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वर्धमानम्पू
खुश्शालचन्द्रजनकेन विनिर्मितेऽस्मिन् श्रीमूलचन्द्र - विदुषा श्राद्यो गतः स्तवक एष मनोमुवे स्यात्,
मनवावरेण ।
स्थगं गतस्य जननीजनकस्य तावत् ।। ६६ ॥
इति वर्धमानवप्रबन्धे प्रथमः स्तबकः समाप्तः
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खुशालचन्द्र के पिता मनवादेवी के पति मूलचन्द्र पण्डित के द्वारा विरचित वर्धमान चम्प्रप्रबन्ध का यह प्रथम स्तबक समाप्त हुआ । दिबंगत मेरे जननी जनक के लिए यह मानन्दकर्ता हो ।। ६६ ।।