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वर्धमानघम्पू: वातुं निषेधयन्तीय प्रतीयते । यत्राकृष्टपच्याः कलमाः पदे पवे लभन्ते । क्वचित् क्वचिच्छोमन्ते च पुण्ड्वनरुपलक्षिता वारपोषणरतानां कृषीवलानां केवाराः । गोधनराजिविराजिता प्रामा मोदित मानवान्तःफरणा अशरारण्यभूताश्चतसृसु विक्षु वृत्या परिवृता लसन्ति । सदाचारविशिष्टशोमः सर्वमनोकूलः प्रकृत्यामद्रमावभरितः श्रमपरिषशाद्वातादिविकारशून्यविधिकर्युतास्ते शुश्तानपानसामग्ग्राः सुलमत्वेतान्यपथिकेभ्यः स्पृहणीया भवन्ति ।
भ्रमररूपी विटों को व्यभिचारियों को अपने अङ्ग का स्पर्श तक करने का निषेध करती हुई सी होती थी। इस नगरी में विना बोये धान्य (पसाई के चाक्ल) जगह-जगह मिलते थे। कहीं-कहीं स्त्री-बच्चों के पोषण करने में दत्तचित्त किसानों के इक्षुषों से भरे हुए सेत सुरक्षित होकर चित्त को आकृष्ट करते थे।
यहां के ग्राम गोधन से परिपूर्ण थे । इनके चारों ओर बाढ़ थी । ये ग्राम देखनेवालों के चित्त को बड़े सुहावने-लुभावने लगते थे । जिन्हें रहने को कहीं जगह नहीं मिलती थी उन्हें यहां जगह मिल जाती थी।
यहां जो मजदूर वर्ग रहता था वह सदाचारी और हरएक व्यक्ति के अनुकूल श्राचार-विचार वाला था, स्वभावतः भद्र प्रकृति सम्पन्न था एवं परिश्रमी होने के कारण वातादिजन्य विकारों से रहित था। स्वस्थ शरीरवाला था।
पथिक जनों को यहां शुद्ध घृत, अन्न पान आदि सामग्री सुलभ थी । प्रतः वे अन्य पथिक जनों के लिए स्पृहणीय थे ।