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बंर्धमानचम्पू:
परस्परस्नेहनितद्धचित्ताविमौत्रतो दानपि धर्मकृत्यम । संभूय हर्षाञ्चितकाययष्टी असे विष्णतां हितकाम्ययंव ॥४॥
एकस्मिनहनि सा त्रिशला निशायामाषाढमासस्य शुक्लायो षष्ठ्या तिथौ हस्तनक्षत्रेण समन्वितायां स्वकोयनन्द्यावर्तनाम्नि राजभवने हंसतूलसमन्विते पत्यके प्रमोदमग्नासती शेते स्म । सार्वर्तुकसुखावहे तस्मिन् भवने द्वयोः पार्श्वयोर्लोहिताक्षमयबिम्बोको तपनीयगंडोपधानकलितां सालिंगनवतिकामुपचितदुकूलपरिच्छिन्नां शय्यामधिशयाना निद्रावती क्षणदाया अन्तिमयामे शिवानुदारानिमान् हितकरान् षोडशस्वप्नान् प्राभातिके मारते वाति ददर्श । तद्यथा--करिपतिः १, वृषभः २, केशरी ३, लक्ष्मीः ४, मालायुग्मम् ५, शशाङ्क: ६, अर्यमा ७, झषयुगलम् ८, सलिल
पारस्परिक स्नेह से जिनका चित्त अनुरक्त हो रहा है ऐसे उन सिद्धार्थ और त्रिशला ने भी बड़े हर्ष के साथ मांगलिक कामना से ही धामिक कायों की आराधना में एक साथ अपना योगदान दिया ।।४॥
एक दिवस की बात है जब त्रिशला निश्चित होकर प्रानन्द के साथ अपने नंद्यावर्तनामक राजमहल में गद्दे त किये से सुसज्जित कोपल पलंग पर सो रही थी, तब उसने रात्रि के अन्तिम पहर में सोलह स्वप्न देखे। यह दिन प्रासाढशुक्ला षष्ठी तिथि का था । हस्तनक्षत्र का योग था । पलंग पर झूल पड़ी थी। गद्दे के ऊपर जो आस्तरण बिछा था उसके प्राजू बाजू के कोनों पर मरकत मणियों की झालरें लटक रहीं थीं । तकियों की खोलियां तपनीय सुवर्ण की जैसी प्राभावाली थीं । नंद्यावर्त भवन सर्वऋतुओं के प्रानन्द को देनेवाला था । स्वप्नाबलोकन के समय त्रिशला गहरी नींद में नहीं सो रही थी । अल्प निद्रावती थीं।
वे स्वप्न इस प्रकार हैं-(१) गजराज, (२) बैल, (३) सिंह, (४) लक्ष्मी, (५) दो माला, (६) चन्द्रमा, (७) सूर्य, (८) दो मछलियां,