________________
वर्धमानवम्पू:
37
नयनाभिरामाणि धमकानां समुन्नतानि शरवभ्रशुभ्राणि वरभवनानि पतंगसंतापहृतये प्रयुक्तः प्रसारितातपत्ररिव ध्वजांशुकैविभाति, लसन्ति च यस्याम्सौधा मयङ्कोपललालितेलाः,
प्रोत्तुङ्गशृङ्गः परितः परोताः । विधूद्गमे मुक्तपयः प्रयाहाः,
हिमालयस्येव सुखण्डमालाः ॥ ३६ ।। लताप्रतानः प्रततप्रसूनर्जालोदगमर्यन्त्रचयरनेकः ।
पत्रत्रिपातोत्थचलत्तर: कुल्याकुलमा लगायः ४." विशोभिताऽऽक्रीडचयः सनाथाः पवित्रवृत्ताञ्चितदारवन्वाः । स्वर्गप्रदेशा इव ते मनोज्ञा लसन्ति सर्वसुखाः सचित्राः ।। ४१ ॥
वहां धनिकजनों के नयनों को लुभानेवाले श्रेष्ठ भवन थे । वे बड़े उन्नत थे । शरदकालीन बादलों के समान वे धवल थे । उन पर ध्वजाएँ फहराती थीं । अतः देखनेवालों को ऐसा ख्याल पाता था- 'सूर्य के संताप के भय से ही मानो इन भवनों ने अपने ऊपर इन ध्वजातों के बहाने से क्या छत्ते तान रखे हैं ?' यहां के इन सौधों की दीवारों में
. चन्द्रकान्तमणियां खचित थीं । इनके शिखर बड़े उन्नत थे । अतः जब रात्रि के समय चन्द्रमा का उदय होता तब इनसे पानी का प्रवाह झरने लगता । इसलिए ऐसा प्रतीत होने लगता कि ये सौध नहीं हैं, बल्कि हिमालय के खण्ड ही हैं ।। ३६ ।।
इन सौधों में बगीचे भी थे। उन बगीचों में छोटी-छोटी बनावटी नदियां भी थीं । जगह-जगह फव्वारे लगे हुए थे । उनसे जल निकलता रहता था। जब पक्षिगण जल पीने के लिए इन कूल्याओं के पास आते और उनके पंखों की हवा से इनमें चंचल तरंगें उड़तीं तब ऐसा लगता कि ये कहीं बाहर जाने के लिए मचल सी रही हैं । इन भवनों में रहनेवाली स्त्रियां पवित्र चालचलनवाली थीं । इन सौधों में सब ऋतुओं की सामग्री भरपुर थी, ये मनोज्ञ एवं पवित्र थे अतः ये स्वर्ग के प्रदेश जैसे प्रतीत होते थे ।। ४०-४१ ।।