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वर्धमानवम्पूः
चन्द्रप्रभ नौमि यदीयकान्ति
विलोक्य चन्द्रोऽपि विलज्जितोऽभूत् । नो लज्जितश्चेत् किमसात्वेति
रात्रौ विदा मेति विचारयन्तु ॥ ३ ॥
नमामि शान्ति भवतापतप्तजनस्य तापापनुदे मुदे यः। प्रासारतुल्यामिव विष्यवाणों प्रवर्षयामास घनौधतुल्यः ॥ ४ ॥
यस्यान ध्योर्नखकान्तिरुज्ज्वलतया सत्पुष्पदामायते सेवार्थ समुपागतेन्द्रमणिभन्मोलिश्च फुल्लायते । श्रद्धाभक्तिभरावनम्रमविनां माला मिलिन्वायते सोऽयं वस्त्रिभुवः प्रभुविभुवरो वीरोऽवतादंहसः ॥५॥
मैं उन चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र को नमस्कार करता हैं जिनकी शारीरिक कमनीय कान्ति को देखकर चन्द्रमा लज्जित हो गया। यदि ऐसा न होता तो सोचिये-वह रात्रि में ही क्यों निकलता है, दिन में क्यों नहीं निकलता ? ।। ३ ।।
संसाररूपी पातप से अत्यन्त संतप्त हुए जीवों के उस संताप को दूर करने के लिए जिन प्रभु ने मेघ के रूप होकर दिव्यध्वनिरूप धनघोर जल की वर्षा की ऐसे उन शान्तिनाथ स्वामी को मैं नमस्कार करता हं ।। ४ ।।
जिनके दोनों चरणों की उज्ज्वलतम कान्ति सर्वोत्तम पुष्पों से ग्रथित हुई एक माला के जैसी प्रतीत होती है, सेवा के लिए उपस्थित हुए इन्द्रों के मणिरचित मुकुट इस माला के पुष्प के जैसे प्रतीत होते हैं, एवं श्रद्धा और भक्ति से भरे हुए भव्यजन ही इस माला पर गुंजार करते हुए भ्रमर के तुल्य प्रतीत होते हैं, ऐसे वे त्रिभुवनपति श्री बीरप्रभु आप सबकी पापों से रक्षा करें ।। ५ ।।