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वर्धमान चम्पू:
प्रमोभ्मत एवं नृपालमौलेः सिद्धार्थस्य विभयो यशः प्रतापः पराक्रमश्च विशेषतोऽवर्धतातोऽस्य बालकस्य नयनानन्यजनकस्याभिधानं वर्धमान इति सार्थक संस्थापितम् ।
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श्रभिषेकोत्सव वसानान्तरं शक्रो हरि गजमैरावताख्यं समारा राजमार्गेण संचरंस्ततः कुण्डनपुरं समाजगाम । पश्चाज्जिनजनन्याः समीपं समेत्य शची तं बालतीर्थंकरं तदभ्यर्णोऽह्नाय स्थापयामास । निखिलो निलिम्पपरिवारः स्वस्थानं प्रस्थितः ।
दिशः प्रसेदुश्च नमो बभूव विनिर्मलं तारकितं तदानीम् । खाता बबुमंद सुगंधीताः मार्गः समाः पंकविहीनाः ॥ ६ ॥
प्रभु के जन्म के प्रताप से नृपमीलि सिद्धार्थ का त्रिभव, यश, प्रताप, और पराक्रम दिन दूना और रात चौगुना बढ़ा । श्रतः नयनानन्दजनक इस बालक का नाम इन्द्र ने "वर्धमान" ऐसा सार्थक स्थापित किया ।
जब अभिषेक विधि समाप्त हो चुकी तब वापिस आने के लिए इन्द्र ऐरावत गजराज पर सवार होकर राजमार्ग से चलता हुआ कुण्डनपुर नगर में आया । शची जिनेन्द्र की माता के पास गयी और वहां जाकर उसने शीघ्र ही उस बाल तीर्थंकर को उनके पास रख दिया । इसके अनन्तर सब देवपरिवार अपने-अपने स्थान पर चला गया ।
प्रभु के जन्म के प्रताप से समस्त दिशाएं निर्मल थीं, प्रकाश भी निर्मल था। तारे उसमें दिखाई नहीं पड़ते थे । मंद शीतल सुगंधित वायु चल रही थी । समस्त पथ कीचड़ कंटक आदि से विहीन थे और सम थे ।। ६ ।।