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वर्षमानसम्पू:
किञ्च-यस्य राज्ञः प्रचण्डदोर्दण्डभयेन पलायमानारिचमून क्वचिदपि क्षणमात्रं विभान्ति लेभे । यवीयरगण्यैः कर्पूरचन्द्रोज्ज्वलसगुणोघे वोऽन्तराले न ममे, अतस्तमक्षमन्येासवां सदसि निवासो
कारि । अम्भोनिधिर्यवीय गाम्भीर्यगुणं निरीक्ष्य बुजिक्षयव्याजेनानुमिमोमि स्वछ व्यक्ति।
महोपतेस्तस्य गुवों वदान्यतामुध्यां विलोक्य सुराधिपा अपि न ज्ञायतेऽस्माद् भूतलात् कवा दृष्टिपथं व्यतीताः । किन्नरगीतकोतर्यस्य भुजबलमाश्रित्य लक्ष्मीरचापि चलेति स्वापवावं माष्टं ललनेव वश्याऽभवत् ।
तस्मिन् महीमण्डलमिद्धशौर्ये,
महीपती शासति शासितारी। पक्षक्षति धरधोरणीषु,
निकुञ्जकुमेषु परागरागः ॥ ५५ ॥
उस नरेश के प्रचण्ड बाहुबल के भय से भागी हुई शत्रु की सेना क्षणमात्र भी कहीं पर शान्ति नहीं पाती थी। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि उसके कपूर एवं चन्द्र मण्डल के जैसे उज्ज्वल गुण जब इस भूमण्डल में नहीं समाये तब उन्हें रहने को स्थान देवों की सभा में ही मिला । नरेश के गाम्भीर्य गुण को देखकर समुद्र अब भी वृद्धि एवं क्षय के ब्याज से अपने कष्ट को स्पष्ट रूप से प्रकट करता रहता है । उस महीपाल की प्रथिवी में प्रसृत गुर्वी वदान्यता दानशीलता को देखकर कब कल्पवृक्ष इस भूतल से ओझल हो गये यह ज्ञात नहीं हो सका । किन्नर देवों के द्वारा जिसकी कीर्ति का गान किया गया है ऐसे उस नरेश के भुजबल का प्राश्रय पाकर "लक्ष्मी चंचला है" इस अपने अपवाद को परिमाजित करने के लिए ही मानो ललना के समान लक्ष्मी उसके निकट स्थिर रही ।
अपने शत्रदल को शासित करनेवाले एवं विशिष्ट पराक्रम शाली उस नरेश के शासनकाल में पर्वतों में ही पक्षक्षति थी मनुष्यों में पक्षक्षति नहीं थी। सब अपने-अपने पक्ष में सबल थे । निकुञ्ज-कूजों में ही पराग था मनुष्यों में पर का अपराध करने के प्रति राग नहीं था ।। ५५ ।।।