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वर्धमानचम्पूः
श्रथ वैभवशालायामिव तस्यां कीर्तिमालायामिय विशालायां वंशाल्यां जगज्जनकुराशिषेव तस्मिन् कराले ग्रीष्मकाले कालक्रमेण दिवंगते तत्क्षणमेव प्रकर्षहर्षोत्कर्षोन्मत्तनिखिलप्राणिभिविहितस्थागतः वर्षाकालः । प्राणनाथविरहात् पतिव्रताया इव वसन्तवियोगान्मनी— भूतायाः पृथिव्याः प्रभाविहीनत्वं प्रविलोक्याशावयस्था घनापदेशात्रीलाब्जायेत तत्प्रमोदार्थ वितेनः । संयोगतविस्फुलिया इव निरालयमा व्योम्नः पतितानि नक्षत्राण्येवेतस्ततः स्वधीतच्छद्मना aar विविधुतिरे । अन्यपुष्टो मौनी बभूव । दर्दुराशवैर्महीमण्डल वर्षाकालाभिनंदनं चकार । बभार च शष्पांकुर व्याजेन क्षोणीतदागमोत्थं हर्बोत्कर्षं । कालेऽस्मिन् मुनिजननिरुद्धं गमनागमनं स्वमर्यादीभूतक्षेत्रक्षेत्रान्तरे, विहिताचैकत्र तत्समाप्तिपर्यन्तं स्थिरा स्वसंस्थितिरतः । जनताऽपि धर्मध्यानतत्परा तदा विशेषतः समजायत ।
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वैभव की शाला जैसी उस वैशाली नगरी में जो कीर्तिरूप माला जैसी विशाल श्री वर्षा ऋतु का शुभागमन हुआ। जगज्जन के मानो दुराशीप से ही उस भयंकर ग्रीष्मकाल का कालक्रम के अनुसार अन्त हुआ। ऐसी स्थिति के होते ही समस्त जन प्रत्यधिक आनन्द से नात्र उठे । उन्होंने हर्षविभोर होकर वर्षाऋतु का स्वागत किया । जब दियारूप सखियों ने अपनी सहेली पृथिवी को प्रभाविहीन एवं वसन्त के वियोग से अनमनी देखा तो उन्होंने उसके मनोविनोद के लिए मानो नीलकमल के जैसे मेघों को आकाश में बखेर दिया । जिस प्रकार धन से ताहित होने पर प्रत्यन्त तप्त हुए लोहे के गोले से स्फुलिङ्ग निकलकर इधर उधर बिखर करके गिरजाते हैं, ठीक उसी प्रकार उस समय रात्रि में चमकती हुई जुगुनियों को देखकर ऐसा लगता था कि निरालम्ब होने के कारण ये आकाश से गिरे हुए तारे ही इधर उधर चमक रहे हैं। इस समय कोयल ने मौन धारण कर लिया । मण्डल ने बोलते हुए मेहकों की ध्वनि से ही मानो वर्षाकाल का अभिनन्दन किया | पृथ्वीमण्डल ने उद्भुत हुए दूर्वाकुर के ब्याज से मानो वर्षाऋतु के आगमन से उत्पन्न हुए अपने प्रकर्ष हर्ष को प्रकट किया । मुनिजनों ने अपना विहार - स्त्रमर्यादीकृतक्षेत्र मे क्षेत्रान्तर में आना-जाना बन्द कर दिया । एवं वर्षाकाल की समाप्ति होने तक एक ही स्थान में रहने का योग -- वर्षायोग - धारण किया। जनता भी सावधान होकर धर्मध्यान करने में तत्पर हो गई ।