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वर्धमानवम्पूः यः कर्मभित् क्रोधकषायमुक्तः
स्वस्थोऽपि यः सर्वगतो, निरीहः। संश्चापि यो मोक्षपथस्य नेता
स अंशलेयो झवतान्मनो मे ॥ ६॥ तारुण्ये जयिना स्मरं विजयिन जित्वा प्रबुद्धात्मनः
वघ्र येन महौजसाऽतितरसा दृष्ट्वा जगदुःस्थितिम् । बीक्षाऽक्षाश्वबलप्रसारशमने
सुप्रग्रहप्रोपमा सः श्रीमास्त्रिशलात्मजो भवतु मे संसारतापापहः ॥ ७ ॥ स्याद्वादान्धौ सुविहितमहामज्जनात् या पवित्रा
हेयावेयप्रकटनपराऽऽविस्यतुल्योऽस्तदोषा । मिथ्यामागं नयपरशुना खंडयन्ती विपक्षम्, ___स्वस्यां पूर्णा जयतु सततं शारदा दारिकाऽस्य ॥ ८ ॥
जिन्होंने क्रोध कषाय से विहीन होते हुए भी कर्मशत्रु का विनाश किया, ग्रामस्थ होते हुए भी जो व्यापक हुए एवं इच्छाविहीन होते हुए भी जो मोक्षमार्ग के प्रणेता हुए, ऐसे वे त्रिशला माता के सुपुत्र श्री महावीर मेरे ज्ञान की रक्षा करें ।। ६ ।।
जिन्होंने संसार को परास्त करनेवाले विजयी कामदेव को भर जवानी में जीता एवं जगत की दुर्दशा को देखकर जिन्होंने स्वयं प्रबुद्ध होकर बड़े उत्साहपूर्वक शीघ्र इन्द्रियरूपी घोड़ों के बल को रोक देने में उत्तम लगाम के जैसी दगम्बरी दीक्षा धारण की, ऐसे वे त्रिशला माता के इकलौते लाडले लाल श्री बर्द्धमान प्रभु मेरे संसार के संताप को दूर करने वाले हों ।। ७ ।।
__ वह श्री महावीर प्रभु की दिव्यध्वनिरूप दारिका- पुत्री जो स्याद्वादरूपी महासागर में स्नान करने से पवित्र-निर्दोष हो चुकी है, और सूर्य के जैसी होकर जो हेय और उपादेय के सच्चे स्वरूप को प्रकट करती है, तथा सुनय-रूप परशु के द्वारा जिसने अपने से विपरीत एकान्त मिथ्यामार्ग का निरसन किया है एवं जो अपने आप में परिपूर्ण है, सदा जयवन्त रहे ।। ८ ॥