________________
34
बर्धमानबम्पू: यत्र च ब्राझे मुहूर्ते उत्थाय प्रतिविनं जनाः केऽपि "कोऽहं, कि च मे स्वरूप" मित्थं विचारयन्ति । केऽपि श्रुतां मुनिराजवाणी कर्मकृपाणी संसारजलधिसंतरणे द्रोणीमिय समभ्यस्यन्ति । कुर्वन्ति च केऽपि सद्भावभरावनम्रा पालोचनां दुर्भावविमोचनकारिणी, केऽपि सामायिक केऽपि च प्रत्याख्यानम् ।
कि च--विहारकाले विहरतां मुनीनां दिव्योपदेशान् परिपीय सत्रत्या भन्याः केचन पापाचार प्रवृत्तितः समुद्वेजिता जैनेश्वरी दीक्षामक्षाश्वबलप्रसारशमनदक्षशिक्षामावाय क्लेशकर्मविपाकाशयान संवरपूर्वक निर्जरयितुं झटिति तपसि द्वादविधे स्वात्मानं संलग्नं कुर्वन्ति । कश्चिच्चोपासकप्रतानि गृह्यन्ते । प्राद्रियन्ते च कश्चिन्मूलगुणाः ।
जहां पर नाह्ममुहूर्त में उठकर प्रतिदिन वहां के कितने ही जन "मैं कौन हूं, मेरा क्या स्वरूप है" ऐसा विचार करते हैं । कितने ही जन सुनी हुई मुनिराजों की वाणी का जो कि कर्मों को काटने के लिए कृपाणीतलवार- जैसी है पीर संसार रूप समुद्र से पार कराने के लिए नौकाजहाज ---के तुल्य है बारम्बार अभ्यास करते हैं। कितने ही जन सद्भावों से प्रोतप्रोत होकर दुर्भावों को दूर करनेवाली प्रालोचना करते हैं। कोई कोई जन सामायिक और कोई कोई प्रत्याख्यान करते हैं ।
तथा-वहां के कितने ही भव्यजन विहारकाल में विचरण करनेवाले मुनिजनों के मुखारबिन्द से निर्गत धार्मिक उपदेशों को अच्छी तरह श्रवण कर मनन कर और निदिध्यासन कर पापाचार प्रवृत्ति से भयभीत होकर मुंनिदीक्षा धारण कर लेते, एवं रागद्वेषरूपी क्लेश को, ज्ञानावरणादिरूप कर्मों को और इनके विपाकाशय को संबरपूर्वक निर्जरण करने के लिए बारह प्रकार के तप तपने लगते । कितने ही जन श्रावक के बारह प्रतों को धारण कर लेते तथा कितने ही जन श्रावक के मूलगुणों का पालन करने लग जाते।