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धधंमानचम्पूः
मन्दकियान्दोलितशाटिककाञ्चलस्छलेन व्यजनं गृहीत्वा । रणे श्रमार्तान् श्लथगात्रवन्धान तान् वीक्ष्य पातं तनुते समीरः ॥ ५२ ॥
यत्र व निवसन्ति प्रतिदिशं रसिकावतंसा महोन्नतांसा दयादम स्यागमनोभिरामा रामान्विताः । येषां दुःखितक्याधिसानो पुरुषार्यविसानां प्रमोदमसानां चतुराणां सुक्तानां यशसाऽभिभूतं सुकृतं दासायते ।
__ पादौ यदीयौ परिचुम्थ्य या रजःकणरपि महy सुरत्नस्थानं प्रलभ्यते । सत्यं-पुण्यात्ममा संसर्गतो यदि जघन्योऽपि मान्यतायाः पदं लभेत नात्यद्भुतं किञ्चिवत्र ।
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जब समीर-वायुमण्डल-कामदेव के साथ हुए युद्ध से थकित शरीरवाला और शिथिल अंगोंवाला इस महिलामण्डल को देखता है तो वह अपनी मन्द-मन्द गति से इनकी शाटिका के अञ्चलरूप पंखे को हिला कर इस पर हवा करने लगता था ।। ५२ ।।
इस नगरी में प्रत्येक दिशा में अपनी-अपनी धर्मपत्नियों के साथ रसिकजन शिरोमणि महाजन जिनके स्कन्ध बलिष्ठ हैं और जिनका चित्त दया, दम एवं त्याग से सुशोभित होता रहता है, रहते हैं । गरीब दीन दुःखित प्राणियों पर जिनकी कृपा बरसती रहती है । पुरुषार्थ प्रधानी ये महाजन सदाचार से मंडित रहते हुए सदा प्रानन्दित रहते हैं । इनके यश के मागे पुण्य भी दास के जैसा बना रहता है ।
जिनके सुकुमार पादतलों को चुम्बित करके रजःकण भी जहां वेशकीमती रत्नों का स्थान प्राप्त कर लेते हैं । सच है पुण्यात्माओं के संसर्ग से यदि जघन्य पदार्थ भी मान्यता का स्थान ग्रहण कर लेता है तो इसमें भचरज की कोई बात नहीं है ।