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द्वितीय स्तबकः
जननीत्रिशलाजठरे न्ययसच्छुत्तों यथा च खलु मुक्ता । कुर्यात् स शेमुषों मे शुद्धां गुण्यां च वद्धिष्णुम् ॥१॥
यस्यावतारप्रभवप्रभावात् सिद्धार्थभूपालगृहे पपात । सार्वत्रिकोटोप्रमिता सुष्टिनमस्तलाद् रत्नमयी तमोडे ॥२॥
स श्रीवीरो गुणमणिधनी यो न लक्ष्माच्चचाल,
रुद्धः स्निग्धजनकजननोमोहजन्य पंचोभिः । द्रोद्भूतैः प्रबलपरुषस्तैश्च तैर्वोपसर्ग
नोंदिग्नो यो विशवविशदां शेमुषी विदध्यात् ॥३॥
जिस प्रकार शक्ति में मोती रहता है उसी प्रकार वीरप्रभ भी त्रिशलामाता के गर्भ में रहे । ऐसे वे वीरप्रभु मेरी बुद्धि को पवित्र करें, एवं गुणी पुरुषों द्वारा आदरणीय बनावें तथा उस प्रतिभाशालिनी करें ।। १ ।।
जब प्रभु देवलोक से च्युत होकर त्रिशलामाता के गर्भ में आये तब उसके प्रभाव से सिद्धार्थ नरेश के राजमहल में साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा एक-एक बार (१५ माह तक) आकाश से तीन बार हुई। ऐसे प्रभावशाली वीर प्रभु की मैं स्तुति करता हूँ ।। २ ।।
प्रभु गुणरूपी मणियों के धनी है—सच्चे जोहरी हैं । जब प्रभु राजमहल का परित्याग कर तपोवन को जाने के लिए उद्यमी हुए तब माता-पिता ने ममताभरे स्निग्ध वचनों द्वारा उन्हें समझाया-रोका, पर वे अपने लक्ष्य से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए । उज्जैनी नगरी के अतिमुक्तक बन में रुद्र ने इन पर भयंकर से भयंकर उपसर्ग किये, पर वे उनसे भी चलायमान नहीं हुए-अपनी तपस्या में स्थिर रहे । ऐसे वे वीरप्रभु मेरी बुद्धि को अतिविशद करें ।। ३ ।।