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मनः
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प्रचण्ड दोर्दण्ड विराजितोऽसौ सुपर्ववगैरपि गीतकीर्तिः । महीं स्वकीयां करिणों चकार स्वविक्रमविक्रमशालिमुख्यः ।। ३४ ।।
राजनीत्यवतारोऽयं धर्मनीत्यनुसारतः । पालयत् स्वां प्रजां सर्वा धर्मतातोऽअनिष्ट सः ॥ ३५ ॥
हवेस्तड गैस्तटिनीतरङ्गः स्तत्पल्वलैः पल्लवित पार्श्वभागंवा वैशाली धराधरेषु क्षचयंश्च समन्तादुपचीयमाना स्वश्रिया जनानां मनांसि प्रीणयन्ती निलिम्पानामपि नगरीमरावतीं तृणाय मन्यते स्म । प्रभातदाताहतिकम्पमानोत्पल फुल्ल राजियंत्र रसक लुब्धानलिजाल्मान् स्वाङ्ग
सिद्धार्थनरेश के बाहुयुगल प्रचण्ड बलशाली थे, देवता तक भी इनके यवन किया करते थे । वे पराक्रमशालीक्तियों में भी विशिष्ट पराक्रमशाली माने जाते थे । समस्त पृथिवी को इन्होंने करिणी-टंक्स देनेवाली - बना दिया था, अर्थात् विशिष्ट धनधान्य से उसे भरपुर कर दिया था || ३४ ॥
वे सिद्धार्थनरेश राजनीति के साक्षात् अवतार थे; परन्तु फिर भी उन्होंने धर्मनीति के अनुसार ही अपने प्रजाजनों का पालनपोषण किया श्रतः प्रजा उन्हें अपना धर्मपिता मानती थी ।। ३५ ।।
ह्रदों से - तडागों से - और नदियों की तरङ्गों से तथा पल्वलों से जिसका पार्श्वभाग पल्लवित - व्याप्त – शोभित हो रहा है ऐसी यह बंगाली नगरी सब ओर से पर्वतमालाओं एवं वृक्षराजियों से सुशोभासम्पन्न थी । यह नगरी इतनी अधिक सुहावनी एवं मनोरम थी कि देवों की नगरी अमरावती भी इसके समक्ष तृण के जैसी नगण्य प्रतीत होती थी। जहां पर प्राभातिक वायु से कम्पित कमलश्री मानो रस-लोलुपी