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वर्धमानम्पू
विशालणार सा वैशादी शोकनमा किलोका नमस्तलस्प शिसुरम्य सौधान्विता स्वां पश्यतां जनानामन्तःकरणं संभ्रान्तं त्रिधाति । सुधाधवलितबहिरन्तर्भागास्ते सौधा: सफलस्य सुधाप्रसूतेः सकलाः कलांशा इव प्रतिभान्ति । गवाक्षजालाङ्कित भव्य भिसयस्ते नक्षत्रमालाङ्कितनभः प्रवेशा किमिमे इत्यारेकां जनयन्ति पथिकानां विश्रामार्थमागतानाम् । तुषार शुभ्रोज्ज्वलकुड्य सालेन बृहदाकारेणावेष्टितामिमां चतुर्वद्गोपुरद्वारेण पातालतलान्निर्गतोऽहीशः कंचुकाव्य एव संरक्षति कि प्राकारच्छलेनेत्थंभूतामारेकां विवधती पश्यतामिपं विभाति ।
विशाल परकोटे से घिरी हुई उस बंशाली नगरी ने अपनी शोभा से देवताओं के निवासभूत स्वर्ग को भी तिरस्कृत कर दिया था। इसमें जो सोध -- धनपतियों के निवासभवन - या राजमहल थे वे नभस्तलस्पर्शीबहुत ऊंचे थे और सुरम्य थे। जो एक बार भी इस नगरी को देख लेता बह चकित हो जाता । समय-समय पर इन सौधों के भीतर बाहर सफेदी होती रहती । अतः ये चन्द्रमण्डल के सम्पूर्ण कलांश हैं क्या ?' ऐसा प्रतीत होता था । गवाक्षों - खिड़कियों से युक्त उन सोधपंक्तियों की दीवालें बाहर से आये हुए पथिकजनों के लिए ऐसा सन्देह उत्पन्न कर देती थीं कि ये सौधों की भित्तियां नहीं हैं किन्तु नक्षत्रमाला से अंकित ये नभ प्रदेश ही हैं । उस नगरी का जो विशाल कोट था वह तुषारपात से शुभ्र बना रहता था । प्राकार इसका बहुत बड़ा था | उस कोट से यह नगरी घिरी हुई थी। इसके बड़े-बड़े चार द्वार थे अतः देखनेवालों को ऐसी शंका हो जाती थी कि यह कोट नहीं है किन्तु कोट के छल से इस नगरी की रक्षा पाताल से निकलकर कंचुकी से प्रावृत हुआ शेषनाग हो कर रहा है।