति की, देवाङ्गनाएँ जिन्हें देखदेखकर अपने नयनों को सफल मानतीं, जो दिव्य वस्त्रों से एवं दिव्य आभूषणों से सदा अलंकृत रहते, देशावधि वहां उत्पन्न होते ही जिन्हें प्राप्त हो गया एवं दिध्य ऋद्धि से जो समन्वित बने ।।६।।
वहां के विविध दिव्य भोगों को भोगते-भोगते जिन्हें अपनी गलित हो रही स्थिति-ग्रायु-का पता तक नहीं पड़ा~भान नहीं हुआ और वहां की भुज्यमान प्रायु जब समाप्त हो चुकी तो वहां से च्युत होकर जो [सद्धार्थ नरेश के पुत्र बने, पश्चात् राज्य सुखों का परित्याग करके और मातापिता के प्यार को भी छोड़कर के जिन्होंने मुनि दीक्षा धारण की एवं कर्म शों को परास्त करके तथा भव्य जीवों को सद्बोध देकर जो मुक्ति को प्राप्त हुए ऐसे वे वीर प्रभु सदा जयवन्त रहें ।। १० ।।
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वर्धमानबम्पूः च्युत्वा तस्मात्रिदशवनितागीतकीर्तमहिन्याः,
सिद्धार्थस्य प्रथिता ज्ञातृशान ज्ञः । कुक्षी शुक्तौ मणिरिव विभुः शान्तिदोऽवातरत्सः,
सत्यं तावद्भवति महतां जन्म स्वान्योदयाय ॥ ११ ॥
तपांसि तप्त्वा विविधानि येन निजात्मशुद्धिः समवापि येन, कैवल्यमुद्भाव्य विभाव्य सम्यक कुबोधतम्याऽवृतजोवलोकम् । व्यवधायि सज्ज्ञानमयः प्रकाशो वोरातियोराय नमोऽस्तु तस्म, सौभाग्यमेतत्खलु भारतस्य यस्मिन् प्रजज्ञे त्रिशलासुतोऽयम् ॥ १२ ॥
उस अच्युत स्वर्ग (१६वें कल्प) से च्युत होकर भगवान महावीर का जीव जातृवंशीय यशस्वी नरेश सिद्धार्थ की पटरानी की कुक्षि में प्रयतरित हुआ । त्रिशला महिषी की महिमा--कीति की गाथा-स्वर्ग की देवियों ने मुक्तकंठ से गाई । सिद्धार्थ का यश भी चतुदिग् व्यापी हो गया। सच बात तो यह है कि त्रिशला की कुक्षि में महावीर का जौब इस प्रकार रहा जिस प्रकार शुक्ति में मुक्ताफल रहता है । त्रिशला के गर्भवती होने से समस्त बन्धुजनों को अपार हर्ष हुअा। सच है महापुरुषों का जन्म स्वयं के और अन्य प्राणियों के अभ्युदय के लिये होता है ।। ११॥
महावीर प्रभु ने छमस्थ अवस्था में अनेक प्रकार के तपों की आराधना की और उनके प्रभाव से उन्हें कर्मक्षय होने पर कैवल्य प्राप्त हुया । उसे प्राप्त कर उन्होंने प्रज्ञानरूप अन्धकार से प्राच्छादित हुए इस जीव लोक को सम्यग्ज्ञान रूप प्रकाश प्रदान किया । ऐसे उस वीरातिवीर प्रभु को मेरा नमस्कार हो । यह भारत देश का परम सौभाग्य है कि जिसके प्राङ्गण में त्रिशला का ऐसा लाल जन्मा ।। १२ ।।
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परीषहा यस्य न चित्तवित्तं हतु सशक्ता अपि संबभूवुः । वीराय दुर्वारमनोजवार्य विच्छेदिने सन्मतये नमोऽस्तु ॥ १३ ॥
घातिकर्माणि संधात्य कैवल्यं समवाप्य छ । धार्मिकज्ञानरिक्तेभ्यो नृभ्यो बोधमसावदात् ।। १४ ॥
बह्नस्तापो गुरुवर ! यथा कच्चलं स्वर्णवर्णम् ।
अन्तर्भूत्वा मलविरहितं सर्वशुद्धं करोति । एवं स्वामिन्नसि मम मनोगेमन्तर्गतस्त्वम् ।
स्वल्पं ज्ञानं समलमपि मे निर्मलं स्थान किस्वित् ॥ १५ ॥
तपस्या काल में उन्होंने अनेक परीषह सहे । वे परीषह सशक्त थीं—फिर भी वे उनके चित्तरूपी धन को हरण करने में समर्थ नहीं हो सकी। जिसके प्रभाव के आगे बड़े-बड़े वीर नत-मस्तक हो गये ऐसे उस दुर्वायं वीर्यशाली कामदेव के मन का मान मर्वन करनेवाले सन्मति-महावीर को मेरा नमस्कार हो । १३ ।।
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय इन ४ धातिया कर्मों को समूल नष्ट करके जिन्होंने केवलज्ञान आदि रूप अनन्त चतुष्टय प्राप्त किया और उसे प्राप्त कर फिर जिन्होंने धामिक ज्ञान शुन्य जनता को धर्म का स्वरूप समझाया ऐसे वीर प्रभु को मेरा नमस्कार हो ।। १४ ।।
हे गुरुदेव ! जिस प्रकार अग्नि का ताप मलिन स्वर्ण के भीतर प्रविष्ट होकर उसके भीतर बाहर को मलिनता को नष्ट कर देता है और उसे निर्मल कर चमका देता है उसी प्रकार ग्राप मेरे मन मन्दिर में बिराजमान हैं अतः मेरा समल स्वल्प ज्ञान भी यदि निर्मल हो जाता है तो इसमें कौनसी अनोखी बात है ।। १५॥
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वर्धमानचम्पूः
राकेशपत्रस्थ पितामहेन कृते जगामैष समाप्तिमत्र । कैवल्यरूपः स्तनको विदध्याद्विपश्चितां चेतसि मोदभारम् ॥ १६ ॥
यावद्नाजति शासनं जिनपते यावच्च गंगाजलम् ।
यावच्चन्द्रदिवाकरौ वितनुतः स्वीयां गतिं चाम्बरे । तावन्मे भुवि वर्धमानचरितं चम्प्वाख्यमेतत् सताम् । चित्तं ह्लादयतु] व्रजेषु विदुषां पापठ्यमानं सदा ॥ १७ ॥
श्री सटोले सुतेनेयं समन रचिता मूलचन्द्रेण मालथौनाप्तजन्मना ॥। १८ ।।
सप्तमः स्तवक समाप्तः
राकेशकुमार के जनक के जनक द्वारा निर्मित इस वर्धमानचम्पू काव्य में यह कैवल्य रूप स्तबक समाप्त हुआ, यह विद्वानों के मन को आनन्ददायक हो ।। १६ ।।
जब तक इस धराधाम पर जिनेन्द्र का शासन शोभित है, गंगा का जल प्रवाहित है तब तक मेरा यह वर्धमानचम्पू जिसमें वर्धमान प्रभु का चरित्र वर्णित हुआ है विद्वन्मंडली में सुन्दर रीति से पठित होता हुआ सन्तजनों के चित्त को ग्रानन्दित करता रहे ।। १७ ।।
श्री सटोलेलालजी के सुपुत्र और श्री सल्लोमाता की कुक्षि से जन्मे मुझ मूलचन्द्र ने इस चम्पू – वर्धमानचम्पू – की रचना की है । सागर जिलान्तर्गत मालथौन मेरी पवित्र जन्मभूमि है ।। १८ ।।
सप्तम स्तबक समाप्त
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भ्रष्टमः स्तबकः
समवशरणम्
हे वीर ! नागदमनीव तव स्तवोऽयम्,
संसार तीव्रगरलं भविनां निहन्ति ।
मंत्र,
किं न प्रभो ! विषविकारमपाकरोति ॥ १ ॥
पापठ्यमानमहिवष्टजनस्य
गर्भस्थेऽपि त्वयि सति विभो ! व्याधयो वाऽऽधयो वा
नष्टा जाता प्रवगतमिदं प्राणिनां स्वत्प्रसादात् 1 सानास्वां ये नयनच कैफ कंट पिबन्ति ।
तेषां तासां विकटनिचयो नश्वरः किं न भूयात् ॥ २ ॥
भ्रष्टम स्तबक
समवशरण
हे वीर प्रभो ! प्रापका यह स्तव संसारस्य जीवों के संसाररूपी तीव्र विष को नागदमनी के समान वैसे ही नष्ट कर देता है जैसे सर्प से दष्ट व्यक्ति के विष को जरा जा रहा मंत्र - विषनाशक मंत्र - नष्ट कर देता है ॥ १ ॥
हे विभो ! यह बात जगजाहिर है कि जब थाप स्वर्ग लोक से च्युत होकर त्रिशला माता के गर्भ में अवतरित हुए तो श्रापके उस प्रभाष से प्राणियों की आपत्तियां एवं विपत्तियां सब नष्ट हो गई, तो जिन्होंने श्रापके दर्शन किये हैं या जो करते हैं उनकी भयंकर प्रापत्ति विपत्तियों का समूह क्यों नहीं नष्ट होता होगा || २ ||
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दृश्यते हि ।
चित्रं चित्रं सुचरितमिदं यत्प्रभो ! ध्यानतस्ते, त्वाद्ग्जीवस्त्रिभुवनपतिर्जायते, लौहः स्वर्ण भवति मलिनः पररवस्य प्रयोगात्, स्वामिस्तेऽस्ति प्रबल महिमा कोऽप्यपूर्वो न वाच्यः ॥ ३ ॥
दिगम्बरत्वाद्भवता प्रदीयते
तथापि ते
न किञ्चित्, भक्तजनाय कस्मे ।
पुण्यगुणस्मृतिर्नः,
पुनाति चित्तं
दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ ४ ॥
देवाधिदेव ! भवतां विहितं यदत्र,
वर्धमाननम्पूः
स्वल्पायुषाऽपि तव तच्चरितं पुनाति ।
जेगीयमानमिह मानवचित्तवृत्ति, तस्मात्प्रसत्रमन सेवमहं
ब्रवीमि ।। ५ ।।
हे प्रभो ! सापका चरित्र बहुत ही अधिक अचरजकारी है क्योंकि जो उसका ध्यान करता है वह ग्रापका जैसा ही त्रिभुवनपति बन जाता है. परन्तु विचारने पर श्रचरज इसलिए नहीं होता कि मलिन लोहा गारद के योग से सोना बनता हुआ देखा जाता है || ३ ||
हे नाथ ! श्राप दिगम्बर हैं- दिशाएं ही आपके वस्त्र हैं । इसलिए आप अपने भक्तजन को कुछ भी नहीं देते - फिर भी आपके पावन गुणों की स्मृति हम लोगों के चित्त को पापरूपी अंजन के लेप से बचाती रहती है ॥ ४ ॥
हे देवाधिदेव ! प्रापने थोड़ी सी आयु में ( ७२ वर्ष की अवस्था में ) ही जो कार्य किया जब उस पवित्र कार्य का गुणगान किया जाता है, तो वह मानव की चित्तवृत्ति को पावन कर देता है । इसी विचार से मैं बड़ो प्रसन्नता के साथ आपके चरित्र का वर्णन कर रहा हूं ।। ५ ।।
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वर्धमानचम्पूः
इत्यं संस्तुतो भगवान् महावीरोऽधुना सर्वज्ञाता सर्यवर्शी संजातो यदा कतिपयविशिष्टचिह्नः सौधर्माधिपतिना शकेणेति विज्ञातं तदंतसुक्ष्न्तं रम्योचर्कान्त विज्ञाय सस्यामन्दानन्दोरकर्षः पराकाष्ठामियाय । तत्कालमेव तेन स्वकीय कोषाध्यक्षमाहूय कथितं यत्त्वं तीर्थंकरस्य महावीरस्य महोपदेशो विश्व कल्याणकारी सर्वसाधारण जनताकृते स्यावतएवंफ सवंमनोहरं भव्यं विस्तृतं व्याख्यानसभामंडपं निर्मापय ।
तदाज्ञां प्रमाणीकृत्य कुबेरेणाशु दिव्यसाधनंरेकोऽतिविशालो मनोहरः सभामण्डपो निर्मापितः । प्रासीवयं विभिप्रैश्चतुभिश्च गोपुरैः समलकृतः, द्वाराणि च भानस्तम्भकर्मानस्तम्भः सनाढ्यान्यासन् । तव्याख्यानसमामंडपे तिसृभिः कटिनीभिः परिक्षिप्ता रम्यको वेदिका
इस प्रकार जनता द्वारा पूजित भगवान् महावीर अब सर्वज्ञाता सर्वदर्शी हो चुके हैं ऐसा जब कतिपय विशिष्ट चिह्नों द्वारा सौधर्माधिपति शक्र ने जाना तो उसके प्रानन्द का पारावार नहीं रहा । उसी समय उसने अपने कोषाध्यक्ष कुबेर को बुलाया और उसे आदेश दिया कि तुम तीर्थंकर भगवान महावीर का विश्वकल्याणकारी महोपदेश सर्वसाधारण जनता के लिए लुलभ हो इस निमित्त एक सर्वमनोहर भव्य विस्तृत व्याख्यानसभा-मण्डप का निर्माण करो।
इस आज्ञा को शिरोधार्य करके कुबेर ने शीघ्र ही दिव्य साधनों द्वारा एक भव्य अतिविशाल चित्ताकर्षक सभामण्डप तैयार करा दिया । वह व्याख्यानमण्डप तीन कोटों और चार गोपुरों से, मानी के मान को गलित करनेवाले मानस्तम्भों से युक्त था। उस व्याख्यानसभामण्डप में तीन कटनियों से घिरी हुई एक सुन्दर वेदिका थी । इसका दूसरा नाम गंध
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वर्धमानचम्पू :
पराभिधाना गन्धकुटी निर्मिता । तस्या उपरि विविधमणिभिनि चितमेकं सिंहासनं तदुपरिमध्ये व पुष्करमेकं विनिमितम् । गन्धकुटीम मितो द्वावशसंख्याका विशालप्रकोष्ठा प्रासन् । येषु प्रभोरुपवेशश्रोतॄणां देवदेवीमारीसाधु-साध्वी- पशुपक्यादीनामुपवेशनार्थं समुचिता व्यवस्था कृताऽऽसीत् । तथैतदतिरिक्तानामागन्तुकजीवानां सुविधाकृतेऽन्यान्यपि समुचितानि स्थानानि साधनानि च तस्मिन् समवशरणे विरचितान्यासन् । श्रासीच्च मध्ययतिन्यास्तस्था गंधकुटिन्या उपरि संस्थापिले र्यासने प्रभोर्महावीरस्य तीर्थकर्तुरुपदेशनाथं वरिष्ठा व्यवस्था येन तस्योपदेश: श्रोतृभि । सुखं सुखेनाधिगतो भवेत् ।
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निवढ्य तीर्थंकर नामकर्म गवाsथ वैमानिकदेवलोकम् । तत्रस्य भोगानुपश्य पश्चास्युत्वा ततो ये ऽत्र सम्भवति ॥ ६ ॥
भवन्ति तेषां नियमेन पंच कल्याणकानीह सुरेख बुन्वैः । संपावितान्युत्तमपुण्य राशेविशिष्ट माहात्म्य निवेदकानि ॥ ७ ॥ — युग्मम्
कुटी भी है । उसके ऊपर महारत्नों से खचित एक सिंहासन था । सिंहासन के ऊपर एक कमल बना था। गन्धकुटी के चारों ओर १२ विशाल प्रकोष्ठ थे। जिनमें प्रभु के उपदेश को सुननेवाले देव-देवी, नर-नारी, साधु-साध्वी एवं पशु-पक्षी आदि के बैठने की समुचित व्यवस्था थी । इनके अतिरिक्त और भी आगन्तुक जीवों की सुविधा के लिए अन्य अन्य समुचित स्थानों की, साधनों की समुचित व्यवस्था यहां की गई थी । समवशरण के ठीक मध्य भाग में वर्तमान उस गन्धकुटी के ऊपर एक सिंहासन स्थापित था। उस पर प्रभु वीर के बैठने को सुन्दर व्यवस्था थी जिससे उनका धर्मोपदेश श्रोतागण अच्छी तरह सुन सकें ।
तीर्थंकर नामकर्म का बंध करके जो वैमानिक देवलोक में उत्पन्न होते हैं उनके नियम से पांच कल्याणक होते हैं। ये पांच कल्याणक देवेन्द्रों द्वारा संपादित होते हैं । इनसे पुण्यराशि का विशिष्ट माहात्म्य जाना जाता है ।। ६-७ ।।
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वर्धमाननम्पू:
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तीर्थकराल्यप्रकृतेः प्रभावाद्धर्याविशेषु समुद्भवानाम् । कल्याणका ये च भवन्ति पंच नामानि तानीत्यमहं ब्रवीमि ॥ ॥
प्रथमं गर्भकल्याणं जन्मात्यं स द्वितीयकम् । दोक्षाभिधं तृतीयं च ज्ञानाह्वयं चतुर्थकम् ॥६॥
मोक्षायं पंचमं ज्ञेयं धर्मतीर्थविधायिनाम् । भवन्त्येतानि सर्वाणि धन्यस्तेषां भवोऽङ्गिनाम् ॥ १० ॥
-युग्मम
वीरेण केवलं लब्धं यदा ज्ञातं मुराधिपः । तदा संभूय सर्वस्तरागतं सत्र हेलया ॥ ११ ॥
शक्कादिष्टकुबेरेण यथाशीघ्र विनिर्मितः । विस्तृतो मंडपश्चको द्वादशकोष्ठसंयुतः ॥ १२ ॥
तीर्थकर-प्रकृति के प्रभाव से ऐसे जीव हरिवंश आदि उत्तम वंशों में ही उत्पन्न होते हैं। उनके जो पांच कल्याणक होते हैं उनके नाम इस प्रकार हैं-|| ८ ।।
(१) गर्भकल्याणक, (२) जन्मकल्याणक, (३) दीक्षाफल्याणक, (४) ज्ञानकल्याणक और (५) मोक्षकल्याणक । ये पांचों कल्याणक धर्म तीर्थकरों के ही होते हैं। उनका ही मानव-जन्म धन्य है ।। ६-१० ।।
वीर प्रभ को केवलज्ञान प्राप्त हो चुका है, इन्द्रों ने जब ऐसा जाना तो वे सब के सब एकत्रित होकर क्षण भर में वहां उपस्थित हो गये ॥११॥
