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वर्धमान चम्पूर्ण
पूर्वकं शक्रेण निगदितम् । मुग्धे ! नेमे कपोलस्था जलबिन्दवः, किन्तु तीर्थंकरस्य निसर्गत एवाप्रतिम सौन्दर्यशालित्वा प्रेमल्योपेते गण्डप्रदेशे स्वद्धुतनासिकाभर संलग्ननां मुक्ताफलानामेवा कृतयः प्रतिविम्बिता इमाः सन्ति । एवं सम्बोधितया तया तद्देहो वस्त्राभूषणैरनयें सुसज्जीकृतः । हर्षोत्सवोऽपि विशेषतस्तत्र जातः । नन्द्यावर्ताभिधानस्य राजभवनस्योपरि समारोपिलो वजस्तथासिक बजीकान्त्यस्यतोर्थकस्य चिह्नस्वरूपः सिंहस्तेन संस्थापितः । तत्र तावदिदमेव प्रधानकारणम क्लोकयामः - तिरश्चां मध्ये यथा भवति केशरी विजनबिहारिस्वात् निर्भयतागुणोक्तत्वात् समविषमभूमिसमदृष्टिस्यात्, "विशिष्टशक्तिसम्पन्नत्वात् निजलक्ष्यसंपादने व तन्मयत्वात् खल्बसाधारणस्वायमपि सामसम इति हरिलाञ्छनाङ्कनव्याजेन त्रिलोकोदरवतिनां प्राणिनां प्रशोधनाचा विसर्गमस्य वैशिष्ट्यं प्रस्थापितम् ।
परिहास करते हुए इन्द्र ने मुसका कर उससे कहा – मुग्धे ! ये जल-बिन्दुएँ नहीं हैं जिन्हें तू रगड़-रगड़ कर पोंछ रही है। ये तो तीर्थंकर है-प्रतः स्वभावतः ही इनका शरीर अप्रतिम सौन्दर्यशाली होता है । इसलिए अत्यन्त निर्मल कपोल प्रदेश में तेरी पहिरी हुई नथ के मोतियों के ये प्रतिबिम्ब हैं जो इस तरह यहां झलक रहे हैं। इस प्रकार अवगत होकर शची ने फिर प्रभु के शरीर पर वस्त्राभूषण पहिराये । इन्द्र ने वहां हर्षोत्सव भी विशेष रूप से किया । नन्द्यावर्त नाम के राजभवन के ऊपर जो ध्वजा समारोपित की गई थी वह सिंह के चिह्न से अलंकृत थी । अतः इस तीर्थंकर के श्री महावीर प्रभु के जो कि इस अवसर्पिणीकाल के अन्तिम तीर्थंकर थे चरणों में चिह्नस्वरूप इन्द्र ने सिंह स्थापित किया । इस चिह्न के स्थापित करने में मैं तो यही कारण समझता हूँ कि जैसे तिर्यञ्चों में सिंह प्रधान होता है और वह निर्जन अरण्य में विचरण करता है, उसे किसी का भय नहीं होता है । समविषम भूमि में वह समष्टि वाला रहता है, विशिष्ट शक्ति सम्पन्न होता है, और अपने लक्ष्य के सम्पादन में तन्मय होता है, उसी तरह यह पुत्र भी पुरुषों के बीच अनोखा हो मानव होगा । यही बात बिना कुछ कहे ही इन्द्र ने सिंह के चिह्न के ब्याज द्वारा समस्त त्रिलोकवत प्राणियों के समक्ष प्रकट की है ।