________________
वर्धमानः
मत्संमुखे समुपस्थितं समस्ति । अतः कथय कथमहं तात ! कम्मराजस्य मंगीकृत्य स्वदाज्ञावशवर्ती स्याम् । नाहं निरर्थकव्यापारेण स्वशक्तेरपव्ययं कर्तुमीहे । भोगान् भुक्त्वा भोमाभिलाषा प्रशाम्यति मान्यतया जगज्जनानां तात ! वह्नः प्रशमनाय घृताहुतिरिवानर्थावहा ।
97
रक्तेन ब्रूषितं वस्त्रं यथा तात ! रक्तेन नहि शुध्यति तथेय विषयेविषयाभिलाषा नेव प्रशान्ता भवति - प्रत्युत विवर्धते । सा तु तस्यागेनंय । प्रतोऽहं न कांक्षे राज्यं न संध्यारागसमप्रभं भोगं न विविधकृच्छपरम्परा विवर्धकदक्ष मापातमनोहरं चोद्वाहमिति सुस्पृष्टमुक्तवतः, स्वध्येयसिद्ध्यर्थं स्वयम सिधारा वबुधूत ब्रह्मचर्यव्रतस्य स्वसुतस्य ज्ञान
कार्य मेरे समक्ष उपस्थित है । इसलिए आप ही मुझे समझा कि मैं कैसे कामराज की दासता स्वीकार कर श्रापकी श्राज्ञा की प्राराधना करूं। मैं निरर्थक व्यापार के द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करना चाहता हूं । भोगों को भोग करके भोगाभिलाषा मान्त हो जाती है ऐसी जो जगत्वर्ती जीवों की मान्यता है वह है जनक ! वह्नि - प्रग्नि को शान्त करने के लिए उस पर प्रक्षिप्त की गई घृत की श्राहुति के समान अनर्थकारी ही है ।
अरे ! रक्त से लथपथ हुआ वस्त्र क्या कहीं रक्त से साफ होता है ? यदि नहीं होता है, तो इसी तरह विषयों के सेवन से विषयाभिलाषा भी शान्त नहीं होती है । उसकी शांति का उपाय तो उसका परित्याग करना ही है | अतः हे तात ! मैं न राज्य चाहता हूं, न संध्याराग के समान भोगों को चाहता हूं और न दुःखों की परम्परा बढ़ानेवाले इस आपात मनोहर वैवाहिक सम्बन्ध को ही चाहता हूं। इस प्रकर स्पष्ट वक्ता ब्रह्मचर्यं व्रतधारी वर्धमान कुमार को अपने ध्येय की सिद्धि में अडिग देखकर मौर