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वर्धमानधम्पू:
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मुनिजनविहारपूतायामस्या वैशाल्यामन तद्गृहं यत्र न सन्ति वृद्धाः,
वृद्धा न ते ये च न सन्त्युदाराः । उचारता सापि विशालतायाः,
विशालता सापि वयानुबन्धा । ३६ ।। गहे गहे धार्मिकभावभूषाः,
विनम्रता मूतिनिभाः स्थदारान् । स्वदारकान् किकरत्तिभाओ,
जनान् जना श्राद्धयर्ष अवन्ति ॥ ३७॥ गृहे महे तत्र वसन्त्युबारा:,
दाराश्च ते सन्ति च दारकायाः । ते दारकाश्चापि च कण्ठहाराः,
हाराश्च ते सन्ति च नेत्रहाराः ॥ ३८ ॥
मुनिजनों के बिहार से पवित्र हुई इस वैशाली नगरी में
कोई ऐसा घर नहीं था जिसमें वृद्धजन न हो और कोई ऐसा वृद्ध भी नहीं था जो उदारता से भरा न हो। वह उदारता भी ऐसी नहीं थी जिसका क्षेत्र विशाल न हो और वह विशालता भी ऐसी नहीं थी जो सर्वजीवानुकम्पा से सनी न हो ।। ३६ ।।
घर घर में धार्मिक भाव ही जिनके प्राभूषण हैं ऐसे मानवरत्न निवास करते थे और वे विनम्रता की मूर्तिस्वरूप थे । वे अपनी धर्मपत्नियों को एवं अपनी सन्तानस्वरूप बाल-बच्चों को तथा परिचारक जनों को धर्म की राह पर चलने का उपदेश दिया करते थे ।। ३७ ।।
वहां प्रत्येक घर में ऐसा महिलामण्डल था जो उदारता के वरदान से विभूषित था। उनकी गोद प्यारे बाल-बच्चों से हरी भरी रहती थी। बच्चे भी उनके ऐसे थे जो उनके गले के हारस्वरूप थे अथवा जिनके कण्ठ हारों से शोभित थे ऐसे थे, तथा वे हार भी ऐसे थे जो देखनेवालों के नेत्रों को लुभाते थे ।। ३८ ।।