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वर्धमानचम्पूः
कमनीयकषिताकामिनीकान्तकविप्रियास्तु अन्यन्ते यत्-- गृहाणि नेतान्यभितोऽ चलाङ्गाः,
भषारिमालाः कृतसभिश्वेषाः ।। विभुलोकोवलनेत्रभीनान्,
जिघृक्षयाऽतिष्ठन् यत्र तत्र ॥ ४२ ॥ चित्राषिताभिस्त्रिदशाङ्गनाभि
मनोऽस्य नीतं विकृतेन मार्गम् । का मेऽत्र गयेस्यवधार्य मुग्धा,
यत्राङ्गनाऽखिङ्गति न स्वकान्तम् ।। ४३ ॥
लावण्यतारुण्यभराषनम्राः,
कशासकान्ता तरलास्तरुण्यः । यत्र स्खलद्भिश्च पदैःप्रयान्स्यो,
___वहन्ति नो भूषरणभूरिभारम् ॥४४ ।।
कविता कामिनी के कान्त कविजन तो इस नगरी के उन सौधों को अपनी कल्पना में इस प्रकार चित्रित करते थे कि ये सौध नहीं हैं किन्तु अचल स्थिति में बैठे हुए बगुले हैं; जो कि देखनेवालों की नेत्रपंक्तिरूप मछलियों को पकड़ने के लिए इधर उधर दिखाई पड़ रहे हैं ।। ४२ ॥
इन भवनों में रहनेवाली मुग्धा नवोढाएँ अपने प्रिय पतिदेव का आलिङ्गन इस अभिप्राय से नहीं करती हैं कि ये चित्रगत देवाङ्गनाएँ ही जब इनके मन को विकृत बनाने में असफल हो रही हैं तो फिर हमारी क्या गिनती है ? ।। ४३ ।।
इनमें रहनेवाली तरुणियां भूषण इसलिए नहीं पहनती हैं कि जब हमसे लावण्य एवं तारुण्य का भार ही वहन नहीं होता है तो भूषणों का भार कैसे सहन हो सकेगा? ।। ४४ ।।