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वर्धमानम्पूः
संबंधस्तवामा निर्णयोपेतो विहितः । तदनन्तरं सिद्धार्थः प्रभूतोत्साह - पूर्वकं तद्वैवाहिक समारम्भे संलग्नोऽभवत् । यतस्तच्चेतसीयमेव बलिष्ठोस्कंsssसीद् यवहं महोत्साहपूर्वकं पुत्रोद्वाहं विधास्य इति ।
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वैवाहिकसमारंभानवलोकयता वर्धमानकुमारेण
पृष्टस्तातः
तात ! किमर्थं भवद्भिरेते समारंभा प्रतन्यन्ते - तदोक्त' पित्रा प्रियपुत्र ! स्वविवाह कृते । निशम्य तज्जनकस्य वचो वर्धमानोभाणि - तात ! विवाहमहं नैव करिष्यामि । किमर्थ पुत्र ! परमसौभाग्यशालिना त्वयैव मुच्यते ।
यशोदा के साथ ही किया जाये । इस निश्चय के बाद सिद्धार्थ नरेश प्रबल उत्साह के साथ उनके विवाह की साधन सामग्री के जुटाने में व्यस्त रहने लगे क्योंकि उनके मन में यही एक प्रबल उत्कंठा थी कि वे बड़े ठाट-बाट के साथ ही अपने पुत्र वर्धमान का विवाह करेंगे ।
एक दिन की बात है कि वर्धमान कुमार ने वैवाहिक समारम्भ को जब देखा तो पिताश्री से पूछा- तात ! आप किसलिए इन समारम्भों में व्यस्त हो रहे हो ? पिता ने प्रत्युत्तर में कहा -- प्रियपुत्र ! तुम्हारा विवाह होना है ना- इसलिए उनकी साधन सामग्री के जुटाने में में व्यस्त हो रहा हूं। पिता के ऐसे वचन सुनकर वर्धमान ने कहा - पिताजी -- मैं विवाह नहीं करूँगा । पिता ने कहा- बेटा ! यह क्या कहते हो - विवाह नहीं करोगे - ऐसा क्यों ? तुम तो परम सौभाग्यशाली हो अतः तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिये ।