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चतुर्थ स्तबक'
विवाहोपक्रमः
येनाsधारि महामहाव्रतमयः शोलोऽपवर्गप्रदः,
स्वर्गश्रीललनाकटाक्षकलितामनपेक्ष्य लावण्यताम् । तारुण्यं विगणय्य गण्यकृतिमाऽरण्यापगाम्भः समम्,
आयुष्यं जललोलबिन्दुचपतं संचिन्त्य तस्मै नमः ॥
तारुण्ये जयिना स्मरं विजयिनं जित्वाऽथ भोगाई, वधे येन महौजसाऽतितरसा तीर्थंकरैरादृता । वीक्षा, Sक्षाश्वबलप्रसारशमने सुप्रप्रह्मोपमा, सोऽयं वस्त्रिशलात्मजो विभुवरो भूयान्ममव्याधिदः ॥ २ ॥
विवाहोपक्रम
जिसने जवानी को नदी के जल के समान अस्थिर समझकर और आयु को प्रोस की सलिल बिन्दु के जैसी मानकर महान् कठिन ब्रह्मचर्य महाव्रत का, जो कि श्रपवर्ग-मुक्ति का साधक हे धारण किया - पालन किया, तथा जिसने स्वर्गीय श्रीरूपललना के द्वारा अभिलषित अपने सौन्दर्य की जरा भी परवाह नहीं की ऐसे उस वर्धमानकुमार को मैं नमस्कार करता हूं ।। १ ।।
भोगों को भोगने के योग्य भर जवानी में जिस विजयी वीर ने जगज्जयी कामदेव को जीतकर बड़े भारी पराक्रम के साथ बहुत ही जल्दी तीर्थंकरों द्वारा श्राहत देगम्बरी दीक्षा धारण की कि जो इन्द्रियरूपी घोड़ों के स्वच्छंद गमन रूपी बल के थामने में लगाम के जैसी मानी गई है ऐसा यह त्रिशला का इकलौता लाल आप सबकी व मेरी व्याधि का विनाश करनेवाला हो ॥ २ ॥