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वर्धमानचम्मूः दुःखोस्पतिर्भवति नियमान्मोहनीयेन जन्तो
रासंध्यानं भवति च ततः कर्मबन्धश्च तस्मात् । एवं बोधप्रद इह न भवेवागमस्ते जिनेन्द्र !
कः संसारी निजहितरतः स्यात् कथं स्याच्च मुक्तः ॥६॥
स्वारमानवप्रकाशानिजहृदि समतावल्लरीविजुष्टाः
शिष्टाः शिष्टाभिराध्या विधृतशमदमागुणः सद्विशिष्टाः । हुष्टाश्चारित्रलब्ध्या विमलगुणगणान् निष्ठयाऽऽराधयन्तः सन्तः सन्तु प्रसन्ना मयि गुणगुरवः साधवः साधुवृत्ताः ॥१०॥
मोहनीय कर्म के उदय से मोहित हुया यह जीव नियम से दुःख का पात्र होता है, दुःखी होने से आर्त रौद्र ध्यान करता है, इससे नवीन कर्मों का बन्ध होता है, ऐसा, हे जिनेन्द्र ! आपका नागम कहता है । यदि ऐसा बोधदाता आपका आगम संसार में नहीं होता तो भला कौन संसारी जीव अपने हित साधन में लगता एवं कैसे वह कर्मबन्धन से मुक्त होता ? ।।३।।
जो साधुजन निज प्रात्मा के आनन्द के प्रकाश से अपने मन में समतारूपी बेल की वृद्धि को चाहना करते रहते हैं, सब प्रकार की अवस्थाओं में जो सन्तुष्ट बने रहते हैं, शिष्टजन जिनकी सेवा करते-करते नहीं अघाते, धारण किये हुए शमदमादि गुणों के कारण जो सत्पुरुषों में श्रेष्ठ माने जाते हैं, चारित्र की वृद्धि या उसकी प्राप्ति से जिन्हें हर्ष होता है एवं एकनिष्ठा से जो निर्मल गुणों की आराधना में दत्तचित्त रहते हैं ऐसे वे साधुजन जो अपने गुणों के विकास से महिमाशाली हैं और निर्दोष चारित्र की आराधना करने में तल्लीन हैं, मुझ पर सदा प्रसन्न रहें ।।१०।।