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वर्धमानबम्पूः
तस्मिन् काले खरतरकरैरुष्णगोस्तापिताना, छंदोवस्या विहरणबता दुर्गमेऽरण्यभागे । कोडणानां भवति नितरां संनिरुद्धा, निरुद्धं, संपद्धतागममम वापि न जाना ॥२..
ज्येष्ठे मासे मृगस्तावन्मृगतृष्णाविमोहितः । पिपासा कुलितस्तापात् तप्तः प्राणान् विमुञ्चति ।। ३ ॥
उपन्याकुलिता जीवा जलमिच्छन्ति शीतलम् । - घर्त्तािः सधनां छायां पेयभिम्याः कुलस्थिताः ॥ ४ ॥
महतोमोशी जगतो दुर्दशा व्याकुलतां च समीक्ष्य प्रकृतिरात्मनि परिवर्तनं विदधाति । सधस्तदा नमोमण्डलं सजलजलबराच्छादितं - --
.. --.दुर्गम अरण्य में मृग आनन्दप्रद विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ किया करते हैं, पर जब गर्मी का प्रकोप बढ़ जाता है तब उनकी क्रीड़ाएँ और जवान पुरुषों तक के गमनागमन बंद हो जाते हैं ।। २ ।।
ज्येष्ठ मास के सूर्य के चिलचिलाते हुए ताप से संतप्त हुआ मृग जब प्यास से आकुलित हो जाता है, तब वह बालुका के चमकते हुए कणों को पानी समझकर अपनी पिपासा बुझाने के लिए उस ओर दौड़ लगाता है, पर उसे वहां पानी नहीं मिलता । इस तरह पानी की प्राशा से दौड़ लगाता सूर्य की तीक्षण गर्मी से संतप्त हुआ वह मृग अन्त में अपने प्यारे प्राणों से हाथ धो बैठता है ।। ३ ।।
इस समय प्यास से संत्रस्त हुए जीव शीतल जल की चाहना करते हैं । गर्मी से-धूप से तपे हुए जीव सघन छाया की कामना करते हैं एवं धनपति अपने निवास-भवनों में रहते हुए ही शीतलपेय-ठण्डाई आदि की इच्छा करते हैं ।। ४ ।।
संसार की ऐसी भयङ्कर स्थिति का और उसकी व्याकुलता का निरीक्षण कर प्रकृति उस समय अपने आप में परिवर्तन लाती है । शीघ्र ही