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वर्धमान वम्पूः इत्पर्धोक्तं सत्यागतमोहावेशेम निरुद्ध कंठः सजलनयनो नपोऽग्ने वक्तुं न शशाक । एवं विधां मोहबन्तुरितां पिसुर्यचनरचना समाकर्म पारावारगंभीरो बर्धमानकमारो मन्दस्मित कपटेन पीयूषषं विकिरनिवेस्थं मोहप्रध्वंसिनी मुवाच वाचम् । सात ! निखिलाः संसारिणोऽसुभृतः कर्मबंधन निगडिता विस्मृत्य स्वकीय स्वरूपं विविर्धा व्यसनपरंपरा भुजते, कथमेते वुःखगर्लभ्य उस्थिता भवेयुः, कथमिव वा वितय सांसारिक सुख मान्यतोद्भुत विविध विधि बन्धेभ्यश्चैते विरहिता मुक्ता वापुरीदृशं सन्मार्ग तान् बोधयितुममत्र वर्तमानपर्यायेऽवतीर्णोऽस्मि । अतः कथमहं तात ! स्वयं गृहस्थागधन निबसीगा सासर्ग हां कतुं सक्षमो भविष्यामि । किञ्च-हिंसामानविभ्रमदुराधारात्याचारा येऽधुना प्रसरिता प्रचलिताश्च सन्ति तेर्षा निराकरणरूपं महत्कार्य
इसके बाद सिद्धार्थ अपना अभिप्राय प्रकट नहीं कर सके—क्योंकि बीच ही में प्रागतमोह के आवेग ने उनके कंठ को अवरुद्ध कर लिया । पाखें उनकी डबडबा पायौं । इस प्रकार की मोह से सनी हुई पिता की वाणी को सुनकर समुद्र के सुल्य गम्भीर वधंमानकुमार ने मन्द मुसकान के बहाने मानो पीयूषरस को विकीर्ण करते हुए ही इस प्रकार से गम्भीर वाणी द्वारा अपना अभिप्राय पिताश्री से प्रकट किया हे तात ! संसार के जितने भी प्राणी हैं वे सब कर्मरूप बन्धन से बन्धे हुए हैं तथा निजस्वरूप को भूलकर · अनेकविध कष्टों को सहन कर रहे हैं । ये दुःखरूपी गों से बाहर कैसे निकलें, कैसे ये झूठे सांसारिक सुखों को सच्चे सुखों की मान्यता में फंसानेवाले कर्मों के बन्धन से रहित हों-मुक्त हों ऐसे सन्मार्ग का उन्हें बोध कराने के लिए तात ! मैं इस वर्तमान पर्याय में अवतरित हुअा है। अतः हे जनक ! मैं कैसे अपने प्रापको गृहस्थाश्रमरूप बन्धन से जकड़ कर उनके सभा सन्मार्ग की प्ररूपणा करने के लिए समर्थ हो सकूँगा । किश्च-इस समय हिंसा, अज्ञान, विभ्रम, दुराचार और अत्याचार फैल चुके हैं और इनका प्रचार भी हो रहा है, अत: इनके निराकरण करने का बहुत बड़ा