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वर्धमानचापूः
स्वात्मानंद प्रकाशानिजहदि समसावल्लरीतिजुष्टास्तुष्टाः शिष्टाभिराध्या विधृतरामरमार्गुणः सद्विशिष्टाः। हष्टाचारित्रलरध्या विमलगुणगणाम निष्ठयाराधयन्तः, सन्तः सन्तु प्रसन्ना बदतु मम शुभां सिमालामनन्ताम् ॥३॥
पूर्वीयसंस्कारवशंगतो यो पुषापि दीक्षां धृतवान् मनस्वी। सिद्धार्थसाम्राज्यमवेत्यकारी संशलेयं प्रममामि नित्यम ॥४॥
अपासीरकंठीरवाकृतिरयं जन्मत एव सर्वाङ्गसुन्दरः साक्षात पंचशर इब पश्यतां वृष्टौ तथापि युवावस्थया यराज्यमाश्लिष्टस्तदा
वे सन्तजन सद्गुरुदेन—जो कि अपने हृदय में स्वात्मानन्द के प्रकाश से समस्तजीवों पर समतारूपी यल्लरी-बेल-की वृद्धि से परिपुष्ट होते रहते हैं, सन्तोषामृत के पान से जो सदा तुष्ट बने रहते हैं, शिष्टजन जिनकी आराधना में अनिश लगे रहते हैं, जिनकी निर्मल प्रात्मा में शमदम प्रादि जो कर्मों की निर्बरा के कारण हैं सदा अठखेलियां किया करते हैं और इसी कारण जो सज्जनोत्तम रूप से मान्य हो जाते हैं, चारित्र की निर्दोष माराधना से ही जो प्रसन्न चित्त रहते हैं एवं निष्ठापूर्वक और भी अनेक सद्गुणों की सेवा में जो अपने आपको समर्पण कर चुके होते हैं ऐसे थे महामहिमशाली सन्तजन मुझे प्रसन्न होकर ऐसी शुद्धबुद्धि रूप मासा प्रदान करें जो कभी भी मुरझावे नहीं ॥ ३ ॥
पूर्व भव के संस्कार के वशवर्ती हए जिस युवा महाबीर ने-वर्धमान ने-अल्पकाल में-वर्ष की अवस्था में विचारपूर्वक अणुव्रतरूप देशचारित्र को धारण किया और वंश परम्परा से चले आये हुए सिद्धार्थ नरेश के साम्राज्य का परित्याग कर दिया ऐसे त्रिशला के लाडले लाल को मैं सदा नमस्कार करता हूं ।। ४ ।।
सिंह के समान बलिष्ठ प्राकृतियाले वे वर्धमानकुमार यद्यपि जन्म से ही सर्वाङ्ग सुन्दर थे, अतः देखनेवालों की दृष्टि में वे साक्षात् कामदेव के