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वर्धमानचम्पू:
भुक्तेऽरीन् प्रबलान् गजानिय हरिः प्रोन्मूल्य शानिय,
वंशाली मगधस्थितां वसुमतौं लक्ष्मीमिवाहन नृपः। तीबालापसुतप्तविक्षु वसुमृद्भभुद्गणाः प्राङ्गणम्,
त्यक्त्वा नव ययु विलोक्य भयतः शार्दूलविक्रीडितम् ॥ ६७ ॥
यस्य ज्ञानमयों महोदयमयी घड्वर्शनोद्घोधिकाम्,
सद्भावः समलक कृतां सुखपथप्रस्थापिका निर्मलाम् । मूर्ति वीक्ष्य सरस्वती भगवती यं दारकत्वेन वे,
लीले भगत स पेगमगुगो विद्यागुरूः श्रेयसे ।। ६८ ॥
जिस प्रकार प्रबल गजों को एक अकेला सिंह दबा देता है उन्हें नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सिद्धार्थ ने भी शंकु के जैसे अपने शत्रुओं को दबा दिया-उखाड़ दिया तथा जिस प्रकार अर्हन्तप्रभु अन्तरंग एवं बहिरंग लक्ष्मी का भोग करते हैं उसी प्रकार सिद्धार्थ नरेश ने भी मगधस्थित वैशाली का शासन किया। उस समय इनके तीव्र ताप से तप्त दिग्मण्डल में इनका शार्दूल जैसा प्रभावशाली क्रीडन देखकर भय के मारे शत्रुनों ने अपने घर का प्राङ्गण नहीं छोड़ा-अर्थात् वे अपने अपने स्थानों को छोड़कर बाहर नहीं गये ।। ६७ ।।
जिनको ज्ञानमत्री, महोदयवती एवं सद्भावों से प्रोतप्रोत मूति को देखकर सरस्वती ने जिन्हें अपना पुत्र माना और इसी कारण जिनके भीतर षड्दर्शनों का ज्ञान--रहस्य-उसने उंडेल दिया ऐसे वे मेरे विद्यागुरु जिनकी निर्मल मूति शिष्यमण्डली को सुखकारी मार्ग पर चलने का उपदेश देती थी, (अम्बासदासशास्त्री) जिनके गुणों की अभी तक उपमा नहीं मिलती मेरे कल्याणकारी हों ।। ६ ।।