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वर्धमानचम्पू:
याणी भवेत्कस्यचिदेव भाग्यात,
साघोगुणोत्कीर्तनतः पवित्रा । मान्या च धन्या सुरसायंसेग्या
गुणाढ्यता पूज्यपदाप्तिहेतुः ॥ १७ ॥ कथं न शस्या गुणरागरम्या
वाणी कवीनां श्रवणाभिरम्या। श्यामा सुवर्णाभरणाश्रिय
सुसेव्यमाना च मनो मुवे स्यात् ॥ १८ ॥ यथांजनं क्षेत्रगतं तरुण्याः
विलासरत्याश्च यथांगहारः । धिनोति धियिष्यति काव्यमेत
प्रव्यं मदीयं च तथैव धीरान् ॥ १६ ॥
परम पुण्य के उदय से ही किसी-किसी कवि की वाणी साधुजनों के गुणों के वर्णन से पवित्र होती हुई मान्य और धन्य बनती हैं क्योंकि वह सुरस उपंत अर्थवाली होकर सुरसार्य सेव्य होती है-वाणी में पूज्यता का कारण उसका सद्गुणों से युक्त होना ही होता है ।। १७ ।।
गुणों के प्रति अनुराग रखने से सुहावनी एवं कानों को मानन्दप्रदान करनेवाली कविजनवाणी ललितपदावलीरूप सुवर्णाभरणों से विभूषित हुई श्यामा युवती के समान सेवित होने पर मन को प्रसन्न करने वाली होती है ॥ १८ ॥
जिस प्रकार तरुणी के नयनों में लगा अंजन एवं विलासवती नारी का अंगहार-अंगविक्षेप अच्छे-अच्छे धीरों को भी चंचलचित्तवाला बना देता है, उसी प्रकार मेरा यह नवीन काव्य भी रसिकजनों को चमत्कृत कर देगा ।। १६ ।।