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वर्षमान चम्पूः
कचावलीचंचलचञ्चरीका,
दन्तोद्गमा विस्तृतबाहुशाखा । पोनस्तनश्रेष्ठफलाकिताना,
विभाति सा जंगमवल्लरीय ॥५६॥
विद्वत्तरावाप्तसमस्तविद्या,
सा भूपतेः प्रोणिसपोष्यवर्गा। श्रेयस्तरापास्तसमस्तदोषा,
बभूव मंत्रीव सुराज्यकायें ॥ ६० ॥
चन्द्रानना पत्रितचारुकुम्भ-,
स्तनान्जग्रीवाऽस्य मनोहरन्ती । सा कोफिलालापनिभाल्पजल्पा,
बभूव पुण्याग्धिफला नपस्य ॥ ६१ ।।
त्रिशला एक जंगमलता-चलती-फिरती बेल- जैसी शोभित होती थी। कचावली इस पर चंचल भ्रमर थे। दांत ही इसके पुष्प थे, विस्तृत बाहुएँ ही इसकी शाखाएँ थीं एवं पुष्ट स्तन ही इसके फल थे ॥ ५६ ।।
यह बड़ी विदुषी थी । अपने प्राश्रितजनों पर विशेषकर दासी-दासों पर बड़ी दयावत्ती बनी रहती थी । स्वयं भी मंगलस्वरूप और निर्दोष थी।
सिद्धार्थ नरेश अपनी इस प्यारी महिषी को अपने पुण्यरूपी समुद्र के फलस्वरूप मानतेथे । चन्द्रमा जैसा इसका मुखमण्डल था । चित्रित दुम्भ जैसे इसके स्तन थे, शंख जैसी इसकी ग्रीवा थी और कोफिल 'सी सुहावनी इसकी अल्पमात्रा में बोली गई वाणी थी ।। ६१ ।।