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अहो
खलस्यापि महाप्रभायो, भियेव यस्यास्ति कविः सुवृत्तः । चकास्ति गोभिः सवितेव यस्य मोकला कविता कलंका ॥ २० ॥
वर्धमान चम्पूः
कविप्रकाशे खल एव हेतुयंतश्च तस्मिन् सति तत्प्रकर्षः । काचं विना नैव कदापि कुत्र मणेः प्रतिष्ठा भवतीति सम्यक् ॥ २१ ॥
दुरस्ति यस्मात् सुजनस्य दुष्टो, जनोऽथवा रगतो जनोऽस्मात् ।
इत्थं निरुक्त्या स गतः प्रसिद्धि, परोपतापी किल बुर्जनोऽयम् ॥ २२ ॥
देखो - दुर्जन का भी कितना बड़ा प्रभाव है कि जिसके भय से कवि पनी कविता में निर्दोष छन्दों की रचना करता है तथा सूर्य जिस प्रकार अपनी किरणों से चमकता है, उसी प्रकार उस कवि की कविता भी अकलङ्क होकर जगत् में चमकती है और सबके मन को मुग्ध कर देती हैं । ॥ २० ॥
कविजन जो प्रसिद्धि पाते हैं उसमें कारण दुर्जनों का सद्भाव ही है क्योंकि उनके होने पर ही उनका प्रकर्ष होता है। सच है--यदि काच न होता तो मणि की प्रतिष्ठा नहीं होती श्रतः मणि की प्रतिष्ठा में जैसे काच कारण पड़ता है उसी प्रकार कवि की प्रतिष्ठा में दुर्जन कारण पड़ता है ।। २१ ।।
सज्जन जिसके व्यवहार से दुःखित हो, अथवा जो दुष्टजन हो, किं वा जिससे साधारणजन भी दूर रहते हों वह दुर्जन है ऐसी यह दुर्जन शब्द की व्युत्पत्ति है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर दुर्जन परोपतापी होता है ।। २२ ।।