________________
वर्धमानचम्पूः
___ सरिक्रयाचारविशुद्धबुद्धि हियाञ्चितां स्मेरमुखी सखोजनः सेवितपार्श्वभागां स्वप्रियां त्रिशलामसौ निधि चक्रीय निरीक्ष्य परं सौमनस्यावात्मानं कृतकृत्यं मन्यते स्म । सापि सुभ्रक्लिासलासंहस्मिन्दस्मितर्भावणश्च वसुंधराधिपस्य तस्य चित्तं हरति स्म । काम निधानमिवास्याः कलेवरं चौवारिकाभ्यामिव तत्पृथस्तनाभ्यां वप्रायमाच्या च काऊच्या सततं संरक्ष्यते स्म ।
बिम्बाधरोष्ठोत्पललोचनश्रीः,
रंभोरजघनस्थलमावहन्ती । यशागतिः सिंहकटिमरेन्द्र,
सा कंबुकंठी स्ववशं निनाय ।। ५८ ।।
इस नरेश की धर्मपत्नी त्रिशला महारानी सस्क्रियाचार से विशुद्ध बुद्धिशालिनी थी। नारी के गुणस्वरूप लज्जा से विभूषित वह सदा हँसमुख रहती, सखीजन इसकी निकटता नहीं छोड़तीं। अपनी इस प्रियपत्नी को जब नरेश देखता तो चक्रवर्ती जैसे अपनी निधियों को देखने से आनन्दित होता और अपने आपको बड़ा भाग्यशाली मानता है, उसी तरह यह नरेश भी अपने जीवन को सफल और श्रेष्ठ मानता था । त्रिशला भी अपने प्रिय पतिदेव के चित्त को सुश्रुषों के विलासों से, हास्य से, मुसकान से एवं मनोहर वचनालापों से प्रसन्न रखती थी । त्रिशला का शरीर कामदेव का निधान जैसा था । द्वारपाल के समान दो विस्तृत वक्षोज इसकी रक्षा में सतत निरत रहते थे एवं काञ्चीदाम... परकोटे के समान बाहरी अाक्रमणों से इसे सुरक्षित रखता था ।
बिम्बाफल जैसे प्रोष्ठोंवाली, कमल जैसे लोचनोंवाली, केले के स्तम्भ जैसे जघनस्थलवाली, सिंह की कटि जैसी कमरवाली एवं शंख जैसी ग्रीवावाली उस त्रिशला महिषी ने सिद्धार्थ नरेश की अपने ऊपर अनुपम कृपा प्राप्त कर ली थी ।। ५८ ।।