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वर्धमानचम्पूः
चिकीवितस्यास्य पशुडपेह नमामि दोषैकदृशं खलं तम् ।
घृणावशाद् यस्य कथा ममेयं, भवेत् कनिस्ठाऽपि मुद्दे वरिष्ठा ॥ २६ ॥
वचांसि रम्याणि महाकवीनां, पुरातनानां महताऽदरेण । मोsस्म्यहं काव्यमिदं सहायी, कृत्या क्षमो वक्तुमपि ह्यविशः ॥ ३० ॥
बला हसिष्यन्ति हसन्तु कामं, यतश्च तेषां हृद्वृत्तिरीवृक् । मुदं समेष्यन्ति तथापि सन्तो, निरीक्ष्य सव्यं चरितं ममेदम् ।। ३१ ।।
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हां, एक बात अवश्य है कि मैं निर्मातुम् इष्ट इस ग्रन्थ की विशुद्धि के लिए केवल दोषों पर दृष्टि रखनेवाले खलजन को इसलिये नमस्कार करता हूं कि उसकी दया से मेरा यह कथानकरूप ग्रन्थ निर्दोष बनकर छोटा सा होता हुआ भी उपादेय बन जाय ।। २६ ।।
यद्यपि मुझ में इतनी क्षमता नहीं है कि इस ग्रन्थ का निर्माण कर सकूं, परन्तु फिर भी प्राचीन महाकवियों के वचनों की सहायता से मैं इसका निर्माण कर रहा हूं ॥ ३० ॥
मेरे इस प्रयास को देखकर हो सकता कि खलजन - दुर्जन मेरी हँसी करें तो भले ही करें क्योंकि उनकी मानसिक वृत्ति ही ऐसी है, फिर भी मुझे विश्वास है कि संतजन --- विद्वज्जन इस मेरे नवीन चरित्र को देखकर अवश्य ही प्रानन्दित होंगे ।। ३१ ।।