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वर्धमानचम्मू:
कृष्णाः कधा नान्यगुणाश्च मन्दा,
गति न बुद्धि ननु नाभिग” । नीचो, न वृत्तं कुटिलालकालिः,
वृत्तिर्न सद्भावधि निमितायाः॥ ६५ ॥ गत्या विसज्जीकृतहंसवामां शीलनाधस्कृतविष्णुवामां स्वरेणन्य. पकृतकेकिकान्तां स्वरूपतस्तजितकाममामा तामवामां वामां लगाया नृपालमौलिः सिद्धार्थः स्वात्मानं सिद्धार्थ मन्यमानोऽखिलेन्द्रियग्रामसुखस्य लाभावाखंडसमपि तृणाय मन्यते स्म । ऋतमेतद्यत् पुण्यादते नैव कदापि कस्यापि मनोरथातीतशातावाप्तिर्जायते ।
इरपं सौख्यपयोधिमग्नमनसो नित्योत्सवानन्दिनः, कृत्याकृत्यविचारचारुचतुरां तां शेमुषों बिभ्रतः । नीत्या भ्रष्टाविपक्षकक्षदहनस्यायत्तपृथ्वीमुजः शुद्धाचारबलान्वितस्य विवसायान्त्यस्य मोदप्रदाः ।। ६६ ।।
इसके बालों में ही कालापन था, अन्य गुणों में नहीं । गति में ही धीमापन था, बुद्धि में नहीं । नाभिमण्डल में ही नीचे की ओर झुकाव था, चाल-चलन में नहीं । केशों की पंक्ति ही कुटिल थी, वृत्ति नहीं क्योंकि सद्भावों द्वारा ही इसका निर्माण हुआ था । ६५ ।।।
हंसिनी भी जिसकी गति के प्रागे लजाती थी । शील के प्रागे विष्णु की धर्मपत्नी, स्वरके प्रागे कोकिल और रूप सम्पत्ति के प्रागे कामदेवकी पत्नी रति भी फीकी लगती थी। ऐसी उस अप्रतिकुल आचरणवाली त्रिशला को पाकर नपालौलि सिद्धार्थ यथार्थरूप में अपने पापको सिद्धार्थ मानता था । समस्त इन्द्रिमसुख उसे प्राप्त थे अत: इन्द्र को भी वह नगण्य गिनता था । सत्य है पुण्य के बिना किसी को भी मनोरथातीत सुखों का लाभ नहीं होता।
इस प्रकार सुख सागर में मग्न हुए उस नरेश का चित्त नित्य होनेवाले धार्मिक उत्सवों से प्रमुदित रहता था । कृत्य और प्रकृत्य के परखने में पैनी बुद्धिवाले उस नृपालतिलक के विपक्षों के सर्वथा शाम्त होजाने के कारण दिवस निश्चिन्ततापूर्वक निकलने लगे ।। ६६ ।।