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कचेषु कार्यं च कुचेषु बाईयं, कटिप्रदेशेषु च नास्तिवादः ।
कटाक्षपातावसरेऽक्षियुग्मे,
परस्पर स्नेहनिबद्धचित्ताः
चेतोहरा
वर्धमानचम्पूः
विरागता तत्र परं न चित्ते ॥ ४६ ॥
बग्धस्मरोज्जीवन दृष्टिपाताः ।
कामकलाप्रवीणाः,
वीणास्वरास्ते च कथं न बंधाः ॥ ५० ॥
यदा च ते स्वाङ्गमनङ्गरङ्गोद्गमप्रसङ्ग ेन विभाव्य भग्नम् । जिघांसयायास्तसमस्तशंका समारभन्ते कदनं स्मरेण ।। ५१ ।।
यहां की महिलाओं के केवल केशों में ही कृष्णता थी, केवल कुचों में ही कठिनता थी, केवल कटिप्रदेश में ही नास्तिवाद था - - पतलापन था, और केवल कटाक्षपात के समय में ही विरागता - विशिष्टराग का हो जाना – था, पर इनके चित्त में कृष्णता आदि नहीं थीं । ४६ ।।
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यहां महिलाएँ आपस में हिलमिल कर रहती थीं । इनके दृष्टिपात में इतना बल था कि दग्ध हुआ कामदेव भी जीवित हो जाता था । इनका स्वर वीणा के स्वर समान था । घिस को लुभानेवाली ये महिलाएँ कामकला में बड़ी प्रवीण थीं ।। ५० ।।
जब कामदेव इन्हें परास्त करने के लिए उतार होता तो ये उसे नष्ट करने की इच्छा से उसके साथ युद्धरत हो जाती और उसे परास्त कर देती थीं ।। ५१ ।।