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वर्धमानचम्प: मरितः सौर्णिकः कुंभः ९, तडागः १०, समुद्रः ११, हर्यासनम् १२, वेबविमानम् १३, धरणेन्द्रभवनम् १४, रत्नराशिः १५, धूमविजितो धमध्वजश्च १६
तदनन्तरं पूर्वदिशि रक्ताशोकपर्णाभा संध्योदगात् । पश्चिमाशे हताशे ! त्वय्यनुरागादेवाहं यावन्नक्त रविसुतविरहिता बभूवेत्थं शुकशावकाधारायच्छमना पुरन्दराशा तामुपासमं दातुमिव कोपारणा संजाला।
प्राविरासीद् रवी राशि तमसः स्वोत्करैः करैः । धुन्धत्, भासयन् विषयान् काष्ठा प्रष्ट प्रकाशयन् ॥५॥
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(६) जल से भरा हुआ सुबणं कलश, (१०) तालाब, (११) समुद्र, (१२) सिंहासन, (१३) देव विमान, (१४) धरणेन्द्र भवन, (१५) रलराशि और (१६) निर्धूम अग्नि ।
इसके बाद पूर्व दिशा में रक्त अशोक के पत्र के वर्ण जैसी संध्या प्रकट हुई। "मेरी प्राशानों पर पानी फेर देनेवाली हे पश्चिम दिशा ! तूने मेरे बेटे को अपने ऊपर अनुराग सम्पन्न कर अपने पास रखा लिया, अतः मैं अपने प्यारे-लाडले-लाल से रात भर विरहित रही" ऐसा उलाहना शुक शावक प्रादि परिन्दों की चहचहाहट के छद्म से मानो पश्चिम दिशा को देने के लिए ही पूर्व दिशा क्रोध के प्रावेश से लाल हो गई।
अपनी तीक्ष्णकिरणों से अंधेरे को चकनाचूर करते हुए घटपटादि पदार्थों को प्रकाशित करते हुए और आठों दिशाओं के मुख को उज्ज्वल करते हुए सूर्य का उदय हुमा ।। ५ ।।