शक्र ने उसी समय अपने कोषाधिपति कुबेर को बुलाकर प्रादेश दिया कि तुम एक सुरम्य विस्तृत सभामण्डप की रचना करो। इन्द्र की आज्ञा को शिरोधार्य कर कुबेर ने उसी समय बारह कोठों से युक्त सभामण्डप तैयार कर दिया ।। १२ ।।
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चचच्चारुवृहद्ध्वजो अतियुतं सर्वासु दिक्षु स्थितम् । मानोत्मादविमोचकं स्मयवतां सार्थाभिधानं महत् ॥ १३ ॥
मानस्तंभ चतुष्टयं समभवत्तच्छधर्नय प्रभोः । रेजेऽनन्तचतुष्टयं किमिह भोः ! कर्मक्षयेोत्थितम् ॥ १४ ॥
सा भवते गत्वा
त्रिभिप्रेश्च चतुभिश्च
सरोभिः
मंडपे राजते रम्या
गौपुररेष
वर्धमानचम्भूः
मण्णावहिः ।
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पुष्पवाटया व क्रीडोद्यानेन
राजते ।। १५ ।।
संयुते । गंधकुटधाख्यवेदिका ।। १६ ।
उस सभामण्डप की चारों दिशाओं में बड़ी ध्वजाओं से युक्त चार मानस्तम्भ बनाये गये । ये मानस्तम्भ सार्थक नाम वाले थे क्योंकि इनको देखते ही मानियों का मान अभिमान चकनाचूर हो जाता था ।। १३ ।।
यहां कवि की ऐसी कल्पना है कि प्रभु के प्रकट हुए अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्थं ये चार अनन्तचतुष्टय ही इन चार मानस्तम्भों के ब्याज से सुशोभित हो रहे हैं । १४ ।।
ये चारों मानस्तम्भ सभामण्डप के बाहर होते हैं । सभामण्डप तीन कोटों प्रौर चार दरवाजों से युक्त था ।। १५ ।।
वहां खेलने का मैदान भी बनाया गया था । तालाब और बगीचों की भी रचना की गई थी । मण्डप में एक गंधकुटी - वेदिका - भी बनाई गई थी ।। १६ ।।
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वर्धमानचतुः
सन्मध्ये राजते रम्पं मणिनिर्मितमासनम् यत्र संस्थित्य धर्मशो धर्म शास्ति सुखावहम् ॥ १७ ॥
प्रा
जन्मजातानि वैराणि मुक्त्वा तिष्ठन्ति देहिनः । साम्यभावं समाश्रित्य तस्मिन धर्मसभास्थले || १८ |
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तदनन्तरमेव वेबदुंदुभीनां निनादो मोदोत्कर्षनिदानोऽभूत् । प्रभूतदूरस्थापित राति निशम्य दविष्ठवेशवतिनामपि जनानां चेतसि जातोऽयं विनिश्थ्यो यत्तीर्थकर्तुं महावीरस्य समबशरणं रचितमिति । यदेदृशी वार्ता बहुवरस्थानामपि कर्णयुगलगोचरा
इस गंधकुटी के ठीक मध्य भाग में मणिजटित एक सुन्दर सिंहासन निर्मित किया गया था जिस पर अन्तरीक्ष में विराजमान होकर तीर्थकर महाबीर धर्म का उपदेश करेंगे ।। १७ ।।
उस धर्मसभा में प्रभु की दिव्यवाणी को सुनने के भाव से भागत प्राणी - ~तिर्यञ्च गति के जीव- जन्मजात वैर को छोड़कर परस्पर बड़े प्रेम से अपने कोठे में बैठते हैं और प्रभु का उपदेश सुनते हैं और सब अपनीअपनी भाषा में उसे हृदयंगम करते रहते हैं ।। १८ ।।
इसके अनन्तर देवदुन्दुभियां बजने लगीं जिसे सुनकर लोगों को अपार हर्ष हुआ । इनकी दूर-दूर तक फैली हुई चित्ताकर्षक मधुर ध्वनि को सुनकर दूर-दूर स्थानों पर रहने वाले मनुष्यों के चिल में ऐसा निश्चय हो गया कि तीर्थंकर महावीर का समवशरण रचा जा चुका है ऐसी बात जब उन मनुष्यों के कान में पड़ी जो बहुत दूर-दूर तक रह रहे थे, तब
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वर्धमानः
जाता तवा ते संत्यक्तसर्वसंगस्य मुक्तकबलाहारस्य, स्वीकृताम्बराम्बरस्य,
तपः श्रीवल्लभस्य,
त्रिभुवनललामभूतस्याष्टमंगलध्यनव निधिसमेत नाट्यशाला धूपघट घंटाध्वजाभिराम नागकुमार द्वारपालक विराजिते तस्मिन् तस्य देवस्य दिव्यधर्मोपवेशश्रवणोरकंठया दूरदूरादपि समागत्यर्जुकूलानथास्तटे निमिते सभामण्डपे समावेता श्रभवन् । विस्तृत देवसमूहपरिवारः परितः परिवृतः शक्रोऽपि तत्र समुपस्थितोऽभवत् । तत्रोपस्थितेन मणिमयसिंहासनमधितिष्ठतश्चतुरंगुलगगनसले शोशुभ्यमानस्य तीर्थकर्तुः केवलपवस्य तेन महामहिमोपेतो महोत्सवः कुतः । पश्चाबू भक्त्या प्रणम्य समभ्यर्च्य चैवं संस्तुतिस्तेन प्रभो स्तने । तथाहि
·
ये सब सर्वप्रकार के परिग्रह से विहीन, कबलाहार से विहीन, प्रकाशरूपी वस्त्र से सुशोभित, तपःश्री के परम प्यारे, त्रिभुवन के तिलक ऐसे महावीर के अष्टमंगल और नवनिधि समेत समवशरण में उनके दिव्य उपदेश को सुनने की उत्कंठा से प्रेरित होकर एकत्रित होने लगे 1 यह समवशरण नाटकशाला से धूपघटों से एवं ध्वजाओं से तथा घंटाओं से चित्ताकर्षक था । नागकुमार जाति के भवनवासी वहां द्वारपाल के पद पर नियुक्त थे । समवशरण की रचना ऋजुकूला नदी के तट पर हुई थी । इन्द्र भी अपने समस्त देव परिवार से घिरा हुआ वहां श्राया 1 यहां आकर उसने मणिमयी सिंहासन पर चार अंगुल अवर विराजमान महावीर प्रभु के कैवल्य पद का महान् उत्सव किया। इसके बाद भक्तिपूर्वक वन्दना नमस्कार करके एवं पूजा करके इस प्रकार प्रभु की स्तुति की --
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वर्धमानवम्पूः
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नाथ ! त्वया निजहिताप्तिकृते समुत्थ--,
भाव-प्रवाह-परिपूरित—मानसेन । त्यक्तं समृद्धमभयप्रदमङ्गदेश
वैशालिराज्यमरिकंटक-शून्य-माढ्यम् ॥१६॥ प्रिंशसुवत्सरमितं समयं हनषी,
है वैशलेय नियसन निजसद्मनि त्वम् । तोये पयोज इव नाथ ! च पूर्वजन्म-,
स्मृस्याऽभवः सुमतिकोष ! मुनिर्युक्त्वे ॥२० ।। यस्य ज्ञानं हतिशययुतं पुण्यकर्म प्रशस्तम्,
ध्वस्ता यस्मान्मवन विकृतिश्चाकृतिः सोमसौम्या । धैर्य यस्याविचलितमहो बंदनीयं मुनीन्वः
शक्तः कः स्यात् त्रिभुवनगृहे संस्थितं तं विकर्तुम् ॥ २१॥
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हे नाथ ! आपने प्रात्मकल्याण करने के निमित्त उत्पन्न हुए भावों के प्रवाह से परिपूरित मनवाले होकर विहार प्रान्तस्य वैशाली के समृद्ध, अभयप्रद, शत्रुरूपी कंटक से शून्य ऐसे विशाल राज्य का परित्याग किया ।। १६॥
श्राप पानी में कमल की तरह निलिप्त भाव से ३० वर्ष तक राजमहल में रहे । वहाँ रहते-रहते पापको सहसा अपने पूर्वभव की स्मृत्ति आ जाने से भर जवानी में आपने मुनिदीक्षा अंगीकार कर ली ।। २० ॥
हे प्रभो ! आपका ज्ञान प्रतिशय सम्पन्न है । पुण्यकर्म भी आपका सर्वोत्कृष्ट है । कामदेव भी आपके चित्त को विचलित नहीं कर सका। आकृति भी प्रापकी चन्द्रमा के जैसी सलोनी है। धैर्य भी प्रापका अविचल है । मुनीन्द्रों द्वारा आप वंदनीय हैं। त्रिभुवनरूपी ग्रह में रहते हुए ऐसे प्रापको ऐसा कौन शक्तिशाली है जो विचलित कर सके ।। २१॥
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वर्धमानचम्पू:
स्वामिन् ! जाता जगति महिता भारती ते, यतः सा, हेयादेयप्रकटनपराऽऽवित्यरूपाऽस्तदोषा
। प्रिभ्यामार्ग परशुनयतः खंडयन्ती विपक्षम्,
स्वस्यां पूर्ण ह्यविजितपरा ज्ञानिनस्तां श्रयन्ते ।। २२ ।।
सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति,
जना यवित्यं प्रवदन्ति लोके । न सर्वथा सत्यमिदं यतश्च, .
विभो ! तथा सन्ति न ते गुणास्ते ।। २३ ।।
त्वां ये परीक्ष्येव तथाऽपरीक्ष्य भान्ति ते सन्ति फले समानाः । बुद्धाऽप्यदुद्धाऽप्यहिफेनमत्र जनो हदन याति समानवृत्तिम ॥ २४ ॥
हे नाथ ! संसार में आपका धर्मोपदेश इसलिए पूज्य हुआ है कि वह निर्दोष सूर्य के समान हेय और उपादेय का ज्ञान-भान--कराता है। जिस प्रकार परशु काट छांटकर पदार्थ को-काष्ठ को-अभिलषित रूप में ला देता है, उसी प्रकार स्याद्वादरूपी आपकी भारती मी सदोष विपक्ष-एकान्त पक्षों का निराकरण कर उसे अभिलषित अर्थ की हेय
और उपादेय की उद्बोधक होती है। इसलिए परीक्षाप्नधानीजन उसका प्राश्रय करते हैं ।। २२ ।।
हे स्वामिन् ! संसारस्थ जीवों की जो ऐसी मान्यता है कि जितने भी गुण हैं वे सब काञ्चन के नाश्रित होते हैं अर्थात् धन के होने पर ही सुशोभित होते हैं सो ऐसी मान्यता सर्वथा सत्य नहीं है क्योंकि आपके जो ज्ञानादि गुण हैं वे बिना द्रव्य के भी जगत्पुज्य हो रहे हैं ।। २३ ।।
हे नाथ ! मनुष्य चाहे परीक्षाप्रधानी हो चाहे माशाप्रधानी, किसी भी स्थिति में आपकी सेवा, पूजा, भक्ति आदि करने पर फल तो उन दोनों को समान ही मिलता है। जैसे ज्ञात अवस्था में अथवा अज्ञात अवस्था में खाई गई अफोम अपना नशा खाने वाले को देती है ।। २४ ।।
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वर्धमानचम्पूः
येषां विभो ! नास्यनुशासकस्त्वम्, तेषां वचनानि तैस्तु । प्राणिगणस्त्यदुक्त- +
मिथ्यैव
प्रतार्यते
याचा यथेच्छं लभते फलं सः ॥ २५ ॥
हृदयागते भवति नाथ ! कषायभावा,
मन्दा भवन्ति भविनां च तव प्रभावात् । चित्रं किमत्र शिथिला ग्रहयो भवन्ति, मध्यागते वनशिखण्डिनि
चन्दनस्य ।। २६ ।।
देवादयो विचलिता अपि यत्प्रभावात्, ते च त्वयं विजिता विषयाः कषायाः
विध्यापिताग्नि सलिलं खलु वाधिगेन,
पीतं न किं तदपि दुर्धर वाऽवेन ॥। २७ ॥
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हे नाथ! जिनके आप अनुशासक नहीं हैं उनके बचन -- मान्यताएँ मिथ्या ही हैं। उनके अनुसार चलनेवाला--प्रवृत्ति करनेवाला प्राणी सच्ची सुख शांति प्राप्त नहीं कर पाता है परन्तु आपके वचनों पर चलने वाला प्राणी ही अपने अभिलषित अर्थ को प्राप्त कर लेता है - सच्ची सुखशांति पा लेता है ।। २५ ।।
हे नाथ ! जिस प्रकार मयूरों के चन्दनवृक्ष के नीचे आने पर उन पर लिपटे हुए सर्पों के बन्धन शिथिल हो जाते हैं उसी प्रकार मन-मन्दिर के अन्दर आपके आने पर भव्यजनों के कषायभाव मन्द हो जाते हैं ||२६||
हे नाथ ! विषय जिन कषायों के द्वारा देवादिक भी विचलित हो गये उन विषयकषायों को आपने ही नष्ट किया है। सच है- जो जल प्रग्नि को बुझा देता है उसे क्या समुद्र का वडवानल नष्ट नहीं कर देता || २७ ॥
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वर्धमानचम्पू: हे ज्ञातृवंशवनचंदन ! ते प्रणीतं धर्मामृतं भुवि निपीय भवन्ति भव्याः । । तप्ता वदामि नितरां धुतकल्मषानां कि वा विपहिषधरी सविध समेति ।
॥२८॥ मुक्तिश्रिया परिवृतोऽसि विभो ! त्वयापि,
सा वा वना प्रथितमेसवभूनच वनम् । तां त्वां वरीतुमथ संचलितं निरीक्ष्य,
___ संपात्यते ह्म परि देवगणः प्रमोदात् ।। २६ ॥ उत्फुल्लराजिरथवा हृदयेऽमराणां,
या धर्मवल्लिरतिदीर्घतराजनिष्ठ । तस्याश्च भक्तिपवनेन च कम्पिताया-, द्रागाऽपतत्कुसुमरा शिरमेय एषः ।। ३०॥
-युग्मम्
हे ज्ञातृवंशरूपी वन के चन्दन ! आपके द्वारा प्रणीत धर्मरूप अमृत का पान कर भव्यजन तृप्त हो जाते हैं-अमर बन जाते हैं, एवं उनके कल्मष धुल जाते हैं । मैं सच कहता हूं कि विपत्तिरूपी नागिन ऐसे जीवों के पास तक फटक नहीं पाती है ।। २८ ।।
हे नाथ ! जब यह समाचार देवों को ज्ञात हो गया कि मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने पापको पसन्द कर लिया है और आपने भी उसे पसन्द कर लिया है तो जब आप उसे संवरण करने के लिए प्रस्थित हुए तों उसे देखकर हषित देवों ने आपके ऊपर पूष्पों की वृष्टि की है अथवा-देवों के हृदय में जो धर्मरूपी बेल बढ़ी-फूली फली वह अब भक्तिरूपी पवन से हिली है तो उससे यह अमेय पुष्पराशि बहुत ही शीघ्र नीचे गिरी है ।। २६-३० ।।
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वर्धमान चम्पूः
सिंहासने विविधरत्नराशिशिखाभिरामे त्वां सुस्थितं ननु संवीक्ष्य सदस्यमाला जानातीवमेव किमिदं विराजमानं तुङ्गोदयाद्विशिरसोय सहस्त्ररश्मे विम्बमिति ।
संसार सिन्धुतरणे तरणीयमानं योऽत्रिद्वयं च अस्य प्रभोर्भवति मुक्तिपतिः स इत्थं से दुन्दुभि
शरणं समुपैति भव्यः । ध्वनति ते यशसः प्रवादी
॥ ३१ ॥
त्वद्ध्यानतः परमपावन ! नाथ ! जीवाः, त्वत्संनिभा यदि भवन्ति किमत्र चित्रम् । द्रष्टा रसायनवशाद्धि समाप्नुवन्त, स्वापीत्यनचिणादिय
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धातुभेद ३२ ॥
हे नाथ ! विविधरत्नों की शिखा से मनोहर सिंहासन पर विराजमान आपको देखकर यह सदस्यमण्डली यही जानती है कि मानो यह उदयाचल पर्वत की चोटी पर विराजमान सूर्य का बिम्ब हो है ।
हे जिनेन्द्र ! आपके यश का गुणगान करनेवाली आकाश में बजती हुई दुन्दुभी यही प्रकट करती है— जगत् को सन्देश देती है - कि हे भव्य जीवो ! जो तुम संसार - समुद्र से पार होकर मुक्तिपति बनना चाहते हो तो संसार - समुद्र से पार लगाने के लिए नौका के समान इस प्रभु के चरणों की शरण ग्रहण करो ।। ३१ ।।
हे परमपावन नाथ ! यदि आपके ध्यान के प्रभाव से ध्यानकर्ता भाप जैसा बन जाता है तो इसमें कोई अचरज जैसी बात नहीं है कारण कि—- रसायन के योग से धातुभेद - लोहा-भी तो बहुत शीघ्रता से स्वर्ण बनता हुआ देखा जाता है ।। ३२ ।।
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वर्धम.मचम्पूः
कस्तूरिकामोद इव प्रसिद्धा त्वयि स्वमाद्विभुता, यथाब्धौ । अस्ति प्रकृत्या गरिमा, न देव ! स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥ ३३ ॥
सत्यं जिनेन्द्र ! जगतीह मुमुक्षवस्ते,
तावस्वदीयचरणं च समाश्रयन्त यावत्प्रभो ! न हि भवन्ति च मुक्तिकान्ता-,
