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वर्धमानचम्पूः
हरिमुं रारिस्त्रिपुरारिप्रो हिरण्यगर्भः कलहंसवाहः लेन्द्रश्च संक्रन्दनपारयश्यश्चेन्द्रोऽपि शत्रुनंमुचेनं तुल्यः ॥ २६ ॥
वाणी यवीया सुमनोऽभिरामा प्रकाण्डजुष्टा सुरसार्थ सेव्या । लतेख करूपश्य इति सौ मनोऽनुकूला सततं जनेभ्यः ॥ २७ ॥
बलस्य निंदा न च सज्जनस्य, कृता प्रशंसेति
मयेत्थमत्र ।
परं यथैवास्त्यनयोः
स्वभावः,
प्रशितोंऽशेन गुणः किमाभ्याम् ।। २८ ।
सज्जन की तुलना में हरि और महादेव इसलिए नहीं आते हैं कि हरि मुर नामक राक्षस का और महादेव त्रिपुर नामक राक्षस का शत्रु है । ब्रह्मा "कलहंसवाह" - कलह लड़ाई झगड़े में संवाह श्रानन्द मानते हैं । देव संक्रन्दन - पारवमय है - संक्रन्दन - पारवश्य अच्छी तरह से रोने धोने में पड़े रहते हैं एवं इन्द्र नमुचि का शत्रु है परन्तु सज्जन न किसी का शत्रु है और न कलहप्रिय ही है ।। २६ ।।
सज्जन कल्पलता के समान सुखप्रद होता है क्योंकि उसकी वाणी सुमनोभिराम होती है, विद्वज्जनों को सुहावनी लगती हैं जब कि कल्पलता पुष्पों से अभिराम होती है । सज्जन की वाणी सु-रस- अर्थ - सेव्य अच्छे-अच्छे रसों एवं वाच्यार्थ से युक्त होती है और कल्पलता सुर- सार्थ सेव्य - देवों के समूह से सेवनीय होती है । सज्जन की वाणी प्रकाण्ड जुष्टा - विशिष्ट प्रतिभाशाली नरपुंगवों द्वारा प्रेमपूर्वक आदरणीय होती है और कल्पलता सुन्दर लने से सम्पन्न होती है, ऐसी कल्पलता के जैसी सज्जन की वाणी जीवों को मनोनुकूल सुख प्रदान करती है ॥। २७ ॥
सज्जन और दुर्जन के इस वर्णन से यह नहीं मानना चाहिए कि मैंने दुर्जन की निंदा और सज्जन की प्रशंसा की है। मैंने तो केवल इन दोनों के स्वभाव का अंशतः प्रदर्शनमात्र किया है - परिचयमात्र दिया है, बाकी मुझे उनसे लेना देना ही क्या है ।। २८ ।।