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बभ्रमामयम्पूः
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पत्र च पदे पदे ध्वजमालालङ्ग कृता जिनागाराः, प्रपा, गोचरभूमयो बजाश्च विद्यन्ते । यत्रालिमालाध्वनिलाञ्छनेन सरोवरेषु प्रभातवाताहतिकम्पमाना सभयेव सरोजमाला "हे प्रार्यपुत्र ! त्वया रात्रिः कथं कुत्र व्यतीतेति" रवि प्रतिदिनं पृच्छति । पादाञ्चलस्पर्शमवाप्य हष्टाऽप्यंमोजिनी मिलिन्दनाथं निशावसाने जाते सति रिरंसयालिङ्गति । यत्र च हिमाशामुद कृत दसपरागमूल्या सरोजिनी ताँस्तान् नृत्यकलाविलासान् प्रभजनान्नित्यं समभ्यस्यतीव भाति । यत्र च मे पादाग्राहतितस्त्वयोवं कामं न जातं, किन्तु निशासपत्न्याः सहवासत इत्युक्त्वेव सरोजिनी स्वगृहात्षट्पदमनाय निष्कासयति ।
वैशाली में जगह-जगह ध्वजात्रों की पंक्तियों से अलंकृत जिनमन्दिर थे । पद-पद पर प्याऊएँ—पानी की शालाएँ थीं । बज-गाय आदि जानवरों के स्थान थे और गोचर भूमियां थीं । सरोवर भी थे । उनमें कमल खिले रहते थे । जब प्रातःकाल होता तब प्राभातिक वायु से कम्पित हुई पंकजमाला मानो भयभीत सी होकर अपने पतिदेव रवि से यों पूछा करती "हे आर्यपुत्र ! आपने रात्रि कहां और किस प्रकार व्यतीत की। रात्रि का अवसान हो जाने पर भी जहां प्रागत मिलिन्दनाथ के चरणों का स्पर्श पाकर मुदित हुई अंभोजिनी उसके साथ रमण करने की इच्छा से ही मानो उसका प्रालिङ्गन करने लगती । तथा जहां पर अपने पतिदेव चन्द्रमा को प्रसन्न करने के लिए सरोजिनी परागरूपी मूल्य देकर वायु से उन-उन नृत्यकलारूप विलासों को सीखती रहती है तथा- जहां पर "मेरे पैरों के प्राघात से तुम में यह कालापन नहीं पाया है, किन्तु मेरी सौत निशा के साथ सहवास करने से ही आया है" ऐसा उलाहना देकर सरोजिनी अपने घर से षट्पद-भ्रमर-को बाहर कर देती है। अपने पास नहीं आने देती है।