कान्ताश्च ते नीतिरपश्चिमैषा ।। ३४ ॥
क्षुधादिदोषैः परिवजितोऽसि हितोपदेष्टाऽसि च विश्ववेत्ता । छास्थ बोधाविषयोऽस्यतस्त्वां वन्दे विभु कालकलामतीतम् ॥ ३५ ॥
हे नाथ ! आप में जो प्रभुता है वह कस्तूरी में उसकी गंध के समान स्वाभाविक है । किसी वस्तु -सुगन्धित द्रव्य-के अपवाद से नहीं है प्रत: समुद्र में गरिमा की तरह आप में प्रभुता प्रकृति सिद्ध ही है ।। ३३ ॥
हे जिनेन्द्र ! यह तो सत्य है कि जो मुमुक्षुजन हैं वे तभी तक आपके चरणों का सहारा लेते हैं जब तक उन्हें मुक्ति का लाभ नहीं होता । नीति भी ऐसी ही है कि कार्य सिद्ध हो जाने पर कारण की फिर क्या चाहना होती है ।। ३४ ।।
हे नाथ ! प्राप काल की कला से रहित हैं, क्षुधादि १८ दोषों से विहीन हैं, हितोपदेष्टा है एवं विश्व के ज्ञाता हैं, छमस्थजनों के ज्ञान के
आप अविषय है अर्थात् छपस्थ जन आपके स्वरूप को साक्षात् जान नहीं सकते अतः आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है ।। ३५ ।।
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वर्धमानचम्पूः
तुभ्यं नमोऽस्तु हरिचिह्नित चारुमूर्ते, तुभ्यं नमोऽस्तु मुनिनायक ! विश्वमत्र । नमोऽस्तु नरजन्म विकाशक में, treetनमूल ।। ३६ ।।
तुभ्यं
तु ं
श्री वर्धमान ! महनीय ! नमोऽस्तु तुभ्यं, तुभ्यं नमोऽस्तु भववीत नरेन्द्रसेव्य । भव्यारविन्दरविबिम्ब ! वदोपदेशात्,
त्वं तारयिष्यसि भवान्धिनिमग्नजीवान् ॥ ३७ ॥
जीवो यावद्धरति न यथाख्यात चारित्रतेजः,
मुक्तिद्वारं भवति पिहितं तस्य तावनितान्तम् । इथं वृत्तं विशति भवतो नोऽथ वृत्तिः परन्तु,
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नः पर्यायो भवति नितरां हा ! यमाविप्रमुक्तः ॥ ३८ ॥
हे सिंह के चिह्न से अंकित मूर्तिविभूषित प्रभो ! श्रापको मेरा नमस्कार है । हे मुनिनायक ! आप विश्व के भर्ता हैं अतः प्रापको मेरा नमस्कार है । मानव जन्म का सर्वोत्कृष्ट विकास करनेवाले हे नाथ ! श्रापको मेरा नमस्कार है । हे भवबन्धन के मूल को जड़ से चकनाचूर करनेवाले बीर प्रभो ! आपको मेरा नमस्कार है || ३६ ||
हे महनीय - जगत्पूज्य श्री वर्धमान ! भाप अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मी के अधिपति हो - श्राप भववीत - जन्म, जरा श्रौर मरण से रहित हो चुके हो, आप नरेन्द्र - चक्रवर्ती एवं श्रेणिक यदि नरेशों द्वारा पूज्य हो, भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए आप सूर्य हो, आप धर्मोपदेश देकर संसारसागर में निमग्न हुए जीवों को पार लगानेवाले हो अतः आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है ।। ३७ ।।
हे नाथ ! श्रापकी यह वृत्ति हम सबको यही शिक्षा देती है कि जीव जब तक यथाख्यातचारित्ररूपी तेज को धारण नहीं करता तब तक उसके लिए मुक्ति का द्वार इकदम बन्द रहता है परन्तु हम देवों की पर्याय ही हे प्रभो ! ऐसी है जिसमें संयम का अभाव है । हमको यही दुःख है ॥ ३८ ॥
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वर्धमानचम्पूः इत्थं मन्यत्टीमध्यसमिसिहासमाधार विराजमान पूर्वाचलशिखरोपरि समारूढं दिनमणिमिय भगवन्तं महावीरं पञ्चच्चामरनिकर-- धोज्यमानं संस्तुत्य प्रणम्य समय॑ च पराकाष्ठामापनया भक्त्या भरितान्तःकरणेन करकुशेशययुगलं संयोज्य तेन पुनरपि निवेवितम्
स्वामिस्तेऽस्ति प्रबलमहिमा ह्यन्यथा सिंहगावी,
मारिराखू शुनकहरिणावेककोष्ठे कथं वा । संतिष्ठेसे प्रकृतिजनितं वैरभावं विहाय,
प्रत्यासत्ति यदि न भवतस्तस्य तच्छक्तिहेसुः ॥ ३६ ॥
इस प्रकार गन्धकुटी के मध्य में रखे हुए समृद्ध सिंहासन पर विराजमान भगवान महावीर को जो ऐसे प्रतीत होते थे मानो पूर्वाचल की चोटी पर विराजमान सूर्यबिम्ब ही हो, स्तुति करके और उनको नमस्कार करके इन्द्र अधिक से अधिक आनन्दित हुआ । उस समय भक्त देवगण प्रभु वीर के ऊपर चंवर ढोर रहे थे । इन्द्र ने प्रभु की पूजा की और भक्ति के अतिशय से जिसका अन्तःकरण ओत-प्रोत हो रहा है ऐसे उस इन्द्र ने पुनः दोनों करकमलों को जोड़कर इस प्रकार कहा---
हे नाथ ! पापका यह अपूर्व प्रभाव है जो अपने जन्मजात वैरभाव का परित्याग कर एक ही प्रकोष्ठ में सिंह और गाय, बिल्ली और चूहा, कुत्ता और हरिण शान्तिपूर्वक बैठे हुए हैं । यदि ऐसा न होता तो ये सब आपस में परमप्रीतिपूर्वक कैसे बैठते ? ।। ३६ ।।
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वर्धमानचम्यू:
185 तदनन्तरं तेन मनोमन्दिरमध्यस्थानमलभमानेनामवानादसंदोहेन पुलकितगात्रः स समवशरणस्य समुचिसत्यवस्थामकार्षीत् । प्रासीत्तत्र समवशरणे महान् न्यक्कतरविरश्मिभास्वरप्रभामण्डलः प्रकाशपंजः । जनरतस्तत्र संस्थितः प्राणिभिनिशातदवसानयो दो विज्ञातो न भवति स्म। सर्वोत्कृष्टा शान्तिस्तत्राशान्तः कारणाभावादासीत् । भ्रान्तिः क्लान्तिर्वा कस्याप्यसुमतः स्वान्ते नाजायत । तत्रागलानां सर्वेषां प्राणिनां चित्ते वैर-कलह-विद्वेष क्रोध-जिघांसास्वरूपाः परिणामाः स्वप्नेऽपि नैवाजागरिषः । अतस्तत्रैकस्मिन्नेष प्रकोष्ठे जन्मजातानि वैराणि त्वक्त्वा सर्वे जीवाः तिष्ठन्ति स्म ।
इसके बाद हृदय-मन्दिर के अन्दर नहीं समाये हुए हर्षोत्कर्ष से जिसका सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो रहा है ऐसे उस इन्द्र ने उस समवशरण की पूर्ण रूप से समुचित व्यवस्था की । समवशरण में महान् प्रकाश ही प्रकाश था इसलिए वहां उपस्थित प्राणियों को दिन और रात्रि का भेद ज्ञात नहीं होता था । अशान्ति के कारणों का अभाव होने के कारण वहां शान्ति का ही एकच्छत्र साम्राज्य था । भ्रान्ति एवं क्लान्ति वहां उपस्थित मनुष्यों आदि में देखने में नहीं पाती थी । वहां वर, कलह, विद्वेष, क्रोध एवं हिंसा के परिणाम भी नहीं होते थे । इसलिए वहाँ जन्मजात वर-भाव को छोड़कर एक ही कोठे में सिंह गाय, व्याघ्र मृग, मार्जार मूषक, सर्प और नकुल आदि जानवर परम प्रीतिभाव के साथ निर्भय होकर सन्त पुरुषों की तरह एक ही साथ बैठे रहते हैं ।
उस समवशरण में जो असख्यात-अपार भव्य समूह तीर्थकर भगवान महावीर की दिव्यदेशना सुनने के लिए बड़ी उत्कंठा एवं प्रवल उत्साह के साथ आया था बह प्रभु की वाणी-ध्वनि-कब खिरती है इस प्राशा से वहां अपने-अपने स्थान पर बैठा रहा ।
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वर्षमानचम्पू:
"चन्द्रिकापानं चकोराणामिति नीत्या चन्द्रिका चकोराणामतिप्रिया भवति, प्रतश्चकोरपक्षी शुक्लपक्षे रात्री निनिमेषदृष्ट चा चन्द्रमसं यथाऽवलोकयति तथैव समवशरणस्था जनताऽपि तीर्थकर महावीरस्यास्यावलोकयन्त्यवातिष्ठत् । एकमपि तीर्थकर्तराननं चतसषु दिक्षु समवलोकयतां सुस्पष्टं दृष्टिपथं समायाति । यथा वर्षर्तप्रारंभे चातकः स्वीयां पिपासां नभस्तलानिपततो वारिबिन्दून स्वचादाय प्रशमयति सलिलंचान्यन्नो कांक्षते । अस्मादेव कारणात् स मेधाभिमुखं स्वमुखं विधाय वृष्टि प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति । तथैव जनतायाः श्रोत्राणि तोर्यकरस्योपदेशं श्रोतमानुराण्यासन।
तत्र समुपस्थितानामनेकेषां विपश्चितामराणां च मानसे विचारधारेदृश्युद्गात् यत्तीर्थकरोऽयमियातं कालं तु तूष्णीमास्थायव व्याहत् । तपस्यासमये छयस्थावस्थासम्पन्नत्वेन नैकोऽपि शम्वस्तेन कंचिदपि
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जिस प्रकार चकोरपक्षी को चन्द्रिका का पान प्रिय लगता है, इसीलिए वह शुक्लपक्ष में रात्रि के समय चन्द्रमा की ओर टकटकी लगाये बैठा रहता है, उसी प्रकार समवशरणस्थ जनता भी तीर्थकर महावीर प्रभ के मह को मोर टकटकी लगाये बैठी रही । तीर्थकर का एक ही मुख चारों दिशामों में वठेहए मनुष्यों को स्पष्टरूप से पूरा का पूरा दिखाई देता है। जिस प्रकार वर्षाकाल के प्रारम्भ में चातक पक्षी अपनी प्यास को शान्त करने के लिए नभस्तल से पड़ती हुई जलबिन्दुओं को अपनी चोंच से ग्रहण कर-शान्त कर अन्य जल को वह चाहता नहीं है इसी से वह मेघ की तरफ अपनी चोंच को किये रहता है और मेघवृष्टि की चाहना में बैठा रहता है, उसी तरह जनता के कर्णयुगल भी तीर्थकर के उपदेश को सुनने के लिए उनकी ओर लालायित हो रहे थे।
वहां उपस्थित अनेक मानबों के, अमर-देवों-के और विद्वज्जनों के मन में ऐसी विचारधारा उदित हुई कि ये तीर्थकर महावीर इतने समय तक तो चुपचाप-मौन-विहार करते रहे, तपस्या के समय में छप्रस्थ होने के कारण मुख से एक शब्द भी किसी से नहीं कहा । अब तो इन्हें
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वर्धमानच-पूः
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प्रत्युक्तः । अधुना तु तेन केवलज्ञान समुपलब्धम् । छप्रस्थदशाऽप्यस्य व्यतीता। ताकर प्रकृतेरवयोऽधिजातः । पूधा तीयका मानिवास्यापि विश्वोद्धारविधायिना सर्वसत्वहितकारिणा पवित्रोपवेशनावश्यमेव भक्तिम्यम् । परातु दिवसावसानो जातः । विभावरी व्यतीता । प्रमातवेला समागता । तथापि तीर्थकरमुखादेकोऽपि शब्दो नो निर्णतः । विलम्बस्य कारणं किमति श्रोतृभिनं ज्ञातम् । केचित् तव संस्थिताः, केचित्तु पूर्वागता, अनेके समुत्थाय गताः । नमागताः फेधिच तत्रच संस्थिताः प्रभोर्वाणी श्रोतुमत्कंठयांकितचित्ताः ।
एवमेव द्वितीय दिवसोऽपि विनिर्गतः । क्षण वाऽपि क्षण व क्षयं गता। तथापि तीर्थकरस्य तस्य केवलिनो विध्यध्वनिन निर्गतः । इत्थं कियन्तो दिवसा यदा व्यतीतास्तदा जनतायाश्चेतसि किञ्चिन्म्लानता प्रादुर्भूता। व्यतीतेषु कियत्सु दिवसेषु ततस्तस्य विहारोऽभवत् । ततोऽन्यत्र विहरतस्तस्याग्नेऽग्ने प्रचलति स्म धर्मचक्रं, तस्य भास्वरा प्रभा बुधानामपि चेतसि चमत्कारं विदधती क्षणं यावत द्वितीयादित्यारेकामातमोति स्म ।
केवलज्ञान प्राप्त हो गया है । छद्मस्थ अवस्था रही नहीं है । तीर्थकर प्रकृति का भी उदय हो चुका है। पूर्ववर्ती तीर्थकरों की तरह इनका भी विश्वोद्धारक, सर्वप्राणिहितकारक एवं पवित्र धार्मिक उपदेश होना चाहिये, परस्त दिन व्यतीत हो गया। रात्रि व्यतीत हो गयी । प्रभात वेला आ गयी । फिर भी अब तक प्रभु के मुखारबिन्द से एक भी शब्द नहीं निकल रहा है। विलम्ब का कारण क्या है ? यह बात श्रोताजनों की समझ में नहीं आ रही थी। इस स्थिति में भी कितने ही श्रोता जन तो वहीं पर बैठे रहे। कितने ही वहां से उठकर चले गये और कितने ही नबीन-नवीन श्रोता वहां आकर बैठने लगे।
इसी तरह द्वितीय दिवस भी निकल गया । क्षण की तरह रात्रि भी व्यतीत हो गई परन्तु तीर्थकर वर्धमान प्रभु की दिव्यध्वनि नहीं खिरी । इस तरह जब कितने ही दिन व्यतीत हो चुके तब जनता के चित्त में म्लानता पाने लगी। महावीर प्रभु ने कुछ दिनों के बाद वहां से विहार कर दिया ! विहार करते हुए उनके आगे-आगे धर्मचक्र चल रहा था । उसकी प्रभा इतनी अधिक भास्वर थी कि विद्वानों या देवों के चित्त में भी चमत्कार उत्पन्न करती हुई द्वितीय सूर्य को शंका उत्पन्न कर देती थी ।
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वर्धमा चम्पूः
यवाऽसौ तीर्थकरस्तस्मादप्यन्यत्र विहृत्य गच्छति स्म तदा कुबेरोऽपि तद्भव्य दिव्यं समवशरणं विघटयति स्म । स्वल्पकालेनैव पूर्ववज्जायते स्म तत्र समतलोभूमिभागः। यत्र यत्रासौ तीर्थंकरो विहृत्यागात्तत्र तत्र कुबेरोऽपि सभामंडपं सशोभमरचयत् । तत्रापि तस्मिन्नसंख्याताः श्रोतारो धर्मोपदेशशुश्रूषयाऽऽगच्छंति स्म । परन्त्वनेकेषु वासरेषु गतेषु रजनीषु निर्गतास अपि प्रभोधर्मोपवेशो यदा नाभवत्तवा जनतापि विस्मयापनाऽभवत् । परं मौनस्य कारणं केनापि न विज्ञात, सर्वषो धारणा व इयमेवासीत् यदसौ महावीरस्तीर्थकरोऽस्ति नो मूकवली, प्रतोऽस्योपदेशेन नियमेन भाव्यम् । परन्तु कदाऽसौ भविष्यतीति न विज्ञायते ।
ततोऽपि विहारं विधाय राजमहीनगरनिकटस्थं विपुलाद्रि समायातः । समवशरणरचनाऽपि तत्र जाता । जनताऽपि अपरिमिताऽऽगता । परन्तु तत्रापि प्रभोरुपदेशो नाभवत् ।
जब वर्धमान तीर्थंकर केवली एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार करते-करते पहुँच जाते तो कुबेर पहिले स्थान पर रचे गये सभामण्डप को विघटित कर देता एवं वहां का भूमि भाग पहिले की तरह समतल हो जाता एवं उनके वहां पहुंचते ही दूसरा सभामण्डप रचकर तैयार कर देता । वहां पर भी असंख्यात जन धर्मोपदेश सुनने की कामना से पाकर उपस्थित हो जाते । इस प्रकार होते होते जब अनेक दिवस निकल गये, रात्रियो भी समाप्त हो गई और प्रभु के मौन का क्या कारण है ? यह वह नहीं जान सकी । सबकी धारणा तो यही थी कि ये महावीर तीर्थकर हैं, मूक केवली नहीं हैं, अतः इनका धर्मोपदेश तो अवश्य ही होना चाहिए परन्तु कब बह होगा कोई पता ही नहीं पड़ता।
प्रभु ने वहां से भी विहार कर दिया और विहार करते-करते थे राजगृही के निकटस्थ विपुलाचल पर आ गये । वहां पर भी कुबेर ने समवशरण की रचना की, उसमें भी अपार जनता एकत्रित हुई परन्तु यहां पर भी प्रभु को दिव्यदेशना नहीं हुई।
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वर्धमानचम्पू:
