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वर्धमान चम्पूः
यत्र च लब्धावकाशा जना सुदर्शनज्ञानवृत्तलध्यर्थं प्रयतन्तः सन्ततित्रिवतिशेष विधिप्रबन्धा भवन्ति । शिक्षयतीव येषामुरःस्थलराजितं रत्नत्रयात्मकं मात्यमन्येभ्य इध्येध्य इदमेव न भवत्यात्मतुष्टिरन्तरा रत्नत्रय रत्नवृन्दैः ।
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यत्र च हरेः किशोरका इव किशोरकाः पण्यवीथ्यां रममाणा धूपासिंधूसरितोऽपि विलोभनीयाकृतयो भवन्ति । भवति च पथिकानां वृन्दः सुन्दराङ्गानिमान् परिवीक्ष्य रजोभिराच्छावित हीरका बीमिये मान् वाचामगोचर संतुष्टो मुदमाप्नोति ।
यत्र स्मशे ह्येव निपातहेतुः,
प्राणान्तकः पितृपतिश्च पाप्मा ।
भयप्रदश्चातक एवं यात्रा
परोऽस्ति पण्डो मन एव नान्यः ॥ ५३ ॥
जब यहां के निवासीजन फुरसत में होते हैं तो वे रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन श्रादि प्राप्त करने की चर्चा करते हैं और जब वे त्रिवर्ग की सिद्धिरूप ऋद्धि की वृद्धिवाले हो जाते हैं तो अपने-अपने कर्मों के बन्धन को शिथिल करने में जुट जाते हैं । रत्नत्रयरूप रत्नमाल से सुशोभित इनका वक्षःस्थल अन्य धनिक जनों के लिए यही शिक्षा देता है कि इन बनावटी रत्नों से आत्मा की तुष्टि होने वाली नहीं है । वह तो सम्यग्दर्शनादिरूप रत्नत्रय से हो होगी ।
जहां की गलियों में शेरों के बच्चों के जैसे बच्चे खेला करते हैं । यद्यपि उनका शरीर उस समय धूलिधूसरित होता है तथापि उनकी प्राकृति चित्त को लुभाने में कसर नहीं रखती है । पथिकजन जब वहां होकर निकलते हैं तब वे रजःकण से आच्छादित हीरकादि रत्नों की तरह इन बालकों को देखकर अनिर्वचनीय प्रह्लाद का अनुभव करने लगते है |
उस नगरी में पतन का कारण यदि कोई था तो वह कामदेव ही था । प्राणों का अपहरणकर्ता केवल यमराज ही था, भयदाता केवल पाप ही था । याचना करने में तत्पर केवल चातक ही था तथा मन ही नपुंसक
था ।। ५३ ।।