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बर्षमानवम्पूः भवति च सरसाऽपि तेषां मृत्तिका शुष्कवतिकेव नौरसा, जायन्ते व जनानामपीतस्ततो गमनागमनेन विरहिता निर्जनवनप्रदेशा इव निगमादीनां पन्थानः प्राणप्रदेनापि समीरेणाप्यरिणेव तदा प्राणापहारिणा संभूयते। निखिला नभश्चराः स्थलचराश्चाधान्ता "स्त्राहि त्राहि" इति ध्वनि कुर्वन्तः स्वरक्षाकृते भावनां भावयन्ति तापेनासहान संत्रस्ताः सन्तः । तम्यतत्तोबस्तावत्तपति सपनो ग्रीष्मकाले यदेह,
जायेतास्मात् सुखविरहिता प्राणिनां क्लेशहेतुः । भोणी शुष्का भवति सरसां मृतिका नीरसा च, वाति प्राणप्रद इह तदा प्राणहारी समीरः ॥ १॥
- उनका जल सूख जाता है यहां तक कि उनकी सरस मृत्तिका सुखी वती के जैसी इकदम नीरस हो जाती है । गमनागमन से बड़े-बड़े नगरों तक की गलियां, राजमार्ग प्रादि स्थान शून्य-उजड़े हुए जैसे प्रतीत होने लगते हैं । प्राणप्रद वायु भी वरी के समान उस समय प्राणों का हरण करनेवाली हो जाती है एवं असह्य ताप से दुःखित हुए नभश्चर तथा स्थलचर त्राहि-त्राहि करते हुए अपनी रक्षा की चिन्ता में फंस जाते हैं ।
सत्य है
इस पृथ्वी पर ग्रीष्मकाल में जब सूर्य तीव्ररूप से तपने लगता है तो उस समय प्राणी वेचन हो जाते हैं, श्रातपजन्य दुःख का ही उन्हें अनुभव होता रहता है, पृथ्वी पर उष्णता के प्रभाव से शुष्कता आ जाती है, तालाबों की सरस मिट्टी भी नीरस हो जाती है एवं प्राणप्रद वायु भी प्राणहारी जैसा हो जाता है । ।। १ ।।