________________
98
बर्धमानचम्पूः
गभिता वाचमित्थमुक्तां परिपीय पितृभ्यां विनिश्चतं यदयं परिणयबन्धनेन बद्ध न शक्यते कथमपि । अतो यवस्मं रोचते तदेवायं कुर्यादिति । तदनन्तरं न तौ पितरौ तद्वियोगकातरौ विवाहकते तं चोदयामासतुः। परं तूष्णीभावमास्थायव संस्थितौ।
प्रेष्मतरणिवदुदिता तरुणावस्था यदा संजायते सदा सर्वेऽपि मोहिनो जीवाः स्मराशावशतिनो जायन्ते । कालेऽस्मिन् कामवासना प्रबलवेगशालिनी स्रोतस्विनीव तरितुमशक्योभयकूलंकषा, तद्वशंगताः केचित्तु स्वजीवितुमपि मुचंति, वैभवं पाक विवेकमपि परित्यजन्ति, शालीनता विस्मरन्ति । मवोन्मत्तकरिण इव स्वास्मानं नानाविधव्यसनगर्तेषु
उनकी ज्ञानगमित वाणी को अच्छी तरह विचारकर माता-पिता ने यह निश्चय कर लिया कि अब यह विवाहरूप बन्धन से जकड़ा नहीं जा सकता । इसलिए जो इसको रुच रहा है वही इसे करने दिया जावे और इससे अब कुछ न कहा जावे । ऐसा समझकर उन्होंने वैवाहिक सम्बन्ध के लिए उन्हें फिर प्रेरित नहीं किया । दोनों शान्त होकर बैठ गये ।
जब ग्रीष्मावकाश के सूर्य के समान युवावस्था प्रकट होती है तब समस्त मोही जीव कामदेव की प्राज्ञा के आधीन हो जाया करते हैं । इस समय कामवासना प्रबल वेगवती हो जाया करती है और वह प्रबल प्रवाहवाली नदी के जैसी पार करने के योग्य हो जाती है 1 प्रबल प्रवाहवाली नदी जिस प्रकार अपने दोनों तटों को गिराती हुई बहती है उसी प्रकार कामी जन भी काम के प्रबल दाह से जब संतप्त हो जाता है तब वह भी अपनी आन-बान को, कुलपरम्परा को विसार देता है। कामरूपी वंचक की प्रपंचरचना से ठगाये हए कितने ही जन अपने जीवन की भी परवाह नहीं करते, न बे वैभव की परवाह करते हैं और न भोजन की और न शालीनता की ही । मदोन्मत्त हाथी की तरह वे कामी जीव अपने पापको नाना