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पर्वमानबम्पूः ग्राणोल्लिखितवचमिव निखिलाङ्गोपाङ्गषु सौन्दर्यमुद्रोपेतो विशेषतो जानिष्ट । प्रत्यासाधारणशान-बल-वीर्य-पराक्रम-सेजस्तारमगरिमहिमा यत्र तत्र परितः प्रसृतः । प्रसोऽनेकेषां क्षितिभुमा स्वीय स्वीय सुताभिरनङ्गनाभिरिव कमनीयरूपाभिः साधं परिणयप्रस्तावास्तपितुः सिद्धार्पभूपतेः सविधे समागच्छन् । स्तेषु कलिङ्गदेशाधिपतिरेको जितमा विजितानेकशत्रुरप्यासीत् । पासोपस्मालयालारस्वरूपा अयोधिपसौन्दरास्ट्रिा लागुणालानांया विधाना विनिमितरूपा मास्वराकारोपेता यशोदेति नाम्ना विख्याता सुता त्रिशला सुतोद्वाह योग्येति राज्ञा सिद्धार्थन त्रिशलया महिन्या चैकमत्या स्वपुत्रस्य परिणय
जमे प्रतीत होते थे परन्तु फिर भी शाणोल्लिखित मणि के समान वे समस्त मंगोपागों में सौर मधिक विशेष रूप से तब चमके जब वे युवावस्थापन बने । उनके असाधारण ज्ञान, बल, वीर्य, पराक्रम, तेज और तरुणाई के गौरव की महिमा अब इधर उधर चारों ओर फैल गई थी, इसलिए अनेक राजा अपनी-अपनी पुत्रियों के साथ वर्धमान कुमार का वैवाहिक सम्बन्ध निश्चित करने के लिए उनके पित्ताश्री के पास प्रस्ताव लेकर आने लगे। इनमें एक कलिङ्ग देश के अधिपति जितशत्रु ने भी अपनी पुत्री के साथ वर्धमान का वैवाहिक सम्बन्ध निश्चित करने का प्रस्ताव सिद्धार्थ नरेश के पास भेजा । कन्या का नाम यशोदा था । यशोदा जितशत्रु के राजभवन की शोभारूप-अलंकार स्वरूप थी । इसके अंग-अंग से सौन्दर्य की प्राभा ऐसे चमकती थी मानो विधाता ने सद्गुणों को लेकर ही इसका रूप रचा हो । यह भास्वर प्राकारवाली, बड़ी सुहावनी एवं लुभावनी थी । वर्धमानकुमार के यह योग्य है ऐसा विचारकर राजा सिद्धार्थ और त्रिशलारानी दोनों ने मिलकर यह निश्चय कर लिया था कि वर्धमानकुमार का विवाह