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समवशरणव्यवस्थापन सौधर्मदेवलोकाधिपतिना शक्करण स्थावधिना प्रभोदीर्घकालीनस्य मौनावलम्बनस्य किमस्ति निदान मिति यदा गम्भीरतापूर्वकं विर्धारितं तदा तेन विज्ञातं यदधुनापर्यन्तमपि समवशरणे प्रतिभाशालीदा विचक्षणो जनः कोऽपि नोपस्थितो यस्तीर्थकरस्यास्य गूउगंभीरार्थोपेतं दिव्योपवेशं निशम्य तं च हृद्यवधार्य प्रकरणबद्धं विधाय श्रोतृणां जिज्ञासाया यथार्थ समाधानं कुर्यात् । अवबोधयेच्च सर्वेभ्य स्तस्योपदेशमिति । इदानीमपि एवं विधं गणधरपदं समलंकर्तुं फश्चिपि मुनिवरोऽत्र नास्ति । अतस्तीर्थकरस्थ वाणी मुखरिता न जायते ।
तदनन्तरं तेनावधिज्ञानेनेदमपि प्रबुद्धे यत्साम्प्रतं तीर्थंकरस्य गरराघरपदं वोढुं "इन्द्रभूतिगौतमः" विद्वरेण्यः सक्षमोऽस्ति । परन्तु स
तब समवशरण की व्यवस्था करने वाले इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान के द्वारा 'प्रभु के दीर्घकालीन मौन का क्या कारण है ? " ऐसा विचार किया। गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर उसने यह जाना कि अभी तक भी समबशरण में ऐसा कोई प्रतिभाशाली विद्वान् (गणधर) उपस्थित नहीं हुआ है जो इन तीर्थकर के गूढ गम्भीर अर्थवाले उपदेश को सुनकर उसे अपने हृदय में अवधारण कर सके एवं उसे प्रकरणबद्ध कर श्रोताओं की जिज्ञासा का समुचित समाधान कर सके तथा उन सबको प्रभु के उपदेश को अच्छी तरह समझा सके । इस समय तक भी ऐसे उत्तरदायी गणघर पद को अलंकृत करने के लिए यहां ऐसा कोई मुनिवर भी नहीं है, इसीलिए तीर्थकर की वाणी प्रकट नहीं हो रही है।
इसके बाद उसने अपने अवधिज्ञान से यह भी जाना कि इस समय विद्वधुरीण इन्द्रभूति गौतम गणधर पद को वह्न करने में सक्षम है परन्तु
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वर्धमानपू
तीर्थंकरं प्रति श्रद्धासम्पन्नो नोऽस्ति । सत्वधुनाऽतत्त्वश्रद्धाकलित शेमुषीको वर्तते । या यदि स केनाप्युपायेनासौ तीर्थकरसम्पर्कमासादयेत्तदा तच्छुद्धाभक्तिसंपनो भूत्वा तद्गरधरपदमारोहेत् । मनस्येवं संप्रधार्य शक्रेण स्थविरविप्रवेषं विधाय वेदवेदाङ्गानां विशिष्टज्ञातुरप्रतिमप्रतिभाशालिनो विद्वदप्रेसरस्य पंचशतविनेयानां शास्तुरिन्द्रभूतिगोतमस्य सनिधी गतम् । गत्वा चोक्तम् —
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त्या पवित्रं तव नामधेयं तूर्णं मुदाऽभ्यर्णमिहागतोऽस्मि । aaraar ! सुकीर्ते नमोऽस्तु तुभ्यं विदुषां वरेण्य ।। ४० ।।
वह तीर्थंकर के प्रति श्रद्धासम्पन्न नहीं है क्योंकि इस समय वह प्रतत्त्व श्रद्धानी है । यदि वह किसी भी उपाय से महावीर तीथंकर के सम्पर्क में आ जाता है तो उनकी श्रद्धा भक्ति से सम्पन्न होकर उनका गणधर बन सकता है । ऐसा हृदय में निश्चित करके इन्द्र ने बृद्ध ब्राह्मण का वेष बनाया और वह वेदवेदाङ्ग के विशिष्ट ज्ञाता एवं असाधारण प्रतिभाशाली इन्द्रभूति गौतम के पास पहुँचा । इन्द्रभूति गौतम उस समय ५०० शिष्यों के शास्ता थे एवं विद्वानों के बीच में एक अग्रगण्य विद्वान् थे । वहां पहुँच कर उसने कहा
" हे वेदवेदाङ्ग के विशिष्ट ज्ञाता ! आपने अपने पाण्डित्य के बल पर बहुत बड़ी कीर्ति प्रजित की है। आपका पवित्र नाम सुनकर ही मैं बड़े हर्ष के साथ आपके निकट आया हूं । हे विद्वद्वरेण्य ! मैं आपको प्रणाम करता हूं ॥ ४० ॥
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वर्धमान चम्पूः
अपूर्वमहिमाढध ! जगत्प्रसिद्ध | मुहुर्मुहस्त्वां शिरसा नमामि । पृच्छामि पाठं गुरुणा प्रदत्तं स विस्मृतो हा ! मयकाऽल्पबोधात् ॥ ४१ ॥
विपश्चितां संसदि गीयमानं तवाभिधानं महताऽऽवरेण । निशम्य श्रीमत्सुधुरीण ! पार्श्वे ज्ञातुं च पाठार्थमितोऽस्मितेऽहम् ॥ ४२ ॥ -
कृपां विधायाशु च बोधय त्वं,
मह्यं तदर्थं गुरुणोपदिष्टम् ।
अयं स पाठोsस्स्यवलोकनम्,
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प्रोच्येति तं वर्शयति स्म मोवात् ॥ ४३ ॥
हे अपूर्व महिमाशालिन् जगत्प्रसिद्ध गुरुदेव ! मैं पुनः आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं । आपश्री के पास मैं इसलिए लाया हूं कि मेरे गुरुदेव ने मुझे जो पाठ पढ़ाया है उसमें प्रल्पज्ञानी होने के कारण भूल गया हूं ।। ४१ ।।
विद्वानों की सभा में प्रति आदर के साथ प्रशंसित श्रापके नाम को सुनकर हे धीमधुरीण ! उस पाठ के अर्थ को समझने के लिए मैं आपके पास आया हूं ।। ४२ ।।
आप मुझ पर दया करके शीघ्र ही गुरु के द्वारा उपदिष्ट उसके अर्थ को मुझे समझा देवें । वह पाठ इस प्रकार है-प्राप देखें- ऐसा कहकर उसने उन्हें वह पाठ दिखा दिया ।। ४३ ।।
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वर्धमानचम्पूः
error प्रदर्श्य च तं पाठं पुनरपि चेतसि समाकुलतया तेन विनम्रभावेन गदितं विद्वद्द्द्धौरेय ! मद्गुरुवरेण तीर्थंकरेण त्रिकालज्ञीमं पाठ: श्लोकस्वरूपः सार्थो मह्यं पाठितः, परन्तु तस्यार्थो विस्मरणं गतः । भवन्तश्च विद्वन्मूर्धन्याः । प्रतां दयां विधाय तदर्थो विस्फोटनीयः । श्लोकः स चेत्थम् शृण्वन्तु भवन्तः !.
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कल्यं ब्रध्यषट्कं नवपदसहितं जीव-षट्कश्य लेश्याः ।
व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः ||
पंचान्ये चास्तिकाया इत्येतस्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमहद्विशेः । प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥ स्वमान्यता प्रतिकूलं पटुकायाविविचित्र पदो पश्लिष्टं श्लोकमिमं दृष्ट्वा पुनश्च तन्मुखाच्छू त्याऽऽश्चर्यचकितः सन्निद्रभूति विचार निमग्नमनाः संजातः । चिन्तितं तेन षण्णां द्रव्याणां नवानां पदार्थानां षट्कायजीवानां
ऐसा कहकर और वह पाठ दिखाकर भी चित्त में प्राकुलित होने के कारण उसने बड़ी नम्रता के साथ कहा- हे विद्वद्वरेण्य ! सुनिये - मेरे सर्वज्ञ तीर्थंकर गुरूदेव ने मुझे यह श्लोक अर्थ सहित पढ़ाया है परन्तु अफसोस है - दुःख है कि मैं उसका अर्थ भूल गया हूं अतः आपकी विद्वता की पराकाष्ठा सुनकर मैं आपके पास आया हूं । कृपाकर आप मुझे उसका अर्थ स्पष्ट करके समझा दीजिये । वह श्लोक इस प्रकार है - ' त्रैकाल्यमित्यादि" इस श्लोक को पुनः देखकर और पुनः उसके मुख से पढ़वाकर इन्द्रभूति विचारों में डूब गया । उसने सोचा- मैंने अभी तक श्लोकोक्त न तो ६ द्रव्यों के नाम सुने हैं, और न नीं पदार्थों के,
न षटुकाय सुने हैं, न
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वधमानचम्नः
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लेण्यानां पंचास्तिकरयानां श्लोकोक्तानां सर्वेषां पदानां नामान्यपि मया कवाचिदपि क्य चिन्न श्रुतानि, नाधिगतानि । यद्यप्यस्मि वेदवेदाङ्गानां विशिष्टविज्ञाताऽहं तथाप्यारीतस्यानधिगतस्वादहं ज्ञाता नास्मि । प्रतः कथमहं श्लोकोक्तानां पदानां परमार्थत्व मेनं बोधयेयम् । कथं वा चनं प्रत्यहमेवं कथयेयं यद तेषामर्थ न वेवमोति इत्यमुक्ती मध्यागच्छत्यनमिक्षता, पाण्डित्ये च होनतायाः कलङ्कातङ्कः । अस्यामवस्थायां सत्यां मेऽयमुपहासजनक: पराभव एव भवेत् । ततस्तावदिदमेव मे श्रेयस्करं यवस्य गुरोः सविधं मत्वा तेन सहैव वादविवाद विधाय स्वमर्यादायाः संरक्षणं कुर्याम् । विमश्य थामन्द्र भूतिगौतम तम विप्र स्थविरमेवमुवाचागच्छमयामा स्वगुरोरम्पर्णम्, तेनैव सत्राहं वाता विधास्यामि ।
कपटपदः स विप्रवेषधारीन्द्रस्तु तादिदमेवाभिलषति स्म। प्रतः स स्वमनोरथसिद्धिसाधिकायाः सफलताया उपरि चेतसि बह मुमुवे । झापति स गौतम स्वेनच साकं समवशरणमनयत् । समवशरणनिकट गतेन तेन यदेव
छह लेश्याएं सुनी हैं, न पांच अस्तिकाय सुने हैं, और न ये सब कभी मेरे जानने में ही आये हैं । यद्यपि मैं वेदवेदाङ्गों का विशिष्ट ज्ञाता हूं तब भी पाहत् दर्शन का पाठी न होने के कारण मैं उसे जानता नहीं हं अतः मैं उन पलोकोक्त पदों का वास्तविक रहस्य इसे कैसे समझाऊं और कैसे इससे यह कहूं कि मैं इन पदों का अर्थ जानता नहीं हूं क्योंकि ऐसा कहने से मुझ में प्रमभिज्ञता प्राप्ती है तथा मेरे पाण्डित्य में हीनता का कलङ्क लगता है। ऐसी स्थिति में मेरा यह एक प्रकार का उपहासजनक पराभव ही होगा। मेरी भलाई इसी में है कि इसके गुरु के निकट जाकर मैं उससे वादविवाद कर अपनी मर्यादा का संरक्षण करूं । इस प्रकार विचार कर इन्द्रभूति गौतम ने उस विप्रवेशधारी बद्ध ब्राह्मण से कहा कि तुम मेरे साथ अपने गुरु के पास चलो, मैं उन्हीं से इस सम्बन्ध में बात करूंगा।
वह विप्रदेशधारी कपटपट इन्द्र तो यह चाहता ही था अत: वह अपने मनोरथ की सिद्धि की साधक भूत सफलता पर बहुत खुश हुमा । वह अतिशीघ्र गौतम को अपने साथ समवशरण में ले गया। जब गौतम समवशरण के निकट पहुंचा और जैसे ही मानभंजक मानस्तम्भ के उसे
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वर्धमानचम्पूः
मानस्तम्भ वागतम्भन त हातात एक सूर्यात्तमस्तोम इव विगलितोऽभवज्ज्ञानमदः 1 जातोऽतोऽयमस्वर्वगर्वग्रहगृहीतोऽपि विनेयवद्विनयविशिष्टोऽधुना शिष्टः ।
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तत्र गतेन तेन यदेव श्रमणमहावीरस्थाकारि दर्शनं तदेव तम् प्रति श्रद्धा प्रबुद्धा | गौतमोऽयं ब्राह्मणः समागतस्तु महावीरेण सार्क शास्त्रार्थं कर्त परं च तस्य नैकटयं समुपलभ्य स तस्य सर्वोत्तमः श्रद्धागुणगरिष्ठोऽन्तेवासी समजनिष । तीर्थंकरस्य महावीरस्य वीतरागदशया वृत्या वा स इयान् प्रभावितोऽभूत्, यत्स्वीयं समस्तं समृद्धं व परिग्रहं परिहृत्य महाव्रतश्च समाश्लिष्टं स्वात्मानं विशिष्टं विधाय दिगम्बर मुद्रोपेतो मुनिर्जातः । तस्मिन्नेव काले तेन चतुथं मनःपर्ययाख्यं ज्ञानमेवाप्तम् ।
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दर्शन हुए तैसे ही उसके अन्तस्तल से अपने आप ही सूर्य के उदय से जैसे तमस्तोम - गाढान्धकार विलीन - नष्ट हो जाता है, ज्ञान का मद विगलित हो गया । वह पूर्व में अधिक ज्ञानमद से भरा हुआ था -- परन्तु अब तो बह विनीत शिष्य की तरह शिष्ट-प्रच्छी समझवाला बन गया ।
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यहां पहुंचते हो ज्यों ही उसने महावीर प्रभु के दर्शन किये त्यों ही उसकी प्रस्था-श्रद्धा उनके प्रति जग गयो । जो गौतम ब्राह्मण ज्ञानमंद के प्रवेश से उन्मत्त बनकर महावीर के साथ शास्त्रार्थ करने आया थावही गौतम उनके पास आते ही उनका सर्वोत्तम श्रद्धाशाली शिष्य बन गया ( यह वीतरागता की ही महिमा है ) प्रभु महावीर की वीतरागपरिणति से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि वह समस्त परिग्रह का त्यागकर अपने-आपको महाव्रतों से सुवासित कर दिगम्बर मुद्राधारी गुनि हो गया । दिगम्बर - मुद्रा धारण करते ही उसे चतुर्थ मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया ।
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इन्द्रभूत मन:पर्ययज्ञानसम्पन्ने सत्येव तीर्थंकर महावीरस्य मौनं विघटितम् । तत्क्षण एव तस्माद्धनाघनगर्जनाषद् दिव्यध्वनिनिर्गतः । धर्मोपदेशः प्रारम्भो जातः । यस्मिन् दिवसे तस्य मीनभङ्गो बभूव स वासरः श्रावणकृष्णाया: प्रतिपत्तिथिस्वरूप श्रासीत् । अस्मिन् दिवसे हि तीर्थंकर महावीरस्याद्यो धर्मोपदेशो जातः । जनैश्च स महामोदात् सुश्रुतः । यतः कैवल्ये सयुत्पऽपि षट्षष्टिदिवसान् यावत् तस्य प्रभोमीनावलम्बनत्वाद्धर्मोपदेशो नाभवत् । तेषां तावद्गणनेत्थम् - वैसाखमास शुक्लपक्षस्य षट् दिवसाः ( ६ ) | ज्येष्ठमासस्य त्रिशदिनानि ( ३० ) । श्राषाढम्पसस्य त्रिशद्वासराः (३०) । श्रस्य दिवसस्य प्रसिद्धिवौरशासनोदयाख्यया जाता । दिवसमेनं जनता वर्षारम्भदिवस मत्वेव कतिपय शताब्धीपर्यन्तं स्वशुभकार्यारम्भमकरोत् ।
इन्द्रभूति को मनः पर्यज्ञान होते ही तीर्थंकर महावीर का मौन भंग हुआ और उसी क्षण मेघ की गर्जना के समान उनकी दिव्यध्वनि खिरने लगी । उपदेश प्रारम्भ हुआ। जिस दिन प्रभु का मौन भंग हुआ था वह दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का था। इस दिन ही तीर्थंकर महावीर का पहिला धर्मोपदेश हुआ और उसे जनता ने सुना । कैवल्य प्राप्ति हो जाने पर भी प्रभु की ६६ दिन तक वाणी नहीं खिरी । वैसाख के अन्त के ६ दिन पूरा ज्येष्ठ और पूरा प्राषाढ- इस प्रकार से इन ६६ दिनों में प्रभु की दिव्यध्वनि मुखरित नहीं हुई। प्रभु का मौन रहा । जिस दिन प्रभु का सबसे पहिला धर्मोपदेश हुआ वह दिव्य दिवस वीरशासनोदय नाम से जगत् में प्रसिद्ध हुआ माना जाता है । जनता जब भी किसी शुभ कार्य का प्रारम्भ करती तो इस दिन को ही वर्ष का आरम्भ दिवस मानकर करती । ऐसी मान्यता कितनी ही शताब्दियों तक चलती रही ।
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वर्धमान चम्पू:
