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वर्धमानचम्पः
प्रथमः स्तबकः
श्रियं क्रियाद्यस्य नतेन्द्रसेन्द्र
मौलिप्रभारंजितपापीठम् । बभौ सभाकामुरा जिराब
चच्युतं नमःखण्डमिवानजो वः ॥१॥ भोगक्षितिर्यपगता च यदा समस्ता
कर्मक्षितिश्च समजायत बोक्ष्य तान्तान् । तत्र स्थितानसुमतः खलु जोविकाथ
कृष्यादिकर्म कृपया समुपादिशद्यः ॥ २ ॥
नमस्कार करते हुए इन्द्र वीर देवों के मुकुटों की कान्ति से रंजित हुआ जिनका सिंहासन नक्षत्रमाला से शोभायमान गिरे हुए आकाशखंड के जैसा समवसरण में शोभित हुना, ऐसे वे आदिनाथ जिनेन्द्र पाप सबका कल्याण करें ।। १ ।।
जब भरतक्षेत्र के आर्यखण्ट से भोगभूमि की रचना समाप्त हो चुकी एवं कर्मभूमि की रचना प्रारम्भ हुई, तब प्रभु आदिनाथ ने प्राजीविका के साधनों के प्रभाव से संत्रस्त हुए जीवों को असि, मसि, कृषि, शिल्प, सेवा एवं वाणिज्य ऐसे प्राजीविका के साधनभूत छह कर्मों का उपदेश दिया ।। २ ।।