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वधमानचम्पू:
धर्यक्षमाशीलवयाप्रमोदमाध्यस्थमंत्र्यादिगुणा प्रमेया । कीडन्ति यासां हृदयेऽनुरक्ता मिथो विपक्षं परिमर्वयन्तः ॥ ४५ ॥ बग्धोऽपि यन्नेत्रसुधाब्धिमध्येऽ
वगाह्य मारः खलु पंचयाणः । भिनत्त्यसंस्थो हृदयं जनाना
मनेकशो यत्र स कामुकानाम् ॥ ४६ ।। प्रकृष्ट सौन्दर्यजुषो बलिष्ठाः,
साहित्यसंगीतकलाप्रवीणाः। प्रमाणमेयव्यवहारविज्ञाः,
पतिप्रियास्तन्वि! कयंन वंद्याः ।। ४७ ॥ मितव्ययेनाजितरिविक्षः
दानप्रदाने बहशो दधानाः । दाराश्च से तन्धि ! कथं न शस्याः,
मुक्तावलीचुम्बितचारुकंठाः ॥ ४८ ।।
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जिनके हृदय में परस्पर अनुरक्त हुए धैर्य, क्षमा, शील, दया, प्रमोद, माध्यस्थ एवं मैत्री आदि अनेक गुण अपने-अपने विपक्ष को मदित करते हुए सदा खेलते रहते हैं ।। ४५ ।।
जिनके नेत्ररूपी अमृत समुद्र में स्नान करके मृत हुआ कामदेव भी जहां उज्जीवित होकर अपने पांचवाणों द्वारा कामुकजनों के हृदय को विदारता रहता है ।। ४६ ॥
यहां का महिलामण्डल बलिष्ठ, सौन्दर्यस म्पन्न, साहित्य और संगीत. कला में प्रवीण, प्रमाणप्रमेयव्यवहार में निष्णात एवं पतिप्रिय था, अतः हे प्रिये ! वहां का जनमण्डल इसे पूज्य मानता था ।। ४७ ।।
यहां का महिलामण्डल इतना अधिक व्यवहारज्ञ था कि खर्च तो परिमित करता था और दान प्रदान करने के लिए खर्च में से बचाकर रखता था एवं समय समय पर दान आदि धार्मिक कार्यों में सहायक होता रहता था । इसी कारण पुण्यप्रभाव से लभ्य मुक्तावली–मोतियों की मालाएँइनके सुन्दर कण्ठों को चुम्बित करती रहती थीं ।। ४८ ।।