तीर्थंकरस्योपवेशः "सर्वार्द्धमागधीया भाषा मंत्री च सर्वजनता विषया" इत्थंभूत मान्यतानुसारतः साधारण जनताया भाषायामेव भवति स्म । अतः प्रत्येक श्रोता तदुपदेशमनायासेनवात्मसात् करोति स्म । स्वस्वभाषायां तं प्रबुद्धध तस्मिन्नुपदेशे सर्वासां तात्त्विकक्षासनां ( सिद्धान्तानां ) विवेचनमासीत् । प्रासीच्च सम्पूर्णजगतो विवरणम् । ऐतिह्यस्यापि कथनम् । तथात्महितसाधकसाधनस्य, जीवाहित विधायककारणस्य, कर्मबन्धनिवानस्य, कर्मविभोचकहेतोः सम्यग्दर्शनाद्यात्मकधर्मस्य तद्विपरीताधर्मस्य, उपासकानुष्ठानस्य, मुनियषस्थ जीवपरिणमनस्य, चाजीव परिणतेश्च वैशद्योपेता व्याख्याऽप्यासीत् । धर्माचर्य हिंसाकरणं महद्बुजिनं तस्मिन् धर्ममतिर्महती तद्विस्मृतिविषयोऽयं तीर्थकरेण जनताया मंगलार्थ प्रभावत्या पद्धत्योबोधितः ।
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तीर्थंकर महावीर का धर्मोपदेश अर्धभागधी भाषा में होता था क्योंकि उस समय यही बोलचाल की भाषा थी । इस भाषा में हुए उपदेश को साधारण जनता भी समझ जाती थी क्योंकि साधारण जनता की बोलचाल की यही भाषा थी । समवशरण में उपस्थित सब जीव प्रभु के उपदेश को अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते थे । उन्हें उस उपदेश को समझने में कोई कष्ट या अड़चन नहीं होती थी । प्रभु के उस दिव्य धर्मोपदेश में समस्त सिद्धान्ता का विवेचन रहा करता था । सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या रहा करती थी | इतिहास सम्बन्धी कथन होता, श्रात्महित साधनों की व्याख्या होती, जीवहितविधायक कारणों का विवेचन होता, कर्मबन्ध के कारणों का निर्देशन होता, कर्मों से छूटने के उपायों का सुन्दर से सुन्दर वर्णन होता । रत्नत्रयात्मक धर्म का और इनसे विपरीत अधर्म का पूर्ण निर्देश होता, श्रावक एवं मुनिधमं के अनुष्ठानों की, जीवों के परिणमन की एवं जीवतत्त्व की परिणति को विशद व्याख्या होती तथा उस उपदेश में जीवों के लिए यह भी उद्बोध रहता कि धर्म समझकर जीवों की हिंसा करना या धर्म के लिए प्राणियों के प्राणों का अपहरण करना यह बहुत बड़ा पाप या अपराध है । जो इसे धर्म मानते हैं, वे धर्म के स्वरूप को जानते ही नहीं हैं ।
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धधमानपम्पः
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मावा यथेच्छमपि संतरतु प्रमुसः, पानीयवोधिरचनासु हिमांशुरग्निम । सर्यश्च यच्छतु हिमं न तथापि हिंसा करें ददाति खलु किञ्चिवपीह धर्मम्
॥४४ ।।
प्राणाः प्रियाः स्वस्य यथा भवन्ति,
भवन्ति तेऽन्यस्य तथंव जन्तोः । इत्थं परिज्ञाय न हिंसनीया.
प्राणाः परेषां हितकांक्षिणा ना ।। ४५ ॥
प्रस्मभ्यं रोचते यनान्येभ्यो रोचिष्यते कथम् । विज्ञायेत्थं न फर्तव्यं विरुद्धाचरणं क्वचित् ।। ४६ ।।
दया धर्मो ह्यधर्मस्तु हिंसा यत्रास्ति सा ध्रुवम् । तत्र धर्मस्य लेशोऽपि नास्तीति संप्रधार्यताम् ॥ ४७ ॥
पत्थर भले ही पानी की लहरों में छोड़ने पर तैरने लगे, चन्द्रमण्डल से भले ही अग्नि निकलने लगे, सूर्य भले ही शीतलता की वर्षा करने लगे, तब भी हिंसा हिंसा करनेवालों को कभी भी धर्म देनेवाली नहीं होती है ।। ४४ ।।
जैसे जीवों को अपने प्राण प्यारे होते हैं, वैसे ही वे अन्य जीवों को भी प्यारे होते हैं, ऐसा मानकर प्रात्म-हितषी मनुष्य को दूसरे जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए ।। ४५ ।।
प्रत्येक जीव को यह समझना चाहिए कि जो व्यवहार मुझे नहीं रुचता है, वह दूसरे जीवों को भी नहीं रुचेगा, ऐसा जानकर किसी भी जीव के प्रति प्रतिकूल प्राचरण नहीं करना चाहिए ।
धर्म का मूल तो दया है और अधर्म का मूल हिंसा । जहां हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है। वहां धर्म का अंश तक भी नहीं है ।। ४७ ।।
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संकल्पबुद्धया न कदापि हिंसा श्राविधेया पराहिंसावतं
संरक्षणीया यतना
बर्धमानम्पू:
कायिकानाम् ।
श्राद्धजनस्य
चतस् ॥ ४८ ॥
यज्ञे हुतो गच्छति देवलोकं जीवस्तथा कारयिताऽथ कर्ता । जुहोति किं न स्वं तथा च बन्धूनतो वधो नास्ति कदापि धर्म्यः ॥ ४६ ॥
वीरवाणीप्रमायः
यदा नामाङ्कित विद्धौरेयो विप्र इन्द्रभूतिर्महावीरस्यापश्चिमो शिष्योऽजनि तदा जनतायां विद्वद्वृन्दे चास्या:
ऽग्रगण्यः
घटनायाः
क्रान्तिकारः प्रभावः प्रसतो जातः परितः । इन्द्रभूति गौतम समावेद
श्रावक का यह कर्तव्य है कि वह संकल्पपूर्वक किसी भी अस जीव की हिंसा नहीं करे और जो स्थावर जीव हैं उनके प्रति यत्नाचारपूर्वक वर्ते, यही उनका अहिंसा व्रत है ।। ४८ ।।
यज्ञ के निमित्त मारा गया -- होमा गया - जीव यदि देवलोक स्वर्ग में जाता है, तो जो यज्ञ करता है और जो उसे कराता है वह क्यों नहीं अपने आपको और अपने बन्धुजनों को यज्ञ में होम देता है । इसलिए हिंसा- -यज्ञ के निमित्त किया गया प्राणिव भी धर्मरूप नहीं है ॥ ४६ ॥
बीरवाणी का प्रभाव
जब नामाङ्कित विद्वद्वरेण्य विप्र इन्द्रभूति गौतम महावीर के अग्र गण्य सर्वप्रथम शिष्य बन चुके तब जनता में एवं विद्वद्वृन्द में इस घटना का क्रान्तिकारक प्रभाव पड़ा । इन्द्रभूति गौतम के जैसे ही उसके अन्य
:
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वर्धमानचम्पू:
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तस्यान्यावपि द्वौ सहोदरी बिद्वन्मण्डल्यसकारकरूपाग्निवायुभूतात्य स्थान्तेवासितति-सहिती महायोरस्य धर्मोपदेश निशम्यानुपमं निखिल संग निरस्य स्वविनीतविनेययुतो दैगम्बरी दीक्षामादाय तदीय गणधरावजनिषाताम् ।
मिथ्यात्वमलिनं ज्ञानं सम्यक्त्वेन सुवासितम । यदा संजायते, भाति निर्मलादर्शवत्तदा ।। ५० ।।
मलं मिथ्यात्वमस्मासज्जायते मलिनं प्रवम् । सम्यक्त्वमेव तस्यास्ति व्यपनोवाय शक्तिमत् ॥५१॥
श्रीचन्दनद्रोः समीपस्था निम्बाबयो यदि चन्दनतां लभन्ते किमत्र तहिं चित्रमिति ।
और भी दो सहोदर भाई थे जो विद्वानों की मण्डली के अलंकार जैसे थे । इनका नाम अग्निभूत और वायुभूत था। ये दोनों भी अपनी-अपनी शिष्यमण्डली सहित महावीर का धर्मोपदेश सुनकर समस्त परिग्रह का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा धारण कर भगवान् महावीर के गणधर बन गये।
मिथ्यात्व से मलिन हश्रा ज्ञान जब सम्यक्त्व से सुधासित हो जाता है तब वह निर्मल दर्पण की तरह चमकने लगता है ।। ५० ।।
मिथ्यात्व एक प्रकार का मैल है । इस मेल से ज्ञान मलिन हो जाता है । इस मैल को धोनेवाला सिर्फ एक सम्यग्दर्शन ही है ।। ५१ ।।
चन्दन के पास के वृक्ष नीम प्रादि यदि चन्दनस्वरूप बन जाते हैं तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है । इसी तरह विप्र इन्द्रभूति गौतम यदि वीर का सान्निध्य पाकर दिगम्बर मुनि बन गया तो आपचर्यकारक बात नहीं है।
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वर्धमानचम्पूः यदाऽश्रावि मर्मस्पर्शी जनतया महावीरस्य दिव्यभन्योसमधर्मोपदेशस्तबर सौन्दर्योपेतं तस्य सस्थस्वरूपं तयाऽज्ञायि । अस्यैव फलितार्योऽयं जातो यत् पशु पशुवधस्य विरोधको व्यापकः प्रचारः समभूत् । यज्ञकारपितृणां पुरोहितानां यज्ञविधायिनां हृदये उल्लेखनीयं परिवर्तनं जातम् । प्रतस्ते पशुयजं प्रति हिंसाधायककृत्यत्वेन जुगुप्सामकुर्वन ।
राजगृहीश्वरो मगधदेशरधिपतिः श्रेरिणकोऽपरनामधेयो बिम्बसारी महावीरस्योपदेशं निशम्य तं चाकण्ठं परिपीय मुहमहुविचिन्त्य तवनुयायी परमभक्तस्तस्य संवृतः । इत्थं श्रीवोरप्रभो वाणी प्रारंभत एव परमप्रभावशालिनी सिद्धाऽभवत् ।
कियदिवसानन्तरं तीर्थकरो महावीरस्ततोऽपि विहत्येतस्ततो विहारमकरोत् । यत्रापि सोऽतिष्ठसत्रामवनवीनं श्रीसभामण्डपं समव
जब जनता ने भगवान महावीर का मर्मस्पर्शी धर्मोपदेश सुना एवं उसका सौन्दर्योपेत सत्य स्वरूप जाना तो इसका यह फल हया कि पशुयज्ञ का विरोधकारक व्यापक बहुमत गठित हो गया एवं यज्ञ करने और कराने वालों के हृदय में उल्लेखनीय परिवर्तन आ गया । अतः पशुयज्ञ के प्रति उसके हिंसा का कार्य होने के कारण ग्लानि प्राने लगी।
ममधदेशाधिपति श्री श्रेणिक जो कि राजगृही नगरी के शासक थे और जिनका दूसरा नाम बिम्बसार था, ने महावीर के धर्मोपदेश को सुना । सुनकर उसका बारम्बार बिचार---चिन्तवन-मनन किया । उससे उसे अपार शांति मिली। वह भगवान् महावीर का अनुयायी बन गया और उनका परम भक्त श्रावक हो गया । इससे बीर प्रभ की वाणी प्रारम्भ से ही परम प्रभावशालिनी साबित हुई। कितने ही दिनों तक यहां विराजमान रहकर तीर्थकर भगवान् महावीर ने वहां से भी विहार करके इतस्ततः धर्म का प्रचार किया । जहां पर भी वे ठहरते वहां नबीन समवशरण की रचना
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वर्धमानधम्पूः
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शरणमपरनामधेयं तत्राप्यभवद्धर्मामृतवर्षणम्, विवसाननेकान् यावत् । समीहाविहीनोऽप्यसो भव्यजीवान् प्रति सहजकृपया प्रेरितोऽथवा तेषां प्रबलसुकृतोद्रेकयोगतः काशी-काश्मीर-कुरु-मगध-कोसल-कामरूपकच्छ-कलिङ्ग-करजांगल-किष्किधा-मल्लदेश-पांचाल-केरल-भद्र-चेषिदशाणं-वंगांगान्ध्र, उशीनर-मलय-विधर्भ-गौण्डाविदेशेषु बिहरन् महती धर्मप्रभावनामकर्षीत् । एतावताऽनेकेषु प्रान्तेषु देशेषु वास्य मांगलिकबिहारो जातस्तेन महान् धर्मप्रचारोऽभूत । जगदानन्दकरस्य प्रमोर्भाषा दिव्यध्वनिस्वरूपाऽऽसीत् । समवशरणस्थाः सर्वेऽपि श्रोतास्सा स्वस्य भाषायां बोधन्ति स्म । यत्र-यत्रासौ तीर्थकरो रिजहार तत्र तत्र धर्मामृतपिपासूनां कृतेऽयं धर्मोपदेशं चकार ।
होती । अनेक दिवस पर्यन्त वहां वे धर्मामृत की वर्षा करते । इच्छा-विहीन होने पर भी भगवान महावीर ने सहज कृपा भाव से प्रेरित होकर या भव्यजीवों के प्रबल पुण्योदय के योग से उन्हें काशी, काश्मीर, कुरु-मगधकौशल-कामरूप-कच्छ-कलिङ्ग-कूरुजांगल-किष्किन्धा-मल्लदेशपांचाल केरल-भद्र-चेदि (चंदेरी) दशार्ण-बंग-अंग-आन्ध्र-उशीनर
(1)-इच्छाविरहितः सोऽपि भक्ष्यपुप्योदयेरित: बिहारमकरोद्दे पानानि धर्मोपदेशयन् । काम्या काश्मीरदेशे कुरुषु च मगधे कौशले कामरूपे, कच्छे काले कलिङ्ग जनपदम हिते जांगलात्ते कुरादौ । किष्किन्धे मल्लदेशे सुकृतिजनमनस्तोषदे धर्मवृष्टि कुर्वन् शास्ता जिनेन्द्रो विहरति नियतं तं यजेऽहं त्रिकाले।। पांचाले केरले बाडमृतमदमिहरो भद्र चेदि दशार्ण,
बंगांगान्ध्रोलिकोशीनरमलय विदर्भषु गोसुसा । शीतांशूरश्मिजालादमृतमिव समां धर्मपीयूषधाराम्, मिनन योगाभिराम: परिणमति च स्वान्तशुद्धि जनानाम् ।।
प्रतिष्ठा पा. ९/६ पृ. "गौतमोऽपि ततो राजन् ! गतः काश्मीरके युनः । महावीरेण दीक्षां च धले जनमतेत्सिताम् ॥"
वैदिक ग्रन्थ श्रीपाल पु० ३/७६ (गौतम नामक एक अाह्मण ने तीर्थकर महावीर से जैनधर्म की दीक्षा लेकर इच्छित अर्थ को सिद्ध किया ।
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वर्धमानसम्पूः इच्छामन्तरेण वधनप्रवृत्तरभावात् कथं तीर्थकरेण महावीरेण धर्मप्रचारः कृत इति न वक्तव्यम् ता विमाप तत्प्रवृतदर्शनात् । नियमाम्युपगमे तु सुषुप्ती गौत्रस्खलनादी या निरभिप्रायप्रवृत्या न भाग्यम् । भवति चेदत्रापि सा भवतु, का नो हानिः । किं च प्रक्षीणमोहे भगवति मोहपर्यायात्मिकाया इच्छायाः संभव एव नास्ति । यथा शिल्पिकर स्पर्शान्मुरजो ध्वनति, तथैव भध्यानां सौभाग्योवयातचोयोगसद्भावाच्च तीर्थकरस्य दिव्यध्वनिरुद्भवति ।
मलय-विदर्भ और गौण्ड प्रादि देशों में विहार करके धर्मोपदेश दिया और इससे वहां पर महती धर्मप्रभावना हुई।
इस प्रकार अनेक प्रान्तों में और अनेक देशों में इनका मांगलिक विहार हुआ । इस कारण घर्म का बहत अधिक प्रचार हना । जगत में आनन्द की वर्षा करनेवाले प्रभु की भाषा दिव्यध्यनिरूप थी । अतः समवशरणस्थ समस्त प्राणी उसे अपनो-अपनी भाषा में समझ लेते थे। जहां-जहां इन तीर्थकर का विहार होता वहां-वहां के धर्मपिपासु जनों के लिए इनका धर्मोपदेश होता।
यदि कोई यहां पर ऐसी आशंका करे कि प्रभु तो इच्छा-विहीन थे अतः इस स्थिति में वचन प्रवृत्ति का होना सम्भव नहीं है, तो फिर तीर्थंकर महावीर ने धर्म का प्रचार कसे किया ? तो इस प्रकार की यह प्राशंका उचित नहीं है क्योंकि इच्छा के बिना भी बचनप्रवृत्ति देखने में पाती है । यदि ऐसा नियम माना जावे तो सुषप्ति अवस्था में या गोत्रस्खलन ग्रादि में जो निरभिप्राय वचनप्रवृत्ति देखी जाती है वह कैसे सम्भवित हो सकेगी। अतः ऐसा नियम सिद्ध नहीं होता है । इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि इच्छा के अभाव में भी वचनप्रवृत्ति होती है। इसमें कोई हानि जैसी बात नहीं है। दूसरी बात यह है कि मोह के सद्भाव में ही इच्छा होती है । प्रभु के तो मोह का सर्वथा विनाश हो ही जाता है, अतः वहां इच्छा का होना सम्भव ही नहीं है। जिस प्रकार बजाने वाले के करस्पर्श से मृदंग बजता है-आवाज करता है, उसी प्रकार भव्यजीवों के सौभाग्य के उदय से एवं वचनयोग के सद्भाव से तीर्थंकर की दिव्यध्वनि खिरती है।
