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वर्धमानचम्पूः
सम्यग्दशनशुबोधचरणं संधारयन्त्यावरास,
स्वस्थानोषितसद्गुणेश्च विविधराकर्षयन्त्यंगिनः । वैराग्योद्भवकारकहितवहनित्य वचोभिः धिताः, धन्यास्ते गुरयो दिगम्बरभृतः स्थुम भवार्हिराः ॥ ११ ॥
दुःसाध्यान्यपि यस्य वै सुघटितान्यत्रासतेऽक्षिभ्रमात्,
शानध्यानतपांसि यस्य' बयया सिसि लभन्ते पराम् । दुर्गम्याग्धिनगाटवीगतजनो येनव संरक्ष्यते, तस्मै सर्वविधायिने च जयिने देवाय नित्यं नमः ॥ १२ ॥
वे दिगम्बर मुद्रा के धारी गुरुदेव जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध ज्ञान एवं चारित्र को बड़ी सावधानी के साथ पाराधना करते रहते हैं, एवं अपने पद के अनुरूप विविध सद्गुणों के द्वारा मानव मात्र को श्रद्धा के स्थानभूत बने हुए हैं एवं संसार, शरीर तथा भोगों में आसक्त हुए जीवों को उनसे विरक्ति उत्पन्न कराने वाले सदुपदेशों द्वारा सम्बोधित करते रहते हैं मेरी संसाररूपी व्याधि को दूर करते रहें ।। ११ ।।
जिसको प्रांखों के इशारे मात्र से ही कठोर से कठोर भी दुःसाध्य कार्य क्षण मात्र में सुकर–सुसाध्य हो जाया करते हैं—प्रासान हो जाते हैं तथा जिसकी अनुकूलता के बल पर ही शान एवं ध्यान की सफल सिद्धि हो जाती है, ऐसे उस सर्वशक्तिमान् विजयी देव को जिसकी कृपा से-अनुकूलता से ही मनुष्य-प्राणी-दुर्गम्य समुद्र, पर्वत और भयंकर अरण्य-जंगल में पड़ जाने पर भी सुरक्षित बना रहता है, मैं नित्य नमस्कार करता हूं ॥ १२ ।।