________________
वर्धमानचम्मूः
सा शारदीयाम्बरकान्तिकान्ता,
सर्वेन्द्रियाणाममितं प्रसौख्यम् । समर्पयन्ती स्वविलासमावं,
रजायतास्याभिमसा मुगाक्षी ।। ६२ ॥
केशेयु कार्षण्यं च तनौ तनुत्व,
मधस्तनरवं नमु नामिबिम्बे । भ्र बोश्च बकत्वमपि प्रयाणे,
सा भविमानं वधसी रराज ॥६३ ॥
यस्या उरोजो कठिनी न वाणी,
पायो म मन्दगति नं पाणी। मंघे च पौने न वपुर्यवीयं,
नेत्र चले नैव मनो मुगाक्ष्याः ॥ ६४ ।।
- -
-
.-. .. -
नरेश की प्रत्येक इच्छा की पूर्ति वह महिषी किया करती थी। इसकी शारीरिक कान्ति शरदकालीन अम्बर जैसी थी। वह अपने हावभावों द्वारा अपने पतिदेव के मन को अनुरंजित करने में बड़ी दक्ष थी, इसलिए नरेश को वह बहुत ही अधिक प्यारी थी ।। ६२ ।।
यद्यपि त्रिशला के केशों में कालापन था, शरीर में तनुता थी, नाभि में अधस्तनता थी, भ्रू में वक्रता थी, और गति में मंदता थी, फिर भी वह बड़ी सुहावनी लगती थी ।। ६३ ।।
इसके दोनों उरोज ही कठिन थे, वाणी कठोर नहीं थी । चरण मृदु-कोमल थे, हाथ कोमल नहीं थे, क्योंकि दान देने से वे कठोर बन चुके थे । स्थूल-पुष्ट-जंघाएँ थीं, शरीर स्थूल नहीं था। नेत्र ही चंचल थे, मन चंचल नहीं था ।। ६४ ।।