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वर्धमानवम्यूः
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श्री महावीरस्य धर्मप्रचारात्तत्प्रभावाच्चाहिंसायाः प्रभावशाली प्रसारः समजनि । सर्वत्र पशुयज्ञा निरुद्धाः । हिंसाकृत्यात्मांसाशनाच्च जनताया हृदये जुगुप्सा प्रादुर्भूता । तद्वियुद्धं धर्मोपदेशं श्रुत्वा नृशंसा अपि दयाराधा प्रसूखन् । धियायकावारशियास्य यत्रापि मंगलविहारोऽभवत्तत्रत्याः शासकाः मंत्रिणः सेनस्पतयः पुरोहिता विद्वांसस्तथाऽन्येऽपि साधारणजनास्तदनुयायिनो भूत्वा तद्भक्ताः बभूवः । यथा रव्युक्यावन्धकारो विनष्टो जायते तथैव तीर्थकरस्योपदेशावज्ञानं भ्रमोऽधर्मोऽन्यायोऽत्याचारो हिंसादिदुष्कृत्यं चेत्यादीत्याविरूपः पापाचारः शनैः शनैः साधारणजनक्षेत्रात् विनिर्गतोऽभवत् । निरागसे निरपराधाय मूकपशुजगते संरक्षणमित्थं मिलितम्।
श्री महावीर के धर्मप्रनार से और उनके प्रभाव से अहिंसा का प्रभावशाली प्रसार हुआ । सर्वत्र पशुयज्ञ होने से रुक गये । हिंसा जैसे अकृत्य से एवं मांसभक्षण से जनता के हृदय में ग्लानि आ गयी । महावीर के विशुद्ध धर्मोपदेश को सुनकर निर्दयजनों के हृदयों में भी परिवर्तन प्रा गया । उन में भी दया का संचार होने लगा । विश्ववंद्यपदकमलवाले वे महावीर जहां-जहां मंगलमय विहार करते थे, वहां वहां के शासक, मंत्री, सेनापति, पुरोहित, विद्वान् तथा अन्य प्रौर भी साधारण जन उनके अनुयायी होकर उनके भक्त हो जाते थे । जिस प्रकार सूर्य के उदय से अन्धकार विलीन हो जाता है, उसी तरह तीर्थकर महावीर के धर्मोपदेश से प्रज्ञान, भ्रम, अधर्म, अन्याय, अत्याचार और हिंसादि दुष्कृत्यरूप पापाचार धीरे-धीरे साधारण जनक्षेत्र से हटने लग गया। इस प्रकार निष्पापी और निरपराधी मूक पशुजगत् को संरक्षण मिला।
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वर्धमानचम्पूः
तीर्थंकरस्य महावीरस्य संधे गणधरा एकादश । केवलिनां संख्या सप्तशतप्रमाणा । मन:पर्ययज्ञानिनः पंचशतानि । त्रिशताधिकसहस्रसंख्याकाः श्रवधिज्ञानिनः । नवशतसंख्याका विक्रयद्विधारिणः । चतुःशत संख्याका अनुत्तरवादिनः । षत्रिंशत्सहस्रसंख्या मिता भार्याः । शतसहस्रसंख्याकाः श्राद्धाः । त्रिलक्षसंख्योपताश्च श्राविका अग्सन् ।
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तोर्थकृता महाबीरेणषि-मुनि-यत्यनगाररूपंश्चतुविधेः साधुसंर्घः, श्रमण - श्रमणी - श्रावक-श्राविकाराजिभिश्च परितः परिवृतेन नानावेशेषु देशान्तरेषु विंशतिविवसाधिक पंचमासोपेतान्ये कोनत्रिंशद्वर्षाणि यावद्धर्मप्रचारः कृतः । तथा चोक्तम्
वासाणुगतीसं पंचय मासेय वीस दिवसे य । चविह अणगारेहि वारस दिह विहरिता ॥
- जयधवला खं. पृ. ८१ ।
अस्मिन् धर्मप्रचारे भगवता वीरेणाहिसाधर्मस्यानेकान्त सिद्धान्तजातिवादस्यापरिग्रहस्यात्मास्तित्वस्य कर्मवादस्य च विशेषरूपेण विशिष्टा
व्याख्या कृता ।
श्री तीर्थकर भगवान् महावीर के संघ में ११ गणधर ७०० केवलज्ञानी, ५०० मन:पर्ययज्ञानी, १३०० अवधिज्ञानी, २०० विक्रियाऋद्धि के धारी, ४०० अनुत्तरवादी ३६००० आर्यिकाएँ. १००००० श्रावक, श्रीर ३००००० श्राविकाएँ थीं ।
श्री तीर्थंकर ने ऋषि, मुनि, यति और अनगार इस चतुविध साधु संघ से और श्रमण, श्रमणी श्रावक तथा श्राविकाओं से परिवृत होकर अनेक देशों एवं देशान्तरों में २१ वर्ष ५ माह १० दिन तक विहार कर धर्म का प्रचार किया ।
इस धर्म प्रचार में भगवान् महावीर ने अहिंसा धर्म की, श्रनेकान्त को, जातिवाद की, अपरिग्रह की, श्रात्मा के अस्तित्व की और कर्मवाद की विशिष्ट व्याख्या की ।
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वधेमानधम्पू:
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परिनिर्वाणप्राप्तिः
मन्ते सोऽयं प्रभुविहारं निरुद्धय पावानगरेऽनेकेषां सरोवराणां मध्ये महोन्नतभूमिप्रदेशे महामणिमयशिलातले संस्थितः । तत्र तेन षडदिवसान यावत् योगनिरोधं विधायान्तिम गुणस्थानं सम्रपलाधम् । तत्रावशिष्टान्यघातिकाणि चोन्मूल्य कालिककृष्णामावास्यादिवसे ब्राह्म मुहूर्ते (सूर्योदयात्किञ्चित्प्राक्समये) संसारपरिभ्रमणान्मुक्तिसम्धा ।
परिनिर्वाणमहोत्सवः यदा श्री तीर्थकरो महावीरः पावापुरीतो निर्वाणमाप तदा स तस्या निशीथिन्या अन्तिमोऽन्धकार आसीत् । यर्थवेन्नो विविधरिचलं. स्तीर्थंकरमहावीरस्य निर्वाणलामसूचनामलमत तर्थवासी देवपरिवारैः
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परिनिर्वाणप्राप्ति
अन्त में वे विहार को संवरण कर पावानगर में अनेक सरोवरों के मध्य महोन्नत- भूमि-प्रदेश में संस्थित महामणिनिर्मित सिंहासन पर विराजमान हुए । बहां ६ दिन तक उन्होंने योगों का निरोध किया और वे अन्तिम गुणस्थान पर प्रारूढ़ हो गये । वहां अवशिष्ट अधातिया कर्मों को नष्ट कर कार्तिक कृष्णा अमावस्या को ब्राह्ममुहूर्त में संसार-परिभ्रमण से .. मुक्त हो गये।
परिनिर्वाणमहोत्सव
जब तीर्थकर महावीर ने पावापुरी से निर्वाण प्राप्त किया था। उस रात्रि का वह अन्धकार उनके जीवन का अन्तिम अन्धकार था। जैसे ही विविध निर्वाणसूचक चिह्नों से इन्द्र ने भगवान् महावीर के निर्वाणप्राप्ति की सूचना पायी वैसे ही वह देवपरिवार के साथ पावापुरी आया । वहां
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मधमानचम्पूः सह पाबानगरमियाव । तत्रासंख्यातान् प्रदीपान् प्रज्वाल्य स महान्तं रवितेजोऽधिकं प्रकाशं चकार । प्रागन्तुकः सुरवृन्दरपि तीर्थकरस्य प्रमोरमत्तः संभूयोच्चमधुरः स्वरर्जयधोषोऽकारि पुनः पुनः । अतः पाषानगरस्था जना निकटस्थाः स्त्रीपुरुषाश्चापि तीर्थंकरनिर्वाणगमनसूचनामलभन्त । अतः सर्वेऽपि से प्रदीपान प्रज्वाल्य तस्मिननधिष्ठाने समागताः। इत्थं तत्रासंख्याताः प्रयोपाः स्वस्थप्रभया प्रकाशाधिक्यं प्रतेनिरे । भक्तिभरावनद्धान्तःकरणधिस्तथा निलिम्पंश्च तीर्थकरपरिनिर्वाणस्य महोत्साहेन प्रबलप्रमोदेन च महानुत्सवो व्यधायि । हस्तिपालनपेण, मल्लिगणनायकैस्तथाऽष्टादशगणनायक चापि मध्यमापावायां परिनिर्वाणसमारोहोऽत्यधिकोसाहेन भक्तिपूर्वकमकारि । बीरे मुक्तिगते सति देयास्तदीयं पाथियं विग्रहं कपरचंदविरचिताया चितायां संस्थापयामासुः । नमस्कारं कुर्वतां वह्निकुमारवेवानां मौलिभिस्तत्क्षणनिर्गतज्यलन
आकर उसने प्रसंख्यात दीपों को जलाकर नगर को प्रकाशमय कर दिया । साथ में प्राये हुए देवों ने भी प्रमोदमत्त होकर उच्च स्वरों से बारम्बार जयघोष किया। अतः पावानगर के समस्त नर-नारी-जन और पास-पास के नर-नारी-गण तीर्थंकर के निर्वाणगमन की सूचना पाकर वहाँ पाकर उपस्थित हो गये। उन्होंने भी वहां दीपक जलाये, इस तरह वहां असंख्यात दीपों की राशि का प्रकाश चारों ओर फैल गया । भक्तिभाव से जिनका अन्तःकरण प्रोत-प्रोत हो रहा है ऐसे मनुष्यों ने तथा देवों ने तीर्थंकर के परिनिर्वाण का बड़े उत्साह एवं प्रमोद के साथ बहुत बड़ा उत्सव किया । हस्तिपाल नरेश ने, १८ मल्लिगणनायकों ने एवं १८ गणनायकों ने मध्यमापावा में परिनिर्वाण समारोह बड़े ठाट-बाट के साथ भक्तिपूर्वक किया। वीर प्रभ के मोक्ष चले जाने पर देवों ने उनके पार्थिव शरीर को कपूर चन्दन पादि सुगन्धित पदार्थों से रची गई चिता में स्थापित किया। इसके बाद नमस्कार करते हुए अग्निकुमार जाति के देवों के मणिनिर्मित मुकुटों से
१. पावापुरस्य बहिसन्नतभूमिदेणे पद्मोत्पलकुलवतां सरसां हि मध्ये 1 श्री वर्धमान जिनदेव इति प्रतीतो निर्वाणमाप भगवान् प्रविधूतपाप्मा ।
निर्वाण भ० २५
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वर्धमानचम्पू: ज्वालामाला सुगन्धितन्यैः सत्रा तीर्थकरस्य तत्परमौवारिकमपधनं भस्मसान्निनाय । सस्तोपस्थिसः सावरुद्भतं सरम परमनपस्या स्वोसमाङ संमलितम् । तनिर्वाणदिवस एव श्री गौतमेन लोकालोकाषभासकं कैवल्यमलामि । तदारभ्यवाखिले भारते तीर्थकरस्य महावीरस्य संसती प्रतिवर्ष कातिककृष्णामावास्यां तिथौ तत्स्मारकरूपो दीपावलीति नाम्ना महापर्वराजः परितः प्रचलितो जातः । वियसोऽयं अनरतिशुमः परिगण्यते च मन्यते । प्रस्मिन दिवसे तस्यार्चा परिनिर्वाणसपर्या केवलज्ञानस्वरूपाया लक्ष्म्याश्चापि पूजा तथा क्षणदो समये प्रवीपाश्च प्रज्याल्य हर्षोत्कर्षसूचको विशेषप्रकाशश्च क्रियते।।
घोरे सर्वसुखाकरे भगवति प्रध्यस्तकर्मोदये, मुक्तिश्रीनिलयाधिपे सति सुरैरिन्द्रस्तथा मानः । भूयश्चापि जयप्रघोषफलितैरागत्य पावापुरी, तत्रासंख्य सुवीप्रदीपकगः प्रज्वालितो भक्तितः ।। ५२ ॥
निकलती हुई अग्नि ने मुगन्धित द्रव्यों के साथ-साथ तीर्थंकर प्रभु के उस परमौदारिक शरीर को भस्मसात् कर दिया । वहां पर जितने भी प्राणी उपस्थित थे उन सबने उस भस्म को परमभक्तिपूर्वक अपने-अपने मस्तक पर लगाया। जिस दिन प्रभु को निर्वाण की प्राप्ति हुई उसी दिन गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इसी दिन से समस्त भारत में तीर्थकर महावीर की स्मृति में प्रतिवर्ष कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन उनकी याद दिलानेवाली 'दीपावली' इस नाम से प्रसिद्ध महापर्वराज प्रचलित हुआ है । मनुष्य इस पर्व को बहुत पवित्र मानते है । इस दिन इसकी पूजा, परिनिर्वाण पूजा, एवं केवलज्ञानरूप लक्ष्मी की पूजा करते हैं और रात्रि में प्रदीप-पंक्ति प्रज्वलित कर हर्षोत्कर्षसूचक प्रकाश करते हैं।
वीर प्रभु सर्वजीवों के हितैषी हैं। भगवान् स्वरूप है। उन्होंने कर्मोदय को ध्वस्त कर दिया है । इस कारण वे मुक्ति-श्री के सौध के अधिपति बन चके हैं। इस खशी में इन्द्रों ने, देवों ने, मानवों ने और राजामों ने जय-जयकार करते हुए पावापुरी में प्रवेश किया और भक्तिभाव से वहां असंख्यात प्रदीपों को जलाकर विशिष्ट प्रकाश किया ।। ५२ ॥
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धमानचम्पू: इत्थं संभूय शक्रा:रनिर्वाणसूत्सवः ।
विहितः पर्वराजोऽसौ दीपावल्यभिषोऽभवत् ॥ ५३ ॥ तीर्थंकरो महावीरो यदा मुक्तिकान्तायाः कमनीयसद्मनि सहोषिसुंगयाँस्तदा चतुर्थकालसमाप्तौ सार्धाष्टमासोपेतानि त्रिवर्षाण्यवशिष्टा. न्यासन् । चतुणिकायादेवास्तत्काल समागत्य तत्प्रभोः सपर्या चकः प्रदीपश्चि प्रज्वालयामासुः। प्रज्वलितैश्च सेः प्रवीपैः सा पावानगरी प्रदीपिताकाशतमाऽभवत् । तत्समयादेव भक्तजना जिनेश्वरस्याची कतु भारतवर्षे प्रतिसंवत्सरं तत्परिनिर्वाण दिवसोपलक्षे दीपावल्यभिधानं पर्व महोत्साहेन भजन्ते । वीरप्रनिर्वाणस्य स्मारकरूपेण वोरनिर्वाणसंवत्सरोऽपि प्रचलितो जातो यः प्रचलितेषु संवत्सरेषु प्राचीनो वर्तते ।
इस प्रकार देवेन्द्र आदिकों ने एकत्रित होकर वीरनिर्वाण का महोत्सव मनाया । उन्हीं प्रभु की स्मृति में यह पर्वराज "दीपावली" इस 'रूप से प्रसिद्ध हुा ।। ५३ ।।
तीर्थंकर महावीर जिस दिन मुक्तिरूपी कान्ता के सुन्दर मन्दिर में प्रविष्ट हुए, उस समय चतुर्थकाल की समाप्ति होने में ३ वर्ष ८ माह १५ दिन बाकी थे । चारों निकायों के देव तत्काल वहां आये । वहां पाकर उन्होंने प्रभु की पूजा की। दीपों को जलाया । जलते हुए उन दीपों की भास्वर प्रभा से पावा नगरी का समस्त प्राकाश-मण्डल प्रदीप्त हो उठा । उसी समय से भक्तजन जिनेन्द्र की अर्चा-पूजा-करने के निमित्त प्रतिवर्ष भारत में उनके निर्वाण-प्राप्ति:दिवस के उपलक्ष में दीपावली नाम का पर्व बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं । बीर प्रभु के निर्वाण की यादगारी के रूप में वीर-निर्वाण-संवत्सर चालू हुआ जो प्रचलित संवत्सरों में
प्राचीन है।
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वर्धमानः
प्रस्थ प्रभोः संस्मृतौ बंगाल - बिहार सत्कानामनेकेषां नगराणां नामानि तन्नामानुरूपाणि धृतानि समुपलभ्यन्ते । यथा तज्जन्मनाम्नि वर्धमाने वर्धमानेति, तद्वीरनाम्नि वीरभूमिरिति, तदत्रि चिह्नस्य ध्वजचिह्नस्य च नाम्नि सिंहभूमिरिति नाम सांप्रतमपि प्रयातमस्तीति ।
शार्दूल चिह्नपरिमंड
वर्धमान !, तुभ्यं नमोऽस्तु जगदेकशरण्यभूत ! । प्रस्थां कृतौ तव पवित्र चरित्रमेतत्
वृब्धं सुभक्तिवशतस् त्रुटिरत्रया ।। ५४ ।।
मग्नः,
संसारगाढतमसीह चिरेण
कर्मारिणा हृतविबोधधनोऽस्मि रिक्तः । एकाक्यनाथ इव नाथ ! भ्रमामि मार्ग,
209
मामादिशत्वमधुना शरणागतोऽस्मि ।। ५५ ।।
इस प्रभु की याददाश्त के निमित्त बंगाल विहारान्तर्गत अनेक नगरों के नाम प्रभु के नाम के अनुरूप रखे गये हैं। जैसे प्रभु के जन्म के नाम वर्धमान पर नगर का नाम " वर्धमान", प्रभु के वीर नाम पर नगर का नाम "वीर भूमि " तथा प्रभु के चरण के और ध्वज के विल स्वरूप सिंह के नाम "सिंह भूमि” रखा गया। ये नाम अभी तक प्रचलित चले प्रा रहे हैं ।
हे शार्दूल के चिह्न से अङ्कित श्री वर्धमान प्रभो ! आपको मेरा नमस्कार हो । क्योंकि आप जगत् के अद्वितीय रक्षक हैं । अतः अत्यन्त भक्तिपूर्वक हे नाथ ! मैंने आपका यह पवित्र चरित्र इस कृति में गूंथा है । यदि इसमें कोई त्रुटि हो तो उस पर ध्यान नहीं देना ।। ५४ ।।
...
