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वर्धमानचम्पू:
भवत्र तिर्मसगजेन्द्रपंक्ती,
मिलिन्दवृन्वेषु च कायॆमुग्रम् । पयोधरास्ये, जघनस्थलीषु,
नखक्षते वारुणिमंव यत्र ॥५६॥
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पराङ्गनालिगनपापतापात् क्षयी कलडी शशभून्न कोऽपि । सदागतिनगुणाहरी द्विल्पनिम्नल एव नान्यः ॥ ५७ ।।
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संदीपितेऽग्नाविव प्रबलप्रतापे यस्यास्तरकोधश्वालावली सोहुमशक्नुवन्नास्तच्छासनवारिमग्नाः सन्तोऽत्यर्थमसून वसूनि ध ररक्षः।
मदोन्मत्त हाथियों में ही मद का बहाव था, मनुष्यों में मद-घमण्डनहीं था । भ्रमरों में एवं पयोधरों के अग्रभाग में ही कालापन था, मनुष्यों के रूप में कालापन नहीं था । जघनस्थली एवं नखक्षतों में ही ललाई थी, मनुष्यों में ललाई-क्रोध के आवेश में आनेवाली लालिमा नहीं अासी थी ।। ५६ ।।
परस्त्री के आलिङ्गन करने के ताप से चन्द्रमा ही क्षयीकलाओं की हीनतावाला था और कलङ्गी-दोषवाला था, कोई और जन वहां दोषवाला और क्षयरोग से ग्रस्त नहीं था । गंधगण की चोरी करने के कारण वायु ही विरूपमूलिवाला और चल स्वभाववाला था, प्रजाजनों में न कोई विकृत शरीरवाला था और न कोई चंचल स्वभाववाला ही था ।
नरेगा का प्रताप अग्नि के जैसा जाज्वल्यमान रहता था, इसलिए उसके शत्रुजन उसकी क्रोधरूपी ज्वाला को सहन करने में सर्वथा असमर्थ थे, अतः वे उसके शासनरूपी जल में निमग्न रहकर ही अपने प्राणों की रक्षा और द्रव्य की सम्भाल करते रहते थे।