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वर्धमानपम्पः
सौभाग्यवध्यस्ति सतः स्वभावोऽ,
सतश्च वैश्वानरबत्तयोनः । मध्ये स्थितः काञ्चनशुद्धिमिवा,
मान्पोस्वयं काञ्चनवत् प्रबन्धः ।। ३२ ॥ देवागमगुरून् नत्वा नुस्वा विद्यागुरू स्तपा ।
श्री वर्धमानचम्प्वाल्य काव्यं नवचं विरज्यते ।। ३३ ॥ यदा खलु श्रेष्मो रविः स्वकरनिकरजगदिदं संतापयति तवा व्योमकान्तविहारिणां खगानां नमत्यन्मुक्तो बिहारः स्थगित्तः संजायते । संजायते च निरुता निरावरणप्रदेश कान्तारे स्वच्छंदोऽनुवृत्या विहरणशीलानामेणानामामोदप्रमोवमयी क्रीडा, चंक्रमणं च । अपि चोवन्याकुलितानाममितप्राणिगणानां पिपासापहारिणः सरोवराः सलिलविरहिता जायन्ते ।
सज्जन का स्वभाव सुहागा के जैसा होता है और दुर्जन का स्वभाव अग्नि के जैसा होता है । सो अग्नि और सुहागा के योग से जिस प्रकार सुवर्ण की शुद्धि होती है, उसी प्रकार सज्जन और दुर्जन के मध्य में स्थित हुना मेरा यह काव्य भी शुद्धि को प्राप्त करनेवाला होगा, ऐसी मैं भाशा करता हूं ।। ३२ ।।
देव, शास्त्र और गुरु को तथा विद्यागुरु को नमस्कार करके उनकी स्तुति करके मैं अब "श्रीवर्धमानचम्पू" नाम के नबीन काव्य की रचना करता हूं ।। ३३ ।।
जब नीष्मकाल का सूर्य अपनी तीव्र तप्त किरणों से इस जगत् को संतापित करने लगता है, तब अाकाशरूपी एकान्त स्थान में विचरण करनेवाले पखेरुओं का स्वेच्छानुकूल विहार बन्द हो जाता है । निर्जन प्रदेशवाले अरण्य में मनमानी उछल-कूद करनेवाले हिरणों की आमोदप्रमोद भरी झोडाएँ एवं इतस्तत: परिभ्रमण करना भी रुक जाते हैं। अगणित प्राणियों की जो कि प्यास से आकुलित हो जाया करते हैं, पिपासा को शान्त करनेवाले सरोवरों की पंक्तियां बिलकुल शुष्क हो जाया करती हैं