हे नाथ ! मैं इस संसाररूपी गाढ अन्धकार में चिरकाल से मग्न हो रहा हूं भटकता श्रा रहा हूं। यहां कर्मरूपी शत्रुत्रों ने मेरा सम्यग्ज्ञानरूपी धन लूटकर मुझे बिल्कुल निर्धन बना दिया है । यतः हे प्रभो ! अनाथ की तरह मैं अकेला चारों गतियों में बिना सहारे के इधर-उधर चक्कर काट रहा हूं | यहां से पार होने का मार्ग मुझे मिल नहीं रहा है। इसलिए हे प्रभो ! मुझे आप मार्ग बताव- मैं तो आपके चरणों की शरण में पड़ा हुआ हूं ।। ५५ ।।
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वर्षमानचम्पू:
दृष्टा मया बहुविधा धनिका गुणान्धाः,
__तत्रास्ति नैव करुणा गुणिनं प्रतीह । विद्वज्जनस्य च गुणस्य च रक्षकः सः,
मोजो नृपस्तु गतवान् शुसवां समायाम् ॥ ५६ ।। त्राता त्वमेवासि समस्तजन्तोः,
मत्वेत्यहं स्वच्छरणं गतोऽस्मि । छायामिव त्वां तहमाश्रयन्ना,
शान्ति लभेतैव च याच्नया किम् ।। ५७ ॥ राजेश-संजया-ज्ज-सोमू-मोनू सुशैलु नवृणाम् । सम्भं च पितामहेन पूर्ण जातं गुरोः काया ॥ ५८ ।।
यदि आप कहें कि यहां तुम्हें सहारा देने वाले अनेक धनिक हैं अतः उनका ही सहारा लो-तो इस सम्बन्ध में रचनाकार अपना अभिप्राय प्रकट करता.हुमा कहता है-हे नाथ ! मैंने अभी तक अनेक प्रकार के धनिकों को देखा है-पर वे सब मुझे गुणों से ही अन्धे-रहित-देखने में पाये हैं । जब वे स्वयं गुणी नहीं हैं तो गुणिजनों के प्रति इनमें करुणा का भाव भी नहीं है । अर्थात बहमान नहीं है । यह भाव तो राजा भोज में था-सो हे नाथ ! वह तो इस समय देवलोक में विराजमान है ॥ ५६ ।।
हे वीर प्रभो ! पाप ही समस्त जन्तुओं के रक्षक हो, ऐसा समझकर हो मैं आपकी शरण में आया हूं। सोहे नाथ! जिस प्रकार वृक्ष के सहारे बैठे व्यक्ति को बिना मांगे छाया मिल जाती है, उसी प्रकार अापको शरण में मुझे भी शांति मिलेगी । मैं इसकी अाप से मांग नहीं करता हूं ।। ५७ ।।
राजेश, संजय, अज्ज, सोमू, मोनू, सुशैलू के पिता के पिता मुझ मूलचन्द्र ने यह वर्धमानचम्पू काव्य रचा है सो अब यह गुरुदेव की कृपा से समाप्त हुआ है ।। ५.८ ॥
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वर्धमानचम्पूः
प्रत्यष पुण्यांश समन्वितत्वाबु-,
धनाढपहि परिलक्षितेन ।
यथाकथंचिद्गुरु सेवयाप्तं,
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स्तरक्षरः संरचिता मयेयम् ॥ ५६ ॥
विद्वज्जनानां भवतान्मुदेऽयं सरस्वतीमातृसुसेवयाप्तः ।
श्रमो मवीयोऽन्यकृपानपेक्षो भवेत्क्वचित्तस्स्खलनं च क्षम्यम् ॥ ६० ॥
समाप्तोऽयमष्टमः स्तबक:
प्रत्यल्प पुण्यशाली होने के कारण धनिकों के चित्त पर मैं चढ़ नहीं पाया- अर्थात् उनकी कृपा मुझ पर नहीं बरसी । केवल गुरुदेव की सेवा से ही जो अक्षर प्राप्त किये उन्हीं अक्षरों से इस काव्य की रचना मैंने की है ।। ५६ ।।
सरस्वती माता की आराधना मैंने की— उस आराधना में जो मुझे परिश्रम हुआ उसी का यह प्रन्थरचनारूप परिश्रम सफल हुआ है । इसकी रचना में किसी भी विद्वज्जन की मुझे सहायता नहीं मिली है। यह स्वोपज्ञ है | अतः यह मेरा श्रम गुणीजनों को आनन्ददाता होवे यही मेरी आकांक्षा है । यदि इसमें कोई त्रुटि हो गयी होवे तो उसके लिए मैं क्षमा मांगता हूं ।। ६० ।।
I
अष्टम स्तबक समाप्त
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यत्किञ्चिदनुषंगिक कथनम्
तीर्थकरो महावीरो बुद्धश्व
तीर्थंकर महावीरकालेऽन्येऽपि धर्मप्रचारका बभूवुः । तेष्वरत्येकी गौतमबुद्धेति नाम्ना विशेषतः प्रख्यातः कपिलवस्तुक्ष श्रियनृपतेः शुद्धोधनस्वात्मजः । तरुणावस्थायां वर्तमानेनानेन संसाराद्विरक्तचित्तेन सर्वप्रथमं तोर्थक महाघोरात्याक्संस्थितस्य तोर्थंकर-पार्श्वनाथस्य शिष्यपरं परावतः पिहितानि साधुक्षयीकृता । जैन शास्त्रोक्तमुन्याचार विध्यनुसारेण तेन सर्वाणि वसनानि परिहाय दिगम्बरावस्था धृता । केशा लुञ्चिताः । पाणी पात्रीकृत्याहारः कृतः । एवंविधो जैनसुन्याचारस्तेन कियतो दिवसाना सेवितः । परन्तु यदा तस्मे जैनसाधुचर्या
यत्किञ्चित् श्रनुषंगिक कथन
तीर्थंकर महावीर और बुद्ध
1
तीर्थंकर महावीर के समय में और भी धर्म प्रचारक हुए हैं। उनमें एक गौतमबुद्ध भी हैं । ये कपिलवस्तु के क्षत्रिय नरेश शुद्धोदन के पुत्र थे । जब वे तरुणावस्था सम्पन्न हुए तो इनके वित्त में विरक्ति जगी । सर्वप्रथम इन्होंने तीर्थंकर महावीर से पहिले हुए तीर्थंकर पार्श्वनाथ की शिष्यपरम्परा को अलंकृत करनेवाले पिहितास्रव मुनिराज से साधुदीक्षा धारण की। जैन शास्त्रोक्त मुन्याचार के अनुसार इन्होंने समस्त वस्त्रों का परित्याग कर दिया और ये दिगम्बर अवस्था में रहने लगे । इन्होंने मस्तक के कणों का लुम्बन किया, पाणिपात्र में ग्राहार लिया। इस तरह कितने ही दिनों तक जैनमुनि का ग्राचार इन्होंने पाला परन्तु जब इन्हें जैन
१.
निये पासणावित्ये सरयूनोरे पलमणयरत्थो । पिहिताse freसो महासुदरो बुकित मुणी 1
दर्शनारे
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बर्धमानचम्पू: दुःचर्या दुःसहा प्रतीता तदा गैरिकधातुना रंजितानि वस्त्राणि परिधाय भिन्नः स्वीयः पन्थास्तेन प्रस्थापितः । मध्यममार्गाभिधानेन सोऽयं प्रसिद्धो जातः ।
बुद्धः सारिपुत्र स्वतपाचारविषये इत्थमयदत्
हे सारिपुत्र ! मत्तपस इमे ह्याचारा प्रासन्-प्रहं निर्वस्त्रो जातः । त्यक्तो मया लोकाचारः । मुक्त मया पाणिपात्रे । मदर्थमानीतं भोजनं मया न गृहीतम् । उद्दिष्टमपि मया न भुक्तम् । भोजनामंत्ररामपि मया न स्वीकृतम् । स्थाल्यामाहारो मया न कृतः । देहल्युपरि संस्थित्य न भुक्तम् । यातायनाइत्तं भोजनं मया नात्तम् । उदूखलीस्थानमास्थाय मया भोजन न गृहीतम् । अन्तर्वल्या हस्ताइत्तं भोजनं न स्वीकृतम् । स्तनधयं पाययन्त्या स्त्रिया हस्ताहीयमान प्राहारो मया नादत्तः । भोगासक्तया दीयमानं भोजनं मया न गृहीतम् । न तस्मात् स्थानाद् भोजनं मया गृहीतम् –यत्र पार्वे
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साधुचर्या दुःसह प्रतीत होने लगी तो इन्होंने गरिक धातु से रंगे हुए वस्त्रों को पहिरना स्वीकार किया और अपना एक स्वतन्त्र मार्ग चलाया। इस मार्ग का नाम मध्यम मार्ग हुप्रा जो माज तक इसी नाम से प्रचलित चला पा रहा है।
बुद्ध ने सारिपुत्र से अपने तपाचार के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा--
हे सारिपुत्र ! मेरे तग के ये प्राचार थे। मैं निर्वस्त्र-दिगम्बरमुनि हुआ । लोकाचार का मैंने सर्वथा परित्याग किया । पाणिपात्र में मैंने पाहार किया । जो भोजन मेरे निमित्त प्राता उसे मैंने ग्रहण नहीं किया । जो भोजन मेरे उद्देश से बनता उसे मैंने ग्रहण नहीं किया । भोजन करने के लिए आये हुए निमन्त्रण को मैंने कभी स्वीकार नहीं किया । मैंने कभी भी थाली में भोजन नहीं किया । दरवाजे की देहली पर बैठकर मैंने भोजन महीं किया । खिड़की में से दिये गये भोजन को मैंने स्वीकार नहीं किया । खलिहान में बैठक र मैंने आहार नहीं किया । गर्भवती स्त्री के हाथ से दिया गया आहार मैंने नहीं लिया। बालक को दूध पिलाती हई स्त्री के हाथ से दिये गये याहार को नहीं लिया । भोगों में प्रासक्त हुई स्त्री के हाथ से दिया गया आहार मैंने नहीं लिया । मैंने उस स्थान से भी ग्राहार नहीं
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वर्धमानचम्पू: कौलेयस्तिष्ठति । नापि तदधिष्ठानाद् भक्त गृहीतम् यत्र मक्षिका भनभनायन्ते स्म । मत्स्या मया न भक्षिताः । प्रामिषं मया न सेवितम् । मदिरा मया न पीता । न गलितं पिशितं भक्षितम् । सुषानां मलीमसं सलिलं मया न पीतम् । एकस्मादेवालयादहं भोजनमलभे । एकग्रासप्रमाणं भोजनं मया लब्धम् । द्वाभ्यां गृहाभ्यां मया भोजनं लब्धम् । द्विग्रासप्रमितं भोजनं मया भुक्तम् । विवसे कदाचिदेकवारं भोजनं कृतम् । कदाचिच्च पंचदशदिवसेषु निर्गतेषु अपि भोजनं भक्षितम् । शिरश्चिबुकश्मश्रस्थाः केशा मया यथासमयं सर्वदेवोत्पाटिताः । सलिलस्यके बिन्नावप्यहं वयाशीलोऽभवम् ।
क्षुद्रजीवस्यापि भया घातो नो भवेवीदृशी सावधानता यतना वाहनिशं रक्षिता।
लिया जिसके पास कुत्ता बैठा हो तथा जहां मक्खियां भनभना रही हों ऐसे स्थान से भी मैंने भोजन नहीं लिया । अपने आहार में मैंने मछलियों का मेबन नहीं किया, मांस नहीं खाया। शराब मैंने नहीं पी । सड़ा गला मांस मैंने नहीं खाया । धौन मैंने नहीं पिया। एक घर का भोजन मैंने लिया। एक ग्रासप्रमाण' मैंने भोजन लिया । दो घरों का भोजन मैंने लिया । दो ग्रासप्रमाण मैंने भोजन लिया । दिन में कभी मैंने एक बार भोजन लिया और कभी-कभी पन्द्रह दिनों के बाद भोजन लिया । शिर के केशों का मैंने मुञ्चन किया । दाढ़ी के बाल मैंने उखाई । पानी की एक बूंद पर भी मुझे दया ग्राती थी।
मेरे द्वारा छोटे से भी छोटे जीव का पात न हो जाये ऐसी साबधानी और यतना प्रतिदिन-सर्वदा-रखी जातो थी । इस प्रकार गौतम बुद्ध ने पाहार के सम्बन्ध में अपने शिष्य को समझाया।
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बर्धमानचापूः
215 तीर्थकरमहावीरो बुद्धश्चैतौ द्वावपि समदेशे समकाले च जाती। संस्कृतौ चैकस्यामेव संबंधितौ । द्वावप्येतौ क्षत्रियराजकुमारौ । अनयोरेकः पञ्चशताधिकद्विसहस्त्राब्दतः पूर्वमात्मधर्मस्य द्वितोयश्च लोकधर्मस्य प्रसारक प्रासीत् ।
एतयोद्वंयोजोवन-सिद्धान्त-धर्मादीनामध्ययनकृतेऽध्येतृणामधस्सनोयं तुलनात्मिका तथ्यतालिकोपयोगिनी सिद्धा भविष्यति
लोकधर्मप्रकाशको बुद्धश्च
प्रात्मधर्मप्रकाशको महावीरः नाम-वर्धमानः पिताऽस्य-सिद्धार्थः माताऽस्य–त्रिशला गोत्रमस्य-काश्यपः धामोऽस्य-कुण्डग्रामः (वंशाली) वंशोऽस्य-ज्ञातृवंशः जन्मास्य-ई० पू० ५६८ जातिरस्य-क्षत्रियः धर्मोऽस्य-प्रार्हतः
शुद्धोदनः महामाया
कश्यपः कपिलवस्तु (लुम्बिनी)
शाक्यः ई० पू० ५५२
क्षत्रियः माईतः
तीर्थंकर महाबीर और बुद्ध ये दोनों ही एक देश में और एक समय में उत्पन्न हुए । एक ही संस्कृति में ये दोनों बड़े हुए ये दोनों ही राजकुमार थे । २५०० वर्ष पूर्व इनमें एक प्रात्मधर्म का और दूसरा लोकधर्म का प्रसारक था । संस्कृत में ऊपर इन दोनों के जीवन प्रादि के सम्बन्ध में जो तालिका दी गयी है वह स्पष्ट है।
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अर्धमानचापुः
गया कुशीनारस्थलम्
