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वर्धमाननभ्यूः
अत्र समुचितं स्वोत्तरं प्रकाशयता कमारेण विनम्रमायेन निजाभिप्रायः सुस्पृष्ट शब्दः सवितारं प्रति प्रकटीकृतः । स्तुतपिचारधारयाऽवगतोऽपि पिता मोहात् सगद्गवकंठीभूय पात्रमेयमुवाच, नन्दन ! चिरमाणलषितेन स्बोद्वाहेनास्मान् नन्वय । सफलयास्मदीयां घिरपोषिताशां सद्भावनां च । सेवस्व सांसारिक सुखं, राज्यहर्यासनं चाध्यास्य प्रजाः पालय । यथाभिलषितं पश्चाद्धर्मचर । नाहं प्रतिपन्यो भविष्यामि ।
किञ्चित्काल निवस · निलये पालयोपासकास्यम्, धर्म पश्चाद् यतिवरवषं साधय स्वं प्रमोवात् । मुक्तवा सर्वान् प्रियसुत ! मदीयाभिलाषामपूर्णा, पूर्णा कृत्वा सुखय निखलान् दुःखदग्धान् स्वन्धन ।। ५ ।।
तव बर्मनि वर्ततां शिवं सततं से भवतात्त सुदर्शनम् ।
इस सम्बन्ध में समुचित उत्तर देते हुए कुमार ने बड़े विनम्र शब्दों में अपना अभिप्राय पिताजी को कह सुनाया। पुत्र की विचारधारा से अवगत हो जाने पर भी ममता के वशवर्ती होकर पिता ने गद्गदकंठ होकर पुत्र से कहा-बेटा ! चिरकाल से हमारी तो यही अभिलाषा थी कि हम तुम्हारा विवाह कर तुम्हें राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त कर । तुम प्रानन्दपूर्वक प्रजा का पालन करो । पश्चात् रुचि के अनुरूप धर्म का सेवन करो । में इस कार्य में तुम्हारा बाधक नहीं बनूंगा।
अतः तुम कुछ समय तक घर पर रहकर गृहस्थ धर्म का पालन करो । बाद में परिपक्व अवस्था हो जाने पर मुनिवर धर्म का सकल संयम का पालन करना । अभी तक पुत्र के प्रति जो पिता का कर्तव्य होता है उसे में पूर्णरूप से निभा नहीं पाया हूँ । अतः इस अपने कर्तव्य को मैं निभा तूं ऐसी जो मेरी अभिलाषा है उसे तुम पूर्ण करो–अपूर्ण मत रहने दो। ये जो तुम्हारे और भी बन्धुजन हैं उन्हें भी सुखी करो।।। ५॥
मैं तो यही चाहता हूं कि तुम्हारा अभिलषित मार्ग कल्याणकारी हो और हमें तुम्हारे पवित्र दर्शन निरन्तर होते रहें।