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वर्धमानत्रभू
द्वेषः परं मण्डलमंडलेषु, करेणुकंठीरवयो विरोधः ।
मियो विवादः प्रतिवावियावि, प्रवावकाले, न जनेषु तत्र ॥ ५४ ॥
यत्र च वृषभालाराधका अपि जना न वृषभाङ्काराधकाः, अजितानुयायिनोऽपि नाजितानुयायिनः, अभिनन्दनपक्षपातिनोऽपि नाभिनंदन पक्षपातिनः, पद्मोपासका अपि न पद्मोपासका गृहे गृहे दरीदृश्यन्ते । किमधिकं तत्र वक्तव्यम् । विरोधकर्माकुशला अपि न विरोधकर्मकुशलास्ते।
यदि वहां द्वेष था तो केवल कुत्तों में ही था । विरोध था तो वह सिंह और हाथी में ही था। प्रवाद-विवाद था तो वह केवल वादी और प्रतिवादियों में ही था । अन्यत्र प्रजाजनों में यह सब कुछ नहीं था।।५४।।
ऐसे ही मानव वहां पर प्रत्येक घर में दिखाई देते थे जो वृषभाङ्क के-आदिनाथ के-पाराधक होते हुए भी उनके पाराधक नहीं थे तो इसका परिहार ऐसा है कि वे वृषभाङ्क-महादेव के भाराधक नहीं थे । इसी तरह अजितानुयायो...अजिसनाथ प्रभु के अनुयायी होने पर भी वे अजितांनुयायी-शत्रु के पक्षपाती नहीं थे । अभिनन्दन प्रभु की मान्यतावाले होने पर भी चे अभिनन्दन के पक्षपाती नहीं थे अर्थात् अपनी मान, प्रतिष्ठा, सन्मान की लालसा रखनेवाले नहीं थे । पद्मोपासक होने पर भी-पद्मप्रभ की सेवा पूजा आदि करने में रत रहने पर भी वे पोपासक नहीं थे--पद्मा-लक्ष्मी की सेवा पूजा आदि को ही सब कुछ मानने-- वाले नहीं थे । और अब अधिक क्या कहा जावे ? वहां के निवासी मानवविरोधकर्म में अकुशल होने पर भी विरोध-पक्षियों को पिंजड़े प्रादि में रोककर रखनेरूप कार्य में कुशल नहीं थे ।