ज्ञानप्राप्तिस्थानं-ऋजुकलासरित्तटम् निर्वाणप्राप्तिस्थानम् -- पावापुरी निर्वाणप्राप्तिः-ईस्वी पू० ५२७
आयुष्यम्-७२ वर्ष प्रमाणम् रतम्-पंचमहानतम् सिद्धान्त:-क्यादादः
५० वर्ष प्रमाणम्
पंचशीलम् क्षणिकवावः
तत्रैव महानिकाये महानामाख्यं स्वविनेयं संबोध्य गौतमबुद्धेन यदुक्तं तदत्र संक्षेपतः प्रतिपाद्यते-तदित्थम्
।
हे महानाम ! कदाचिदहं राजगृहस्य गृहकूटनाम्नि गिरावभ्राम्यम् । संभ्रमता मया तदा ऋषिगिरेरभ्यणे कालशिरोपरि बहयौ निम्रन्थाः सुध्याननिमग्नस्वान्ता पल्यांकासनसंस्थिता अवलोकिताः । सायंकाले तेषां सविधे गत्वा मया ते पृष्टाः ।
महानिकाय में गौतमबुद्ध ने महानाम के शिष्य को सम्बोधित करके जो कहा, वह यहां संक्षेप से कहता हूं-बह इस प्रकार है
हे महानाम ! मैं किसी समय राजगृह के गृहफूट नाम के पर्वत पर घूम रहा था । उस समय मैंने ऋषिगिरि के निकट कालपियर के ऊपर अनेक निर्ग्रन्थों को देखा । ये सब प्रात्मध्यान में लीन थे, पद्मासन मे विराजमान थे । सायंकाल के समय मैं उनके पास गया ग्रोर उनसे पूछा
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वर्धमानचम्पू:
किमर्थमियान् युष्मामिस्तपस्याफ्लेशः सहते ? तवा तैः प्रोक्तम्निन्थज्ञातपुत्रेस भगवता महावीरेण सर्वशेन सर्वशिना वयमादिष्टाःभोः निर्ग्रन्थाः ! पूर्व युष्माभिर्यानि पापकर्माणि कृतानि समजितानि वा तेषां निऑरण सर्वथा प्रक्षये च दुष्करतपस्याकरणमन्तरेण नास्त्यन्यत् किश्चिदपि साधनं साधकत्तममिति । कायावाङ्मनःक्रियानिरोधान्नव्यानि पापकर्माणि स्वात्मनामा बंधभावमापन्नानि नो भवन्ति । तपसा च संचितानि तानि पापकर्माणि पुरातनानि निर्णाणानि जायन्ते । इत्थं च नूतनानो निरोधात्पुरातनानां सर्वथा प्रक्षयात्मशुद्धिस्वरूपो मोक्षो निगदितः । इत्थमाईताभिमतो राधान्तो बुद्धेन स्वविनेयं प्रति प्रतिपादितम् ।
खिष्ट्राम्दतः ५२७ वर्षाणां पूर्व भगवति महावीरेऽनश्वरश्रिया स्वयंवरी भूते सति तदनन्तरं दिगम्बराम्नायानुसारेण ये च केवलिनः श्रुतकेवलिनो दशपूर्वधारिणोऽभूवस्तेषां तालिकेत्थम्--
केवलिनस्त्रयस्तेखेमे (१) गौसमगणधरः, १२) सुधर्मस्वामी; (३) जंबूस्वामी ।
हे निम्रन्थो ! आप किसलिए तपस्या करने में इतना अधिक क्लेश सहन कर रहे हो। उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा-निर्ग्रन्थ ज्ञातपूत्र भगवान् महावीर ने जो सर्वज्ञ और स्वंदी हैं, हमसे कहा है-निर्ग्रन्थों ! पूर्व में आप लोगों ने जो पाप किये हैं, या उन्हें उपाजित किया है उनकी निर्जरा या सर्वथा क्षय करने के लिए तपस्या के सिवाय और कोई साधकतम साधन नहीं है । मन, वचन और काय की क्रियारूप योग के निरोध होने से नवीन पाप कर्मों का आत्मा के साथ बन्ध नहीं होता है तथा तपस्या के द्वारा संचित पुरातन पाप. कमों को निर्जरा होती है । इस प्रकार नूतन कर्मों के प्रागमन का निरोध हो जाने से और गंचित कमों के सर्वथा प्रक्षय हो जाने से प्रात्मविशुद्धिरूप मुक्ति कही गयी है । इस तरह मुक्ति के सम्बन्ध में जैन सिद्धान्त का अभिमत गौतमबुद्ध ने अपने शिष्य को समझाया।
ख्रिष्टाब्द-~-ईस्वी सन् ५२७ वर्ष पहिले भगवान् महावीर के मोक्ष चले जाने पर दिगम्बर श्रान्माय के अनुसार जो केवली, श्रुतकेवली एवं दशपूर्वधारी हुए उनकी उनकी तालिका इस प्रकार है ---(१) गौतमगणधर, (२) सुधर्मास्वामी, (३) जंबूस्वामी ये ३ केवलो हाए ।
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वर्धमानचम्पूः
श्रुतकेबलिनः पंच-तद्यथा-- (१) विष्णुनन्दी, (२) नन्दिमित्रः, (३) प्रपराजितः, (४) गोवर्धनः, (५) भद्रबाहुश्चेति ।
दिगम्बराम्नायानुसारतः १६२ वर्षेषु व्यतीतेषु श्रुतकेवलिनामभावः संजातः।
चशपूर्धधारिणश्चैकादश-सेवेत्यम्(१) विशाखाचार्यः, (२) प्रोष्ठिल्लः, (३) क्षत्रियः, (४) जय- . सेनः, (५) नागसेनः, (६) सिद्धार्थः, (७) धूतिषणः, (८) विजयः, (६) बुद्धिबल्लः, (१०) गंगवेषः, (११) धर्मसेनः ।
एकादशांगधारिणः पञ्च तेषां नामानीमानि(१) नक्षत्रः, (२) जसपासः, (३) पाण्डः, (४) ध्र वसेनः (५) कंसाचार्यश्चेति । इमे प्रभावका प्राचार्याः - (१) गुणधरः, (२) कुन्दकुन्दः, (३) उमास्वामी, (४) समन्तभद्रः, (५) सिद्धसेनश्चेति ।
थतकेवली ५ हुए उनके नाम इस प्रकार हैं--(१) विष्णुनंदी, (२) नन्दिमित्र, (३) अपराजित, (४) गोवर्धन, (५) भद्रबाहु ।
११ दशपूर्वधारियों के नाम-(१) विशाखाचार्य, (२) प्रोष्टिल्ल, (E) क्षत्रिय, (४) जयसेन, (५) नागसेन, (७) सिद्धार्थ, (७) धृतिषेण, (८) विजय, (६) बुद्धिबल्ल, (१०) गंगदेव, और (११) धर्मसेन ।
एकादशानधारियों के नाम-(१) नक्षत्र, (२) जसपाल (जयपाल), (३) पाण्डु, (४) ध्रुबसेन, और (५) कंसाचार्य ।
प्रभावक आचार्यों के नाम- (१) गुणधर, (२) कुन्दकुन्द, (३) उमास्वामी. (४) समन्तभद्र, और (५) सिद्धसेन ।
आनुषंगिक कथन समाप्त
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विद्यागुरुस्तुतिः म मर्धमाननगरो ! समाना त्याशिता दयया । स्वर्गस्थिताय तुभ्यं नमोऽस्तु मेऽहनिशं भक्त्या ।। १ ॥ गुरो! त्वदीयोऽनुभयोऽनुभावो मया त्ववाच्योह्यनुमेय एव । वारणारसोसंस्थितविश्वविद्यालयस्य संस्थापक सत्पदस्थः ।। २॥ श्रीमन्मदनमोहनमालवीयस्त्वनिसेवां बहुमन्यते स्म । तथाऽन्य विद्वज्जनमंडली ते भूपालपाली च कृपां चकांक्ष ॥ ३ ॥
(युग्मम) विद्यागुरो ! ते गुणराजिरम्यां, कीर्तः कथा वस्तुमशक्तचितः । सहस्रजिह्वोऽपि च, मे कथा का, स्वल्पावबोधोस्म्यहमेकजिह्वः॥४॥
अस्या विनिर्मिती हेतु प्रदर्शनम्विद्यानन्दमुनीश्वरविरचितं हिन्दधामिदं पुस्तकम्, "श्री तीर्थकर वर्धमान" मभिधं दृष्टं मया मुद्रितम् । पूर्व संस्कृतगद्यतो विरहितात्पर्यस्तदाऽनूक्तिम्, चम्पूकाव्यमयं पुनश्च मयका चैतत्तदुक्त्या कृतम् ।। ५ ॥
अत्र समारतेन केन चिद्विदुषा मा प्रविलोक्य परिहासगर्भमिदमभिहितमन्योक्तिमाश्रित्य वचनम् -
तूष्णीमास्थाय स्थातव्यं श्रीखण्यास्मिन् वने स्वया । करीला एव सम्स्यत्र ते न जानन्ति सद्गुणान् ॥१॥
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वर्धमानवम्पूः स्वात्मन्यवज्ञा मा धेहि समय स समेष्यति । यस्मिंस्तस्तंर्गुणस्तैः सन्मानं कारयिष्यते ॥२॥
शनैः शनैः सोऽपि समयः सौभाग्यात्समागतः क्षेत्राधिकारिभिर्मान्यरध्यक्षादिमहोदयः । राज्याधिकारिभिश्चापि राज्यपालमहाजनैः ॥ ३ ।। यथाकालं समाहूय सत्कृतोऽहं पुरस्कृतः । सत्यं-पुण्यादते जीवैः सौभाग्यं नैव लभ्यते ॥ ४ ॥ श्रीमत्यतिशयक्षेत्रे महावीरे नाम्ना अगद्विदिते । पाण्डित्यपदं वहता चम्पूकाव्य मया रचितम् ॥ ५॥ गंभीरा सरितस्तरे स्थितमिदं क्षेत्रं महविस्तृतम्, श्री दैगम्बरमूलनायकमहावीराख्यया विश्रुतम् । भूगर्भोत्थितवीरबिम्बफलितं भक्तिस्थलं पावनम्,
प्राचीनं बहुभक्तिभावमरितः श्राद्धः सबा संकुलम् ॥ ६ ॥ दिगम्बराम्नायत एवं सर्व पूजाप्रतिष्ठादि च धर्मकृत्यम् । संपद्यते, सर्वजनीनमेतत् क्षेत्रं प्रसिद्ध जगतीतसेऽस्मिन् ॥ ७ ॥
भक्तिकेन्द्रस्य पूर्णाऽस्य व्यवस्था संविधीयते । निर्वाचनपद्धत्या पुरस्थगिम्बरैः ॥८॥
क्षेत्रीयसमितौ सन्ति येऽपि केऽपि सबस्यकाः । व्यवस्थाकरणे वक्षा नोतिशास्त्रविशारदाः ।।६।।
वार्धक्यमहिमा गृहिणीसहायः मतिभ्रमो जायत एव पुंसां वार्धक्य काले जनवाद एषः । मिथ्या यतोऽहं न तथा बभूव, बभूव में प्रत्युत शेमुपीद्धा ॥१॥
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वर्धमानचम्पू:
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अशीतिवर्षायुषि संस्थितस्य द्विवर्षहीनेऽपि च शेमुषोयम् । पूर्वीयसंस्कारधशादहीना करोति काव्यं ननु नभ्यमेतत् ॥२॥
वार्धक्यकालेऽपि च सुस्थिरा मे, बभूव धिषणा खल्वत्र हेतुः । स्वल्पेपि संतोषविधायिनी सा साधुस्वभावा गृहिणी प्रकृत्या ।।३।। साहित्यनिर्माणविधौ च पुंसो योगेन पल्या भवितव्यमेव । विशोभते चन्द्रिकयैव युक्तो विधोः प्रकाशोऽप्यनुभूत एषः ॥ ४ ॥
संयोज्य करावित्थं प्रबोमि
दृष्ट्वय विज़ा मम शेमुषी तां ययोद्गतं काव्यमिदं नबोनम् । भवेवघदीह स्खलनं न तन्मे बुद्धस्तदेवेति विमर्शयन्तु ॥ १॥ अस्य काव्यस्य निर्माण, उपयोगः सुरक्षितः ।
तथापि यदि जाता स्यात्रुटिः सम्या गुरणाग्रहैः ॥२॥ विद्वद्वरेण्यर्गणिराग, वार्धक्यकालोनवकाव्यमेतत् । विचिन्त्य, शाम्दीह यदि अष्टिः स्यात्, क्षम्येति संयोज्य करौ बीमि ॥३॥
सागरमण्डलाधीनो मालथौने ति संज्ञकः ।
प्रामो जनधनाकीण : सोऽस्ति में जन्मभूरिति ॥ १॥ . "सल्लो" माता पिता मे श्री सटोलेलालनामकः । जिनधर्मानुरागी स परवारकुलोद्भवः ॥ २ ॥ मदेकपुत्रां जननी विहाय स तातपादः परमल्पकाले ।
दिवंगतस्तत्समयेऽहमासं सार्धद्विवर्षायुषि वर्तमानः ।। ३ ।। वैधव्य कष्टेन संमविताम्बा मां पालयामास यथाकथंचित् । बाम : करो मे ह्यशुभोदयेन भग्नोऽभवद्विक्तधनस्य हन्त ॥ ४ ॥
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________________ 222 वर्धमानधम्पू: - - - एकस्य दुःखस्य न यावदन्तो जातो द्वितीयं च हहा ! तवने / समागतं, सत्यमिवं हि वाक्यं “छिटेष्वनी बहुली भवन्ति" // 5 // प्रभावे लब्धजन्माऽहं प्रभावे चाय धितः / प्रमावे लब्धविद्योऽहं स्वकर्तव्ये रसोऽमकम् // 6 // दृष्टा मयाऽनेकविधापनावधाः, गणोऽपि तेषामधिकारिणां च / परं न विद्वज्जनगण्यगुण्यगुणानुरागी हृदयोऽत्र दृष्टः // 7 / / श्रीमत्सुरेन्द्र पशसा दुग्धं काव्यं सुविविज्ञेयम् / चतुर्विशतिसंधानमनूदितं तन्मया हिन्वयाम् // 8 // येऽपि केऽपि मया दृष्टाः, प्राउघा बदरिकानिभाः / नारिकेलसमा नैव, सौभाग्यात्क्वापि वीक्षिताः / / मातस्त्वया मम तोऽस्ति महोपकारो, पावस्तिदंशमपि पूरयितुं न शक्त: / पता चीनकरियनियुकं विधाय प्रत्यर्पयाभि महिते ! तदुरीकुराष्य // 10 // यत्र कुत्रापि पर्याये स्थिता स्वं सुखिता भषेः / स्वां जनमी पुन: प्राप्य पुत्रः स्यामिति भावना // 11 / / गंगोत्तुङ्ग तरङ्गसङ्गि सलिलप्रान्तस्थितो विश्रुत:, श्री स्याद्वादपदाश्रितो मुविजनैर्मान्योऽस्ति विद्यालय / तत्राहंशपठं गणेशगुरुणा संस्थापित वणिना, अम्बाबासपदोपहिततनुभूद्विशिष्टो गुरुः / / यावद्वाजति शासनं जिनपर्यावच्च गंगाजलम्, यावरुनविवाकरौ बितनुत: स्त्रीयां गति चाम्बरे / तावद्वाजतु काव्यमत्र भुवि मे विद्वत्सभायां जन :, हृचं सधदयरहनिशामिदं पापच्यमानं मुना // शुभं भूयाच्छुभं भूयात् सर्वेषां प्राणिनां सवा / नामङ्गलंच कस्यापि स्वप्नेऽपीह प्रभो ! भवेत् / /