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वर्धमानचम्पू. शक्तर्यस्य कथामपोह गवितु शक्तोऽभवन्नो कषिः,
ब्रह्मा, विष्णुमहेशशेषमुनयोऽप्यास्थाय मौनं स्थिताः । कान्येषां विदुषां कथाऽत्र महतामेतत्रिलोकीजनाः, .. यस्याप्रे तृणव विभान्ति मयि ते निःस्वेऽपि भूयात्कृपा ॥ १३ ॥ अम्बादिवासान्तपदोपगूढो विद्यागुरमें जयप्तादयालुः. अवे महाधीरजिनस्य वृत्तं मूर्योऽप्यहं यत्कृपया पवित्रम् ॥ १४ ।। क्वैतस्पवित्रं विपुलं अरित्रं क्षाल्पोधा मलिना मतिमें, तथापि सन्मत्यनुरागपुण्यात् पूता तदात्यातुम सौ प्रवृत्ता ॥ १५ ॥ प्रमोश्परिनं खलु पापहारि प्रगीयमानं सुकृसं वाति, अभ्यस्यमानं निजरूपबोधप्रदं च सत्यस्य हितकरं तत् ॥१६॥
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जिसकी असाधारण शक्ति की प्रशस्ति ग्रथित करने में जब बृहस्पति जैसा बुद्धि एवं प्रतिभा का धनी अपने आपको अशक्त मानता है तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शेषनाग और ज्ञानी मुनिजन भी जिसको शक्ति का लोहा मानते हैं, तब विचारे अन्य साधारण विद्वानों की तो बात ही क्या है, ऐसा वह सर्वातिशायी देव-भाग्य जिसका तीनों लोकों के समस्त जीव पानी भरते हैं. जिसके समक्ष तृण के जैसे प्रतीत होते हैं, मुझ गरीब पर सदा दयालु बना रहे ।। १३ ॥
जिनकी अनुपम परमदया के प्रभाव से मैं अल्पज्ञ-मूर्ख भी इस पवित्र महावीर-चरित्र के चित्रण करने योग्य बना हं ऐसे वे मेरे परमदयालु विद्यागुरु श्री अम्बादास शास्त्री सदा जयवन्त रहें ॥ १४ ।।
कहां तो यह विशाल पवित्र चरित्र और कहां अल्पबोधवाली मेरी मलिन मति; फिर भी यह सन्मति प्रभु की भक्तिरूप अनुराग से जन्य पुण्य से पवित्र होकर उस विशाल पाबन चरित्र का वर्णन करने में प्रवृत्त हो रही ॥ १५ ॥
प्रभु के पापनाशक पवित्र चरित्र का वर्णन पुण्य की प्राप्ति का सबल कारण बनता है और जो इसका प्रयास करता है उसके लिए यह निज स्वरूप का बोधक होता है, अत: यह सब तरह से जीव के हित का ही साधक बन जाता है ।। १६ ।।